छोटी-छोटी बातों से ही बड़ा बना था ' जनसत्ता'

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छोटी-छोटी बातों से ही बड़ा बना था ' जनसत्ता'

हरिशंकर व्यास 
ये छोटी-छोटी बातें हैं.  मगर जान लें इन छोटी-छोटी बातों से ही ‘जनसत्ता’ बड़ा बना था.  तब ‘जनसत्ता’ का हर रिपोर्टर, पत्रकार, स्ट्रिंगर अपने परिवेश, शहर में अलग पहचान लिए हुए था तो इन छोटी बातों के बड़े मैसेज की वजह से.  इसी से प्रभाषजी की जिंदगी की पत्रकारिता की छोटी ही (पंद्रह साला) पुण्यता बनी और ‘जनसत्ता’ 12-13 साल अनोखा अखबार रहा.  हां, यह अपना घमंड के साथ और जनसत्ता में की मेहनत के बूते साधिकार मानना है.  

‘जनसत्ता’ में मेरी नौकरी की शुरुआत सिर मुड़ाते ही ओले पड़ने वाली थी.  अखबार लांच होने से पहले ही नौकरी खतरे में.  दरअसल प्रभाषजी ने मुझे सबसे पहले नौकरी के लिए आए हजारों आवदेनों को छांटने, परीक्षा पेपर बनाने का जिम्मा दिया.  सतीश झा अंग्रेजीदां थे.  बनवारीजी गांधीवादी-समाजवादी मिजाज के विचारमना और प्रभाषजी खुद पूर्व के संपादन अनुभव में मैनपॉवर के मामले में ठोकरें खाए हुए.  (‘जनसत्ता’ से ठीक पहले दोस्त शरद जोशी की एक्सप्रेस से निकलवाई पत्रिका और इमरजेंसी से पहले रामनाथ गोयनका के जेपी मिशन में निकले ‘प्रजानीति’ अखबार के हिट न होने के प्रभाषजी भुक्तभोगी थे.  उससे पहले भी प्रभाषजी ने वैद्यनाथ आयुर्वेद वाले विश्वनाथजी की पूंजी से भोपाल में ‘मध्यदेश’ अखबार निकाला था.  उसके बारे में मैंने झांसी से सांसद बने विश्वनाथजी से जब पूछा था कि आप लोग क्यों फेल हुए थे? तो उनका लब्बोलुआब था, प्रभाषजी बहुत मेहनती थे, खूब पापड़ बेले लेकिन अखबार इसलिए नहीं चला क्योंकि अच्छे लोग नहीं जुट सके. ) ‘प्रजानीति’ के अनुभव में भी मैनपॉवर को लेकर फीडबैक थी कि अच्छे भले, गांधीवादी-समाजवादी बहुल टीम में सब यों ठीक था लेकिन मनमौजी व सर्वोदयी लुंज पुंजपना था तो प्रॉडक्ट बन ही नहीं पाया.  

जो हो, मोटी बात जो प्रभाषजी ने सेलेक्शन का काम मुझ पर छोड़ा.  मैं आवेदन छांटता, जिन आवेदनों पर आंखे टिकती, नयापन झलकता, लिख सकना बूझता उनकी लिस्ट बना कर परीक्षा के लिए न्योतता.  मैंने प्राथमिकता दिल्ली प्रेस की पत्रिकाओं में घिस-घिस कर तैयार हो रहे पत्रकारों या उन जैसे मेहनतियों को दी.  दिल्ली प्रेस के श्रीश मिश्र, ज्योतिर्मय को अपनी तह पहल करके परीक्षा के लिए बुलाया.  ग्वालियर से मेरी फीचर एजेंसी में लेख भेजने वाले आलोक तोमर, भीलवाड़ा से रियाजुद्दीन शेख को आवेदन करने के लिए कहा.  उन्हें परीक्षा में बैठवाया और प्रभाषजी को राजी किया कि ये क्यों ठीक रहेंगे.  

