लखनऊ के ये सत्रह गिरजाघर !

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लखनऊ के ये सत्रह गिरजाघर !

नीलिमा पांडे 

लखनऊ में कोलोनियल पीरियड के तकरीबन सत्रह गिरजाघर हैं.  देखने में बेहद खूबसूरत ये गिरजाघर इतिहास के हर मुरीद को अपनी तरफ खींचते हैं.  इनमें से कई लालबाग और कैंट में स्थित हैं.  बचे हुए हज़रतगंज में मिलते हैं.  इक्का-दुक्का इधर-उधर छिटके हुए हैं.  तारीख़ इन्हें ख़ास बनाती है और बार-बार अपने पास बुलाती है.  

 कैपर रोड लालबाग में है.  नावेल्टी सिनेमा हॉल से लगी बाईं दिशा में रेंगती हुई इस सड़क पर बरसों साइकल दौड़ाई है.  स्कूलिंग के दिनों में लालबाग की इस गली से ख़ूब आवाजाही रही है.  इसी सड़क  पर  आगे चलकर एक खूबसूरत सा चर्च है जो 'चर्च आफ एपिफेनि' कहलाता है.   एपिफेनि यानी नूर-ए-ख़ुदा .  1877 में बना ये चर्च  अपने स्लीक अपीयरेंस की वजह से ख़ासा लुभावना लगता है.    बेलौस ठसक के साथ खड़ी ये इमारत  मुझे ख़ास पसंद है.  जब भी गुजरो ठिठका देती है.  भर नजर देखे बिना आगे बढ़ना मुश्किल होता है.   बीते वक़्त जब इसके पास इतनी आबादी नहीं उगी होगी यकीनन यह खूबसूरत लैंडमार्क सरीखी लगती होगी.  

 फिलहाल तो बाउंड्री से लगे पेवमेंट पर स्ट्रीट वेंडर्स का जमावड़ा है.  मजाल कि किसी एंगल से एक तस्वीर भी निकल जाए.  कोई कोना ढूंढ भी लें तो नज़र उठते ही बिजली विभाग के बेतरतीब तारों में उलझ जाती है.  फोटो फ्रेम बिगाड़ने में बिजली विभाग का  अपूरणीय योगदान रहता है.   दूसरे महिला होना भी हमेशा एक अड़ंगा बन जाता है.  शहर कोई हो लोगों के लिए ये जब्त करना मुश्किल होता है कि बेफिक्री के साथ कोई स्त्री कैमरा लटकाए नामालूम जगहों की तफ्तीश करती यूँ ही  भटक सकती है.   किसी के जब्त का मेयार कुछ ऊँचा हुआ तो पत्रकार समझ लेता.  जेनुइन सवालों के जवाब तो मिलते नहीं उल्टे उबड़-खाबड़ सवालों का पूरा क्वेस्चनायर भरना पड़ता है.   सहजता से बिना कौतुक जगाए भटकने की मोहलत कम ही मिलती है.  इन बाधाओं को जस- तस पार करते हुए एक-दो तस्वीरें हासिल कर  हमने चर्च की परिक्रमा कर इतिहास पर नजर जमाई.  जो मालूमात हासिल हुई  उससे पता चला कि इस चर्च वाली जगह पर  आगामीर की कोठी ज़हूरबख़्श हुआ करती थी.  

जिस किसी ने लखनऊ के इतिहास को थोड़ा भी टटोल रखा आगामीर के नाम से वाकिफ़ है.  अमानत में खयानत का इलजाम उनपर रहा है.  पहले एक किस्सा जो लखनऊ में चर्चा-ए-आम है.  इत्तर से जुड़ा हुआ है. 

लखनऊ के बीच बसा एक पूरा का पूरा मुहल्ला ड्योढ़ी आगामीर कहलाता है.  आगामीर  काबिल थे.  नवाबों के वजीर हुए.  असल नाम सैयद मुहम्मद खां था.  वालिद मीर तकी तुर्कमानी थे. वह गाजीउद्दीन हैदर के बचपन के दोस्त थे.  इसलिए उन्होंने अपनी नवाबी में मिर्जा हाजी की जगह आगामीर को नायब बनाया था.  

 जब नवाब गाजीउद्दीन हैदर ने कंपनी सरकार को कुछ इलाके देकर बादशाहत पाई, तो ये वजीर कहलाए और इनको नवाब मोतमउद्दौला मुख्तार उल मुल्क सैयद मुहम्मद खां बहादुर उर्फ आगामीर का खिताब मिला. रसूख़ वाले हुए तो ऐन शहर के सीने में आगामीर की ड्योढ़ी कायम हुई.  आगामीर की सराय भी बनी.  विंगफील्ड पार्क के पास वाली करबला भी उसी वक्त बनवाई गई.  

