धर्मयुग मठ की तो रविवार एक्ट़िविज्म और एजेंडे में खिली हुई पत्रिका !

गोवा की आजादी में लोहिया का योगदान पत्रकारों पर हमले के खिलाफ पटना में नागरिक प्रतिवाद सीएम के पीछे सीबीआई ठाकुर का कुआं'पर बवाल रूकने का नाम नहीं ले रहा भाजपा ने बिधूड़ी का कद और बढ़ाया आखिर मोदी है, तो मुमकिन है बिधूड़ी की सदस्य्ता रद्द करने की मांग रमेश बिधूडी तो मोहरा है आरएसएस ने महिला आरक्षण विधेयक का दबाव डाला और रविशंकर , हर्षवर्धन हंस रहे थे संजय गांधी अस्पताल के चार सौ कर्मचारी बेरोजगार महिला आरक्षण को तत्काल लागू करने से कौन रोक रहा है? स्मृति ईरानी और सोनिया गांधी आमने-सामने देवभूमि में समाजवादी शंखनाद भाजपाई तो उत्पात की तैयारी में हैं . दीपंकर भट्टाचार्य घोषी का उद्घोष , न रहे कोई मदहोश! भाजपा हटाओ-देश बचाओ अभियान की गई समीक्षा आचार्य विनोबा भावे को याद किया स्कीम वर्करों का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन संपन्न क्या सोच रहे हैं मोदी ?

धर्मयुग मठ की तो रविवार एक्ट़िविज्म और एजेंडे में खिली हुई पत्रिका !

हरिशंकर व्यास 
पहली बार दिल्ली की सत्ता पर वे हिंदी भाषी, हिंदीआग्रही नेता बैठे, जो हिंदी अखबारों को पढ़ते थे. चरण सिंह, राजनारायण, जार्ज फर्नांडीज, मधु लिमये, वाजपेयी-आडवाणी और मोरारजी देसाई सभी हिंदी हिमायती. हिंदी पत्रकारिता के लिए वह मौका था. इसमें कुछ हिंदी संपादकों और पत्रकारों ने सत्ता का दरवाजा खुला बूझा. पत्रकारिता-राजनीति का घालमेल बना. संपादक चरण सिंह, बहुगुणा, राजनारायण, जगजीवन राम आदि पर कवर फोटो-स्टोरी छापते और अपना सियासी एक्टिविज्म चमकाते.  
कोई पूछे कि भारत की आजादी के 75 साला सफर में भारत को बदलने वाला पहला मोड़ कौन सा था तो अपना जवाब है 1977 का साल. 20 मार्च 1977 की रात. इधर छठी लोकसभा के चुनाव नतीजों में इंदिरा गांधी के हारने की खबर और अगली सुबह राजधानी नई दिल्ली हतप्रभ, बदली हुई. उस सत्ता परिवर्तन ने भारत का बहुत कुछ बदला तो उसमें एक क्षेत्र भारतीय पत्रकारिता और हिंदी पत्रकारिता का भी था. पहली बार दिल्ली की सत्ता पर वे हिंदी भाषी, हिंदीआग्रही नेता बैठे, जो हिंदी अखबारों को पढ़ते थे. चरण सिंह, राजनारायण, जार्ज फर्नांडीज, मधु लिमये, वाजपेयी-आडवाणी और मोरारजी देसाई सभी हिंदी हिमायती. हिंदी पत्रकारिता के लिए वह मौका था. इसी में फिर कुछ हिंदी संपादकों और पत्रकारों ने सत्ता का दरवाजा खुला बूझा. पत्रकारिता-राजनीति का घालमेल बना. संपादक चरण सिंह, बहुगुणा, राजनारायण, जगजीवन राम आदि पर कवर फोटो-स्टोरी छापते और अपना सियासी एक्टिविज्म चमकाते.  