एक बात और…मेरी राजेंद्र माथुर से होड़ हुई.  राजेंद्र माथुर भी ‘नवभारत टाइम्स’ में भर्ती के लिए अच्छे पत्रकारों को तलाश रहे थे.  मैं पटना के सुरेंद्र किशोर को ‘नई दुनिया’ में लिखते रहने के कारण जानता था.  मैंने ‘जनसत्ता’ के लिए उससे संपर्क किया तो मालूम पड़ा राजेंद्र माथुर उसे पटना संवाददाता बनाना चाह रहे है.  मैंने उसे ‘जनसत्ता’ का मतलब समझाया, पटाया और ‘जनसत्ता’ ज्वाइन कराया.  ध्यान रहे सुरेंद्र किशोर घोर समाजवादी, जॉर्ज फर्नांडीज के बड़ौदा कांड के साथी थे.  लेकिन ‘नई दुनिया’ में सुरेंद्र किशोर की पटना रिपोर्ट देख मैं उससे प्रभावित था तो मैंने ‘जनसत्ता’ में लेने की ठानी.  ऐसे ही रामबहादुर राय, श्याम आचार्य, अच्युतानंद मिश्र का मैने ‘जनसत्ता’ में मौका बनवाया और वे ठीक-ठाक चले तो राजेद्र माथुर ने स्वंय और दीनानाथ मिश्र के मार्फत इन्हें एक-एक कर ‘नवभारत टाइम्स’ की और खींचा.  मैं अपना दांव चलता वे अपने दांव चलते.  
बहरहाल मैं आगे चला गया हूं.  अपने संकट पर लौटूं.  जब ‘जनसत्ता’ में भर्ती का प्रोसेस शुरू हुआ तो दिल्ली के पत्रकारों में स्वाभाविक चर्चा थी कि कोई हरिशंकर व्यास है, जिसके सुपुर्द आवेदन है.  एक दिन रामनाथ गोयनका ने प्रभाषजी को बुलाया.  उन्हें एक पत्र थमा कहा- यह देखो, क्या है! 

प्रभाषजी ने पढ़ा और हैरान! उन्होंने मुझे बुलाया और मुझे पत्र थमाया.  मैंने पत्र पढ़ा तो मैं अवाक! वह पत्र रामनाथ गोयनका को भड़काते हुए, उन्हें चेताते हुए था कि- ‘जनसत्ता’ में हरिशंकर व्यास को लिया गया है और वह दत्ता सामंत का खास आदमी है.  वह ट्रेड यूनियनिस्ट है. … दिल्ली में भी एक्सप्रेस में हड़ताल करवाने के लिए दत्ता सामंत ने उसे प्लांट करवाया है आदि, आदि.  ध्यान रहे तब दत्ता सामंत और उसकी यूनियनों ने मुंबई में उद्योगपतियों की नाक में दम कर रखा था.  रामनाथ गोयनका भी उससे बुरी तरह घायल और खुन्नस में थे.  मुंबई के इंडियन एक्सप्रेस में लंबी हड़ताल के भुक्तभोगी! 

सोचें, मेरा कोई ऐसा दुश्मन, जिसने सीधे गोयनकाजी के दिमाग को झिंझोड़ मेरी छुट्टी चाही.  पत्र लिखने वाले ने अपना नाम नहीं लिखा.  पर शायद रामनाथ गोयनका और प्रभाषजी ऐसे अनुभवों से गुजरे हुए थे.  उन्होंने सपाट अंदाज में मुझे पत्र दे कर कहा तुम्हारे ईर्द-गिर्द, परिचितों में ही कोई है.  मालूम करो! एक-दो दिन परेशान रहने के बाद सोचा क्यों न सभी आई एप्लीकेशनों को चेक कर पत्र की लिखावट का मिलान किया जाए.  संभव है कुछ पता पड़े.  सारी फाइलों के एक-एक आवेदन को चेक किया.  लिखावट मिलाई. … और मिल गई एक एप्लीकेशन! आवेदक का नाम था महावीर दत्त गिरि! मैंने सिर पीटा, सोचता रहा बहुत देर.  फिर प्रभाषजी को दोनों पत्र दिखाए और शिकायती से वाकफियत बताते हुए उससे आईएनएस में मिलने, उसके द्वारा संघ का अपने को पूर्व प्रचारक बताने व छिटपुट इधर-उधर लिखने की उन्हें जानकारी दी.  प्रभाषजी ने मुझे दुनियादारी की कुछ बातें समझाईं और बात आई-गई हुई.  लेकिन मैं तो उबला हुआ था.  मैंने रजत को फोन किया.  उसे अपने यहां गिरि को बुलाने के लिए कहा.  फिर रजत के दफ्तर में उसे बैठा कर मैंने उसके आवेदन और रामनाथ गोयनका को लिखे उसके पत्र को दिखाया और गुस्से की तरंगों को दबाते हुए पूछा- लिखने वाले आप ही है या नहीं?…यह क्या टुच्चापन! आज भी याद है महावीर गिरि का चेहरा…उससे कोई सफाई नहीं बन पड़ी.   

