अब सिर्फ मुसलमान के भरोसे है भाजपा !

गोवा की आजादी में लोहिया का योगदान पत्रकारों पर हमले के खिलाफ पटना में नागरिक प्रतिवाद सीएम के पीछे सीबीआई ठाकुर का कुआं'पर बवाल रूकने का नाम नहीं ले रहा भाजपा ने बिधूड़ी का कद और बढ़ाया आखिर मोदी है, तो मुमकिन है बिधूड़ी की सदस्य्ता रद्द करने की मांग रमेश बिधूडी तो मोहरा है आरएसएस ने महिला आरक्षण विधेयक का दबाव डाला और रविशंकर , हर्षवर्धन हंस रहे थे संजय गांधी अस्पताल के चार सौ कर्मचारी बेरोजगार महिला आरक्षण को तत्काल लागू करने से कौन रोक रहा है? स्मृति ईरानी और सोनिया गांधी आमने-सामने देवभूमि में समाजवादी शंखनाद भाजपाई तो उत्पात की तैयारी में हैं . दीपंकर भट्टाचार्य घोषी का उद्घोष , न रहे कोई मदहोश! भाजपा हटाओ-देश बचाओ अभियान की गई समीक्षा आचार्य विनोबा भावे को याद किया स्कीम वर्करों का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन संपन्न क्या सोच रहे हैं मोदी ?

अब सिर्फ मुसलमान के भरोसे है भाजपा !

 हरिशंकर व्यास

यूपी में दीये और तूफान की लड़ाई-5: बेतुकी बात है लेकिन संभव. इसलिए कि यूपी में मुसलमान बंगाल के मुसलमानों जैसी वोट मनोदशा में नहीं हैं. वह बंट रहा है. क्यों? वजह मुस्लिम नौजवान मतदाताओं में ओवैसी और मुस्लिम उम्मीदवारों को ही वोट देने की सोच है. ओवैसी उनका नंबर एक पसंदीदा नेता है. सो, भले अखिलेश के एलायंस उम्मीदवार हारें वह वोट ओवैसी या बसपा के मुस्लिम उम्मीदवार को देगा. ऐसे कितने प्रतिशत युवा मुसलमान होंगे, इसका जवाब चुनाव नतीजों में मिलेगा. लेकिन मुस्लिम राजनीति, संगठनों के जानकार और यूपी घूम रहे मुस्लिम पत्रकारों का बताना है कि अखिलेश यादव के एलायंस को मुसलमान के आंख मूंद कर वोट पड़ने की धारणा गलत है. 

मुस्लिम जमात में मोटा-मोटी राय है कि सपा-रालोद एलायंस ही भाजपा को हरा सकता है. अखिलेश सरकार बननी चाहिए बावजूद इसके अखिलेश को जिताने का सौ फिसदी निश्चय मुसलमान में नहीं है. युवा मुस्लिम में ओवैसी प्रेम बना है. इसके पीछे सोच है कि ऐसी सेकुलर पार्टियों का क्या मतलब जो हमें मंच पर न बैठाएं. हमसे दूरी बनाएं और हमारे उम्मीदवार खड़े नहीं करें. इसलिए भाजपा सांपनाथ तो समाजवादी पार्टी नागनाथ!


यदि यह सोच है तो उत्तर प्रदेश में राजनीति में वे बीज पड़ चुके है जो आजादी से पहले 1937 में कांग्रेस बनाम मुस्लिम लीग के सत्ता झगड़े से बने थे. नौजवान मुसलमान में कट्टरता बढ़ रही है और वह अब लीगी (मुस्लिम लीग) धारा में सोचते हुए है. उसके दिमाग में सेकुलर पार्टियों का मतलब घट रहा है. सभी राजनीतिक दलों को हिंदू पार्टियां मान वह आजादी पूर्व की मुस्लिम लीगी धारा में सोचने लगा है. युवा मुसलमान में यह नैरेटिव फैल रहा है कि फर्क क्या है भाजपा, सपा, कांग्रेस या बसपा में. भाजपा को मुसलमान वोट नहीं चाहिए तो बाकी पार्टियों को फ्री में वोट चाहिए.


