क्यों नहीं खत्म की जा रही है कोलेजियम प्रणाली

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क्यों नहीं खत्म की जा रही है कोलेजियम प्रणाली

फ़ज़ल इमाम मल्लिक

भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने पिछले साल जून में महत्त्वपूर्ण टिप्पणी की थी. उनकी टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति करने वाले कोलेजियम सिस्टम पर तंज भी था और सवाल भी. हालांकि उनकी टिप्पणी पर उस तरह चर्चा नहीं हुई जिस तरह होनी चाहिए थी. चीफ जस्टिस एनवी रमना ने देश के सभी छब्बीस हाईकोर्टों के मुख्य न्यायधीशों और कार्यकारी मुख्य न्यायधीशों के साथ बैठक की थी. उस दौरान उन्होंने हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए चली आरही कोलोजियम सिस्टम पर चर्चा की. हालांकि इसकी खबरें नहीं छपीं. न ही चैनलों पर इस पर बहसें हुईं.

लेकिन मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने इस पर लंबी और गंभीर चर्चा की और इस बात पर चिंता जताई कि कोलेजियम प्रणाली के तहत एससी-एसटी, ओबीसी, अल्पसंख्यकों और महिलाओं की हिस्सेदारी बहुत कम है. जो खबरें इस बैठक से सामने आईं उसके मुताबिक एनवी रामना का मानना है कि कोलेजियम सिस्टम के तहत जजों की बहाली में ओबीसी, एससी-एसटी, अल्पसंख्यकों और महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़नी चाहिए. माना जा रहा था कि सुप्रीम कोर्ट इस दिशा में गंभीरता से विचार कर रहा है.

वैसे इस महत्त्वपूर्ण चर्चा की खबरों से देश के लोग बेखबर रहे. अंग्रेजी अखबार ‘द टेलिग्राफ’ ने जरूर इसे प्रमुखता से छापा था. हालांकि उनकी इस चिंता के बाद भी कोलेजियम प्रणाली के तहत कई जजों की नियुक्तियां हुईं. दरअसल हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति में कुछ खास घरानों का दबदबा रहा है. कुछ घरानों से जुड़े लोग ही जज बन पाते हैं. देश का बड़ा और वंचित तबका हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का जज नहीं बन पाता है. देश में न तो किसी तरह का संवैधानिक प्रावधान है और न ही कोई फ्रेमवर्क जो देश के विभिन्न जातियों, संप्रदायों और महिलाओं के जजों के पदों पर नियुक्तियां सुनिश्चित करें, जिस तरह की सुविधा उन्हें उच्च शिक्षा या नौकरियों में मिल रहीं हैं. मुख्य न्यायाधीश जेवी रामना ने अपने विचार रखते हुए कहा था कि हाई कोर्ट कोलेजियम के जरिए दलितों, पिछड़ों, जतजाति, महिलाओं और अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़े नामों की सिफारिश जज के पदों के लिए जरूर करे, ताकि सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम उन नामों पर अपनी मुहर लगा सके. जस्टिस रमना ने इस बात पर लगातार जोर दिया के हाशिए पर पड़े लोगों को हाई कोर्ट का जज बनना चाहिए ताकि हाई कोर्ट सामाजिक न्याय के नजरिए से बेहतर ढंग से काम कर सके और न्यायिक व्यवस्था में सबका साथ मिले. दरअसल इस बात को लेकर सवाल अक्सर उठाए जाते रहे हैं कि दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक और आदिवासियों की नुमाइंदगी हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट में न के बराबर है. हालांकि इस बैठक को हुए छह महीने से ज्यादा का समय हो गया है लेकिन जस्टिस रमना के विचारों पर अब तक अल नहीं हो पाया है.