एक्टिविज्म सभी रंग लिए हुए था. वह भी पूरी मुखरता से. विपक्ष में रहते हुए तब इंदिरा गांधी और कांग्रेस को भी हिंदी पत्रकारों का महत्व समझ आया. ‘दिनमान’ के श्रीकांत वर्मा जैसे समाजवादियों का उपयोग हुआ. राजनारायण के जरिए जनता सरकार में तोड़फोड़ करवाने के लिए संवाददाताओं का उपयोग हुआ. ‘ब्लिट्ज’ के करंजिया इंदिरा गांधी की आवाज तो ‘दिनमान’ समाजवादी चेतना का वाहक व मनोहर श्याम जोशी का ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ वाला मठ कभी जनसंघ के वाजपेयी को खिलाते हुए तो कभी इंदिरा गांधी को. कह सकते हैं जनता राज की आबोहवा से पत्रकारिता को सत्ता का चस्का लगने, करप्ट बनाने का बीज फूटा.  नेताओं ने हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में अपने चहेतों की भर्ती करवाई. नेताओं के घरों में संपादकों-पत्रकारों के खूंटे बनने शुरू हुए. लगभग उसी वक्त एसपी सिंह, उदयन शर्मा को एक मौका मिला. ‘आनंद बाजार पत्रिका’ के अविक सरकार ने टाइम्स ग्रुप से एमजे अकबर को लेकर ‘संडे’ पत्रिका लांच की तो अकबर ने ट्रेनी जर्नलिस्ट के वक्त के अपने सखा एसपी सिंह का धर्मयुग से पिंड छुड़ाते हुए ग्रुप से हिंदी पत्रिका निकलवाई. एसपी सिंह को संपादक बनाया. और हिंदी में एक्टिविज्म-कम-दरबारी पत्रकारिता की नई धारा फूटी. ‘धर्मयुग’ की मठगिरी से कुछ पत्रकार मुक्त हुए. एसपी सिंह, उदयन शर्मा ने मौका लपका और वह प्रयोग किया, जिससे पाठकों ने सर्वप्रथम’ धर्मयुग’ और ‘रविवार’ से पत्रकारिता का फर्क जाना! 

‘धर्मयुग’ मठ के अनुशासन में निकलती पत्रिका वहीं रविवार एक्ट़िविज्म और एजेंडे में खिली हुई पत्रिका. पता नहीं धर्मवीर भारती ने ‘रविवार’ की प्रारंभिक सफलता पर क्या सोचा होगा? उन्हें वह एक छिछोरी पत्रिका समझ आई होगी. मोटे तौर पर मेरा मानना है कि 1980 के वक्त में हिंदी पत्रकारिता तीन धाराओं में बहकी थी. मठ, सत्तामुखी और एक्टिविज्म की तीन धाराएं. इन धाराओं के प्रतिनिधि संपादक धर्मवीर भारती, अक्षय कुमार जैन और एसपी सिंह थे. 
‘रविवार’ पत्रिका चढ़ती कला थी क्योंकि जनता राज की राजनारायण, चरण सिंह, मधु लिमये, सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता, दोहरी सदस्यता व संजय गांधी की तिकड़मों से चौतरफा राजनीतिक दिलचस्पी और सनसनी ही सनसनी. शुरू हुई एजेंडा केंद्रित पत्रकारिता. उसी से संपादकों को भी फिर पत्रकारिता से राजनीति का लांचपैड बनता नजर आया.   

‘रविवार’ के एसपी सिंह, उदयन शर्मा से लेकर ‘दिनमान’, ‘माया’, ‘ब्लिट्ज’ जैसी पत्रिकाओं ने तब वह धमाल बनाया, जिसके झागों में खूब मजा था मगर हिंदी पत्रकारिता बिखरती और भटकती हुई. पाठकों की संख्या बनी और सत्ता में हिंदी का महत्व भी बढ़ा. दिल्ली और प्रदेशों के भाषायी संपादकों-पत्रकारों को भी नेताओं के बीच रूतबा बनाने का चस्का हुआ वहीं नेताओं को मीडिया के उपयोग का नया भान. उधर मीडिया मालिकों में उन संपादकों-पत्रकारों की उपयोगिता समझ आई, जिनका नेताओं के साथ उठना-बैठना था. यह सब संभवतया इमरजेंसी से पहले नहीं था. अपना मानना है कि अक्षय कुमार जैन, धर्मवीर भारती, रतनलाल जोशी जैसे पुराने संपादकों की नियुक्ति बिना सियासी पहचान के हुई थी. कोई अपने को कितना ही प्रधानमंत्री या मंत्री विशेष का लाड़ला बताता था पर वह उस नाते मालिक से संपादक नहीं बना था. 

जाहिर है नेताओं में जनसंपर्क के जुगाड़ में संपादकत्व और राजनीति के साझे में करियर बनाने की हिंदी पत्रकार प्रवृत्ति इमरजेंसी के बाद का मामला है. इसी से आगे संपादकों-पत्रकारों में नेता, टिकट लेकर चुनाव लड़ने, राज्यसभा सांसद बनने का शगल पैदा हुआ. मुझे ध्यान नहीं है कि इमरजेंसी से पहले कोई संपादक सासंद बना हो. एक-दूसरे के मुरीद होते हुए भी पंडित नेहरू और उनके ‘नेशनल हेराल्ड’ के संपादक चेलापति राव दोनों को कभी विचार नहीं आया होगा कि चेलापति को राज्यसभा सांसद बनाना चाहिए या मुझे क्यों नहीं नेहरू सांसद मनोनीत करते? 

