अलविदा सरस्वती सदन…

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अलविदा सरस्वती सदन…

शुभनीत कौसिक  

पिछले कुछ बरसों में काशी क्योटो बनता रहा, और उसी दरमियान बनारस की तमाम संस्थाओं, लाइब्रेरियों ने दम तोड़ दिया. गौरवशाली अतीत वाली इन लाइब्रेरियों, संस्थाओं को सहेजने-सँजोने की ओर न तो काशी को क्योटो बनाने वाली सरकार ने ध्यान दिया, न समाज ने इसकी ज़रूरत समझी. इन संस्थाओं में उत्तर भारत की सबसे पुरानी लाइब्रेरियों में से एक कारमाइकल लाइब्रेरी भी शामिल है, जो प्रधानमंत्री मोदी के प्रोजेक्ट ‘विश्वनाथ धाम’ की भेंट चढ़ गई. जिसका कल वे बड़ी धूमधाम से बनारस में उद्घाटन करने जा रहे हैं. 

1872 में स्थापित कारमाइकल लाइब्रेरी न सिर्फ़ उन्नीसवीं सदी में बनारस की बौद्धिक गतिविधियों के केंद्र में रहा था, बल्कि बीसवीं सदी में यह क्रांतिकारियों का मुख्यालय भी बना हुआ था. तीन साल पहले विश्वनाथ धाम परियोजना के नाम पर कारमाइकल लाइब्रेरी का अस्तित्व समाप्त कर दिया गया. तब उसे स्थानांतरित करने की बात कही गई थी. किन्तु अब तीन साल बाद कारमाइकल लाइब्रेरी का दुर्लभ संग्रह, उसकी किताबें कहाँ हैं, इसकी कोई जानकारी नहीं है. 

सरकार और समाज की उपेक्षा का एक ऐसा ही शिकार बनारस में चेतगंज स्थित सरस्वती सदन पुस्तकालय एवं वाचनालय हुआ. वर्ष 1929 में स्थापित इस पुस्तकालय के समृद्ध इतिहास पर एक नज़र भर डालें तो यह साफ़ हो जाता है कि पराधीन भारत में आम लोगों ने, शिक्षकों और नेताओं ने ही नहीं बल्कि उद्योगपतियों तक ने भी इन पुस्तकालयों का महत्त्व समझा था और कितने जतन और स्नेह से इन लाइब्रेरियों को सहेजा था. स्वाधीनता संग्राम की उस विरासत को, उस जज़्बे को - आज़ादी के आंदोलन को महज़ 'भीख' समझने वाली वाट्सएप यूनिवर्सिटी की नई पीढ़ी ने भुला ही दिया.

सरस्वती सदन ऐसे ही सम्मिलित प्रयास का नतीजा थी. इसकी स्थापना जहाँ बनारस के प्रसिद्ध सेंट्रल हिंदू स्कूल के अध्यापक श्याम सुंदर पांडेय ने की थी. श्याम सुंदर पांडेय ने लाइब्रेरी की नींव रखने और किताबें जमा करने के लिए बनारस के आम लोगों से चंदा इकट्ठा किया. उनका यह प्रयास जब रंग लाने लगा, तब और भी लोग उनके सहयोगी बने. एक ऐसे ही सहयोगी थे बनारस से विधायक रहे गिरधारी लाल जिन्होंने चेतगंज में सरस्वती सदन के लिए ज़मीन मुहैया कराई. इंद्रदेव शास्त्री सरस्वती सदन के पहले लाइब्रेरियन बने. 

आगे चलकर बनारस के नामी उद्योगपति राजकुमार शाह ने लाइब्रेरी के भवन का पुनर्निर्माण कराया और उसका विस्तार भी किया. ये वही राजकुमार शाह थे, जिन्होंने वर्ष 1950 में बनारस में सिन्नी फ़ैन्स की शुरुआत की थी, जिसके बनाए पंखे कभी भारत भर में लोकप्रिय रहे. पेशे से इंजीनियर रहे राजकुमार शाह बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के प्रौद्योगिकी संस्थान के पहले बैच के छात्र थे. बीएचयू के संस्थापक मदन मोहन मालवीय का उदाहरण भी राजकुमार शाह के सामने ज़रूर रहा होगा, जो उन्होंने उद्योग के साथ-साथ बनारस के लिए लाइब्रेरी और उसके भवन-निर्माण के बारे में सोचा होगा. 

साफ़ माथे का वह समाज न फ़ीते काटता था, न रैलियों में गला फाड़कर योजनाओं की घोषणा करता था, वह समाज बस मन में एक संकल्प भर लेता था और उसे अपनी तपस्या से साकार करता था. अगर वह संकल्प और सृजन हमारे वश का नहीं, तब भी हम उस धरोहर को बचाने भर को कृतसंकल्प तो हो ही सकते हैं.


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