खैर! किस्सा ये है कि जब ड्योढ़ी आगामीर बन रही थी, एक इत्र फरोश नवाब के दरवाजे आया.  उसने कहा कि बड़ा नाम सुना था कि लखनऊ के लोग खूबसूरती और खुशबू के कद्रदान होते हैं लेकिन मुझे तो कोई भी ऐसा नहीं मिला जो मेरा इत्र खरीद सके. आगामीर ने आन की शान में सारा इत्र खरीद लिया और राजगीरों को हुक्म दिया कि गारे में यह इत्र मिलाकर दीवारों को पलस्तर किया जाए.  मशहूर है कि काफी सालों तक वो दीवारें इत्र की खुशबू बिखेरती रहीं. आगामीर की ड्योढ़ी और इमामबाड़ा बाद में मलका जहां को विरासत में मिला.  उनके बाद इसमें नवाब वाजिद अली शाह के वजीर अली नकी खां भी कुछ दिन रहे. ड्योढ़ी की तमाम इमारतों में से काफी कुछ तबाह हो चुकी हैं और कुछ गिर रही हैं, उसके साथ के इमामबाड़े में राजकीय जुबली स्थापित है. 

एक वक्त 2018 में इस जगह को ढूंढने में हमने खासी मशक़्क़त की थी.   ढूंढ-ढाढ के जो मालूमात की वह 'लखनऊ शहर' में  भी  इस तरह दर्ज है :"आगा मीर गाजीउद्दीन हैदर (1814-27) के वज़ीर थे.  नवाब साहब के साथ उनका गणित अच्छा था इस वजह से न सिर्फ़ शासन सत्ता में उनका ठीक-ठाक दख़ल था बल्कि उन्होंने अकूत संपत्ति भी पैदा की.  जिस इलाके में उनकी कोठी और बारादरी थी उसका नाम ही दौलतपुरा था.  

दस्तावेजों में दर्ज़ है कि आगा मीर ने एक तालाब और नाले को पटवा कर उस पर अपना दौलतखाना खड़ा किया था.  नामी ने अपनी पुस्तक में इसका जिक्र किया है. जगह की शानोशौकत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि कुछ समय के लिए यहाँ नवाब साहब के साहबजादे नसीरुद्दीन हैदर ने रिहाइश की थी. 

 वर्तमान जुबली कालेज से  सिटी स्टेशन के बीच उनकी बनवाई तमाम इमारतें थीं.  पूरा इलाका आज भी आगा मीर की ड्योढ़ी कहलाता है.  जो इमारत आज जुबली कालेज की तरह इस्तेमाल हो रही है वह वास्तव में आगा मीर की ही मिल्कियत थी.  यह उनका इमामबाड़ा था.  बाद के दिनों में मुंशी नवल किशोर जी ने इसे खरीद कर इसमें एक स्कूल खोला जो नवल किशोर हाई स्कूल के नाम से संचालित हुआ. 

 दो साल में ही नवल किशोर जी ने इसे अंग्रजी सरकार को सुपुर्द कर दिया.  आज यह जुबली कालेज कहलाता है.  यद्यपि इमारत में स्कूल की जरूरतों के हिसाब से काफ़ी रद्दोबदल कर दी गई है फ़िर भी यह इतिहास की महत्वपूर्ण कड़ी तो प्रस्तुत करती ही है.  इसी ड्योढ़ी में वज़ीर बाग और बुलन्द बाग थे.  बाग तो बचे नहीं जगहों के नाम जरूर उनकी याद दिलाते हैं.  

आगा मीर का वक़्त हमेशा एक सा न रहा.  उन्होंने अर्श और फ़र्श दोनों मुक़ाम देखे.  प्रशासन से वित्तीय अनियमितता के लिए उनको बर्खास्त कर दिया गया.  नसीरुद्दीन हैदर (1827-37) के समय में उनको घर में ही नज़रबंद कर दिया गया.  बाद में अंग्रेजों की दख़ल से कानपुर तड़ीपार हुए.  अपनी  पूरी संपत्ति से वह बेदख़ल हुए और नवाब साहब का उस पर कब्ज़ा हुआ.  


बाद में इसमें से कुछ संपति मोहम्मद शाह द्वितीय की बेग़म मलका जहान को मिली.  बुलंद बाग इसमें ख़ास था. अब यह सिटी रेलवे स्टेशन के पास एक रिहायशी इलाक़ा है. ''


खैर! आगामीर साहब की दो मशहूर कोठियां थी.  ज़हूर बख़्श और नूर बख़्स .  1857 के बाद दोनों कोठियां ज़ब्त होकर अंग्रेजों के हवाले हुईं.   जहाँ कोठी नूर बख़्श डिप्टी कलक्टर का आवास बनी वहीं जमीदोंज करा दी गयी.  उसी के एक हिस्से में आज एपिफेनि चर्च खड़ा है. 


_नीलिमा पांडे की वाल से साभार. फोटो -अंबरीश कुमार 

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