मैं भटक रहा हूं. जनता राज से शुरू एक्टिविस्ट पत्रकारिता का बड़ा गुल तब खिला जब  इंदिरा गांधी सत्ता में वापिस आईं और ‘दिनमान’ के साहित्यकार-पत्रकार श्रीकांत वर्मा को उन्होंने सांसद बनाया. चंदूलाल चंद्राकर व श्रीकांत वर्मा का यह फर्क था कि चंद्राकर शुरू से पहले कांग्रेसी और फिर पत्रकार थे जबकि साहित्यकार-समाजवादी श्रीकांत वर्मा का कांग्रेस से नाता नहीं था. इसलिए उनका सांसद बनना हिंदी पत्रकारिता के आगे गाजर लटकना था. संपादकों का विजन दरबारी की जगह खुद का दरबार बनाने का हुआ.…रिपोर्टरों के साथ संपादकों का ऐसा ही सलूक और सांसद बनने का ख्याल. संपादकों में ऐसे भभके बने कि पेशेगत ईमनादारी याकि सत्ता निरपेक्ष-पक्षपातरहित समभाव सात्विक पत्रकारिता की जमीन बंजर हुई. ध्यान रहे इस फेनोमिना से पहले जनवादियों-वामपंथियों ने प्रगतिवादी बनाम अनुदारवादियों में संपादकों-लेखकों-पत्रकारों को बांट कर पत्रकारिता को पहले ही पक्षपाती करार दिया हुआ था. मतलब कॉमरेड है तो सच्चा पत्रकार और नहीं है तो भ्रष्ट, जनविरोधी, सांप्रदायिक पत्रकार! 

बहरहाल, संपादकों की नई मनोदशा से मेरा पहली बार 1983 में सामना हुआ. 1983 में ‘जनसत्ता’ शुरू हुआ और मैं ‘गपशप’ क़ॉलम लिखते हुए बेफिक्री, लड़कपन में इंदिरा गांधी, पीएमओ और उसके आला अफसरों पर गपशप लिखने लगा. वह दिल्ली दरबार के लिए अनहोनी बात थी. मैं कॉलम ‘वेदव्यास’ के उपनाम से लिखता था. हर रविवार सुबह दिल्ली दरबार की चुटकियां. प्रयोग हिट हुआ तो मेरी खोजखबर हुई. कौन है यह लड़का? संयोग था जो नवंबर 1983 में ‘जनसत्ता’ निकला और तभी दिल्ली में कॉमनवेल्थ शिखर सम्मेलन हुआ. उसे मैं ही कवर करता हुआ. तब पीआईओ तिवारी (शायद यूसी तिवारी) हुआ करते थे. मैंने चोगम सम्मेलन में पत्रकारों के प्रबंधन में कमियों-गड़बड़ी की गपशप लिखी. वैसे ही तब इंदिरा गांधी के मीडिया सलाहकार शारदा प्रसाद और उनके करीबी श्रीकांत वर्मा को लेकर किस्से सुने और लिख दिए. 

और मुझे संपादक-पत्रकारों के फोन! इनमें सर्वाधिक मीठी, अपनेपन वाली आवाज में कन्हैयालाल नंदन थे, कुछ इस अंदाज में- मैं कन्हैयालाल नंदन बोल रहा हूं.… तुम बहुत अच्छा लिख रहे हो.…. समय हो तो चलो मेरे साथ, तिवारीजी से एक बार मिल लो, वे ब्राह्मण हैं, तिवारीजी अपने हैं. कानपुर के रहने वाले आदि, आदि.…नंदनजी के मनभावक-मीठे, मुलायम, चाशनी भरे शब्दों का क्या क्रम था यह मुझे सही-सही याद नहीं है लेकिन जैसा उन्होंने मेरे पर वात्सल्य उड़ेला मैं अभिभूत..सकुचाया. कुछ भी हो वे बड़े स्थापित संपादक और मैं नया-नया. मैंने बहुत सम्मान के साथ उनका धन्यवाद किया. लेकिन मैं सोच, स्वभाव का मारा था तो फिर पीआईओ यूसी तिवारी पर लिखा. उन दिनों आलोक मेहता भी मेरे ऊपर बड़ी कृपा उड़ेले हुए थे. आखिर में दोनों ने मुझे अपने हाल में छोड़ा. बहुत बाद एक प्रधानमंत्री की विदेश यात्रा (शायद मलेशिया) के दौरान हम साथ थे तब नंदनजी ने गजब वह ठसका, जलवा दिखाया (शायद बिड़ला समूह की व्यवस्थाएं थीं) ताकि मैं उनको मानने लंगू. पर मैंने यह कह कन्नी काटी- नंदनजी आपका जवाब नहीं है!  