करीब तीन साल पहले कोलेजियम सिस्टम के खिलाफ बिहार से आवाज उठी थी. तब उपेंद्र कुशवाहा केंद्र में मंत्री थे. उन्होंने संसद में इस मुद्दे को उठाते हुए यूपीएससी की तरह ही न्यायिक प्रणाली बनाने की वकालत की थी. उनका कहना था कि गरीब और वंचित तबके (इसमें दलित-महादलित, पिछड़ा-अतिपिछड़ा, अल्पसंख्यक, महिला, आदिवासी और सवर्णों में गरीब घर के बच्चे) हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज नहीं बन पाते हैं जबकि वे डिप्टी-कलेक्टर ही नहीं राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री बन जाते हैं. इसलिए कोलेजियम प्रणाली को खत्म कर यूपीएससी की तर्ज पर जजों की नियुक्ति के लिए परीक्षा हो और परीक्षा में सफल उम्मीदवार जज बन सकें. उपेंद्र कुशवाहा ने कहा था कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति पारदर्शी नहीं होती है और कुछ खास घरानों से जुड़े लोग ही देर-सवेर जज बन जाते हैं. यह व्यवस्था खत्म होनी चाहिए क्योंकि इससे देश के वंचित तबके को न्याय मिलने में देरी तो होती ही है, कई बार न्याय भी नहीं मिलता है.

उपेंद्र कुशवाहा तब राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे और नरेंद्र मोदी सरकार में मानव संसाधन राज्य मंत्री. उपेंद्र कुशवाहा ने कोलेजियम प्रणाली के खिलाफ 2018 में अभियान भी शुरू किया था. उन्होंने इस अभियान का नाम हल्ला बोल-दरवाजा खोल दिया था. दिल्ली से इस अभियान की शुरुआत हुई थी और बिहार सहित देश के कई राज्यों में सेमिनार का आयोजन कर उन्होंने इसकी खामियां बताईं थीं. इन सेमिनारों में न्यायिक व्यवस्था से जुड़े लोगों को भी बुलाया जाता था और इस पर चर्चा की जाती थी. इसे आम लोगों का व्यापक समर्थन भी मिला. हालांकि कोरोना की वजह से दो साल से उनका अभियान थम गया है.

उपेंद्र कुशवाहा अब जदयू में हैं. वे जदयू संसदीय बोर्ड के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. जदयू के मंच से भी उन्होंने कोलेजियम प्रणाली के सिस्टम के खिलाफ आवाज उठाई है और देर-सवेर जदयू इसे राष्ट्रीय मुद्दा बनाएगा, ऐसा माना जा रहा है. फिलहाल बिहार में जातीय जनगणना पर जदयू ने मोर्चा खोल रखा है. बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जातीय जनगणना कराने पर अड़े हैं. इस मुद्दे पर भाजपा उसके साथ नहीं है, लेकिन जदयू दो-दो हाथ करने के मूड में भी है. केंद्र सरकार के मना करने के बाद बिहार में जातीय जनगणना की तैयारी चल रही है. उपेंद्र कुशवाहा कोलेजियम प्रणाली का मुद्दा छोड़ना नहीं चाहते हैं. इस मुद्दे पर वे हल्ला बोलेंगे. सभा-सेमिनारों के जरिए केंद्र सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति बनाई जाएगी. उनका कहना भी सही है. इस पुराने सिस्टम को त्याग देना चाहिए. गरीबों और वंचितों की पीड़ा को अभिजात्य वर्ग से जुड़े जज नहीं समझ सकते हैं.

फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में सिर्फ एक दलित जज भूषण गवई हैं जो मई, 2025 में मुख्य न्यायाधीश बनेंगे. लेकिन उनका कार्यकाल सिर्फ छह महीने ही रहेगा. पिछड़ा वर्ग से कोई जज नहीं है. इनके अलावा एक मुसलिम जज अब्दुल नजीर हैं और इसी तरह एक महिला जज इंदिरा बनर्जी हैं. यूं सुप्रीमकोर्ट में चार मुसलिम मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एम. हिदायतुल्ला, जस्टिस एम हमीदुल्ला बेग, जस्टिस एएम अहमदी और जस्टिस अलतमश कबीर रह चुके हैं. देश के पच्चीस हाई कोर्ट में फिलहाल 650 जज हैं, हालांकि इनमें 1080 जजों की जरूरत है. जस्टिस रमना ने जिस बहस की शुरुआत पिछले साल की थी, उस पर अमल फिलहाल होता तो दिख नहीं रहा है. लेकिन जरूरत इस बात की है इस पर गंभीरता से विचार किया जाए और कोलेजियम प्रणाली को खत्म कर कोई दूसरी प्रणाली शुरू की जाए ताकि गरीबों और वंचितों के बेटे-बेटियां हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज बन कर समाज को न्याय दिला सकें.


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