जाहिर है मुस्लिम लीडरशीप, मौलानाओं, इमामों, नेताओं में सामूहिक तौर पर ऐसी कोई कोशिश नहीं है कि जैसे भी हो सियासत से रास्ता निकले. यह कोशिश या तो है नहीं और यदि है तो बिखरी हुई कि सब मुसलमान वोट सपा एलायंस के लिए गोलबंद हो कर भाजपा को हराएं!


ऐसा होना अच्छा है या बुरा? सवाल यह भी है कि आने वाले दिनों में जब भाजपा हिंदू वोट पकाने के लिए मुसलमान को निशाना बनाने का भारी अभियान चलाएगी और प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह व मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, भाजपा प्रवक्ता आदि सब मुस्लिम से हिंदुओं को आगाह करेंगे तो युवा मुसलमान प्रतिक्रिया में ओवैसी की तरफ जाएगा या अखिलेश यादव के एलायंस के लिए एकजुट होगा? जवाब में फिलहाल इतना भर कहा जा सकता है कि विधानसभा का यह चुनाव भविष्य की पानीपत लड़ाई के लिए निर्णायक है. तय मानें भाजपा की जीत सिर्फ हिंदू कार्ड पर होनी है. उस नाते मोदी-शाह चाहे जो सोचें बतौर हिंदू चेहरे योगी आदित्यनाथ ही मुख्यमंत्री बनेंगे. सात मार्च तक सारा कैंपेन वैसे ही होगा जैसे अभी संबित पात्रा प्रेस कांफ्रेस करके कैराना में सपा के एक मुस्लिम उम्मीदवार या किसी मुस्लिम नेता की एक मिनट की वीडियो कटिंग के हवाले कर रहे हैं.


चुनाव जातीय समीकरण पर नीचे लड़ा जाएगा और पीएम, सीएम, एचएम सब घर-घर मैसेज बनवाएंगे कि सपा को वोट मुसलमानों को, तमंचावादियों, माफियाओं, गुंडों को वोट होगा तो जाहिर है ऐसे में मुस्लिम मनोदशा गुस्साएगी. मुस्लिम यूथ तब मुरादाबाद से लेकर आजमगढ़ तक ओवैसी की पार्टी या केवल मुस्लिम उम्मीदवार को वोट देने की सोचे तो वह स्वभाविक है. संभव है वे धार्मिक मुस्लिम संगठन भी अपने यूथ को इसी सोच में धकेल रहे हों, जिनका मकसद दस-बीस सालों में राजनीति को वापिस डायरेक्ट एक्शन की और ले जाना है. इनके लिए यह समझाना आसान है कि ओवैसी कौम का सच्चा रहनुमा है. योगी वापिस मुख्यमंत्री बनें और भाजपा सरकार बनाए रहे तो हमें क्या फर्क पड़ता है. हमें तो लड़ने की तैयारी करनी है. अपनी ताकत केवल मुसलमान उम्मीदवार को मिले.  

यह सोच, दिशा घातक और भविष्य के लिए संकट है. तब राजनीति सहज होगी ही नही. इस चुनाव में यदि 20-30 प्रतिशत मुस्लिम वोट भी ऐसे बिखरे और ओवैसी की पार्टी या बसपा, कांग्रेस, पीस पार्टी के मुस्लिम उम्मीदवारों को गए तो वह भाजपा की छप्पर फाड़ जीत बनवाने वाला होगा. मुस्लिम वोट सपा-रालोद का कैप्टिव रहे तो सपा का एक और एक ग्यारह बनेगा अन्यथा एक और एक दो के जातीय समीकरण में वह अटकेगी.

तभी पश्चिम की जाट बहुल सीटें हों या पूर्व की यादव-पिछड़ा बहुल सीटें, सपा-रालोद एलायंस के वोट कटवाने में ओवैसी की पार्टी अहम रोल अदा कर सकती है. बसपा के मुस्लिम उम्मीदवार भी विपक्ष का रायता फैलाएंगे. उसने मुस्लिम उम्मीदवार बहुत खड़े किए हैं. इसके आगे जयंत चौधरी और अखिलेश यादव उन बंदोबस्तों, उस मोबलाइजेशन, वैसी कनवेसिंग में समर्थ नहीं हैं जो मुलायम सिंह यादव किया करते थे. तभी अखिलेश-रामगोपाल-जयंत चौधरी के लिए विकट चुनौती है जो वे मुस्लिम उम्मीदवार कम खड़ा करें लेकिन वोट पूरे पाएं. वे न मुस्लिम संगठनों, इमामों-मौलानाओं, देवबंदी या बरेलवी या शिया धर्मगुरूओं के यहां मत्था टेक सकते हैं और न फतवा-फरमान जारी करवा सकते हैं. उज्जड हिंदू राजनीति ने सेकुलर पार्टियों और नेताओं का ऐसा धर्मसंकट बनवाया है कि इधर खाई उधर कुआं. सेकुलर राजनीति को धर्म की घेरेबंदी में बांध डाला है. करें तो क्या करें?  कैसे बीस प्रतिशत मुस्लिम वोटों का विश्वास बनाए रखें!