ऐसे ही एक पत्रकार ने मेरी श्रीकांत वर्मा से मुलाकात कराई. वे इंदिराजी के कितने खास और इंदिराजी का क्या मतलब है यह मुझे समझाते हुए उन्होने श्रीकांत वर्मा के आगे मेरी उपस्थिति करवा कर उन्हे उपकृत किया. ऐसे ही मैं शारदा प्रसाद से भी मिला. इन छोटी बातों का भावार्थ है कि पत्रकारिता को नेचुरल पंखों के साथ उड़ने देने का परिवेश नहीं. पत्रकारिता लिहाज करने वाली हो, पक्षपातपूर्ण हो, वैचारिक खांचों में बंधी हो, दरबारी हो. मतलब उस चंदन लेप के साथ कि तुम भी खुश, मैं भी खुश सब खुश! 

मुझे चंदन पत्रकारिता के साक्षात्कार से समझ आया कि मेरा स्वभाव चंदन के नसीब वाले संपादन-लेखन का नहीं है. बार-बार उनके मजे पर रंज होता रहा. न मेहनत, न सामर्थ्य, न पढ़ना-लिखना बावजूद इसके चंदन की ठंडाई से मालिक, नेता, उद्योगपति का वह तिलक मंडन जिससे जीवन भर मलाई का आनंद. उसी में नेतागिरी, राज्यसभा सांसदी, पदमश्री पुरस्कार सभी का सुख और गर्व से अपने बूते यह भी बता सकना कि मैं देश का, हिंदी का महान पत्रकार, सबसे बडा खोजी पत्रकार. इस मामले में नंदनजी के अलावा मुझे धनश्याम पंकज भी बहुत मजेदार लगे. प्रधानमंत्री के दौरे में सहयात्री संपादक घनश्याम पंकज का ठसका देख सोचा हिंदी के हमारे इन संपादकों के आगे तो अंग्रेजी के श्रीश मुलगांवकर, बीजी वर्गीज, अरूण शौरी जैसे संपादक सचमुच फटीचर है. ये कैसे ठसके और जलवे में रहते है जबकि वे पढ़ते-लिखते कलम घसीटते हुए. 

बहरहाल जनता राज से खिली हिंदी पत्रकारिता में और उठाव राजीव गांधी, वीपीसिंह, चंद्रशेखर के वक्त आया. तब वह जहां बिखरी और हिंदू मिजाज की सचमुच प्रतिनिधी होना शुरू हुई. मतलब मंडलवादी-गैरमंडलवादी, जातिवादी, ठाकुरवादी- ब्राह्यणवादी खांचों में बंटने लगी. उदयन शर्मा के लिए रविवार पहले चरणसिंह-लोकदल का एक्सटेंशन था तो वीपीसिंह के उदय के साथ एसपीसिंह, संतोष भारतीय का शुरू हुआ चेतक मंच पत्रकारिता दौर. आलम यह था कि ठाकुर पत्रकारों का जब वीपीसिंह के खूटे पर एकाधिकार तो उदयन शर्मा का ब्राह्यणत्व ऐसा जागा कि घोर वीपीसिंह विरोधी अंबानी का अखबार बनाया और राजीव शुक्ला, अनुराग को ले कर पत्रकारिता-राजनीति का जवाबी ब्रहास्त्र.    

कुल मिलाकर 1977 की जनक्रांति से हिंदी पत्रकारिता खूब खिली. नई प्रवृत्तियों के नए गुल खिले. हिंदी के साथ भारतीय भाषाओं की पत्र-पत्रकारिता का भी फैलाव था. सबका रूतबा बना. जनता पढ़ने लगी और कुकुरमुत्ते की तरह संपादक-पत्रकार पैदा हुए. तभी भाषाई मीडिया घरानों, कॉरपोरेट हाऊस बनना शुरू हुआ.  मतलब हर स्तर पर भाषाई पत्रकारिता का विस्तार. पर वह सच्चा-सात्विक विस्तार था या क्षुद्रताओं, धंधाई, व मार्केटिंग का विस्तार… और क्या उसी की जमीन में मौजूदा मीडिया खडा हुआ नहीं? (जारी) नया इंडिया  
 

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