जाहिर है सेकुलर पार्टियों की यह मुश्किल उज्जड हिंदू राजनीति की खुशी है, सफलता है. कैसे? इसलिए कि नरेंद्र मोदी, योगी आदित्यनाथ मंदिर जाएं, दंडवत लेटें, पूजा-पाठ करें तो उससे हिंदू वोट पकते हैं और यह काम वे कैमरे के आगे, हिंदुओं को दिखाते हुए करेंगे वहीं यदि ऐसी ही राजनीति राहुल गांधी, प्रियंका, अखिलेश करें तो हल्ला करेंगे कि ये पाखंडी. ये असली हिंदू नहीं. उधर मुसलमान अलग बिदकेगा. दूसरी और कोई सेकुलर नेता मौलाना से मिलें या मुसलमान को गले लगाएं तब उसे भाजपा सीधे हिंदू विरोधी कहेगी तो सेकुलर होने पर भी सवाल.  

सोचें, अखिलेश यदि योगी की तरह राजनीति नहीं कर सकते तो वे ओवैसी की तरह भी नहीं कर सकते हैं. इसलिए धीरे-घीरे ही सही सेकुलर नेता और राजनीति हाशिए में जाते हुए हैं. सभी ओर योगी बनाम ओवैसी की दो टूक धर्म राजनीति विस्तार पा रही है. उज्जड हिंदू राजनीति को उत्तर प्रदेश का 1937 का वह इतिहास भी ध्यान नहीं, जिसमें कांग्रेस ने मुस्लिम लीग का सत्ता में प्रतिनिधित्व नहीं बनने दिया था, जिसके नतीजे में विभाजन के बीज अंकुरित हुए. इसलिए धीरे-धीरे ही सही, योगी बनाम ओवैसी की राजनीति अंततः वापिस 1937 से 1947 का सफर बनवाएगी. मुसलमान की फिर दलील बनेगी कि इस सत्ता में हमारा क्या! हमें तो सत्ता का विभाजन चाहिए. ओवैसी इस रोडमैप पर राजनीति करते हुए हैं तो योगी भी 80 बनाम 20 के विभाजक हुंकारे में अदब से ‘ओवैसी साहब’ की चुनौती स्वीकार कर रहे हैं. दोनों तरफ चेहरे डायरेक्ट एक्शन, पानीपत की लड़ाई की भूमिका बनाते हुए. भले उसका वक्त बीस-तीस साल बाद आए!

सवाल है इस विकट घेरेबंदी में अखिलेश-जयंत चौधरी और सेकुलर पार्टियां चुनाव कैसे लड़ें? कैसे लावारिस-अनाथ मुस्लिम वोटों में यह भरोसा बनाएं कि हम आपकी चिंता रखेंगे. आप लोकतंत्र और राजनीति पर विश्वास रखें. भले अभी हम आपको मंच पर नहीं बैठा पा रहे हैं और न ही हम अधिक मुस्लिम उम्मीदवार खड़े करने की स्थिति में हैं.

अपना मानना है यह गुत्थी भी जमीन की सच्चाई, लोगों के अनुभव की फड़फड़ाहट से सुलझेगी? यदि बंगाल में जमीनी सच्चाई और अस्मिता के संकट में हिंदू-मुस्लिम साझा बना और ओवैसी के लिए मौका नहीं बना तो उत्तर प्रदेश में भी जमीनी सच्चाई का दीया जलना असंभव नहीं!नया इंडिया से साभार 


  • |

Comments

Subscribe

Receive updates and latest news direct from our team. Simply enter your email below :