उस अनुभव में बहुत बिलबिलाया.  लोग इन दिनों ट्रॉलिंग, केकड़ों वाली टांग खिंचाई का जो रोना रोते हैं उसे मैंने 1983 में अलग-अलग तरह से समझा था और तभी ठानी थी कि सुनना ही नहीं कि कोई क्या कह रहा है! हिंदी पत्रकारिता कुल मिलाकर छोटे, जलभुने और कृतघ्न लोगों की है सो, मुगालात न पालो.  अपने को काम और लिखने से साबित करना है कि मैं अपने से हूं और अपने बूते, अपने भाग्य, पुरुर्षाथ से हूं न कि किसी की मेहरबानी, कृपा से.  हिसाब से संघ के एक स्वयंसेवक के हाथों हुए उस अनुभव से आरएसएस और उनके चेहरों के प्रति मेरी गांठ बननी चाहिए थी.  लेकिन मेरा लड़कपन बेफिक्री वाला था तो जनसंघ, एबीवीपी बैकग्राउंड के एक्टिविस्टों या लड़के-लड़कियों को लेकर गांठ नहीं बनने दी.  यदि कोई लायक है तो है.  रामबहादुर राय, जगदीश उपासने, रजनी आदि सबकी बैकग्राउंड जानते-बूझते हुए भी मैंने सबका मौका बनवाया.  यहीं नहीं अखबार लांच होने के बाद और अधिक दबंगी दिखाई.  ‘हिंदुस्तान समाचार’ में लाचारगी में जूझते एक श्याम आर्चाय को सीधे समाचार संपादक नियुक्त कराया तो मेरे कारण ‘जनसत्ता’ में आए रियाजुद्दीन को उसके पटरी से उतरते ही हटाया और एक स्वंयसेवक स्ट्रिंगर आत्मदीप को उसकी जगह मौका.  वहीं जयप्रकाश शाही को हटा शहर स्ट्रिंगर हेमंत शर्मा को राजधानी का मौका.  सब सौ टका मेरी सोच के फैसले थे.  कह सकता हूं लगभग सभी फैसले वक्त की कसौटी में खरे उतरे.  बाद में श्याम आचार्य को ‘जनसत्ता’ से तोड़ राजेंद्र माथुर ने जयपुर में अपना स्थानीय संपादक बनाया तो उनकी जगह मैंने लखनऊ से अच्युतानंद मिश्र को ला बैठाया.  

ये तमाम फैसले मेरी इस अपरिभाषित कसौटी में थे कि संपादकीय टीम का परिवेश सकारात्मकता, अच्छापन व अपनत्व लिए हुए हो.  दरबार, नौ कन्नौजियों वाली क्षुद्रताओं, ईर्ष्याओं, दारूबाजों का अड्डा और जनवादियों की चखचख का ठिकाना नहीं होना चाहिए.  स्टाफ के पत्रकार एक-दूसरे को देखते हुए तौले नहीं कि फलां कॉमरेड है या संघी! मुझे ज्योंहि कोई पत्रकार शराबखोरी की दुर्गति में बहकता या गटर में लुढ़का या नेतागिरी में फंसता समझ आया मैंने उसे हटवाया.  जयपुर में रियाज कांग्रेस राजनीति का हिस्सा बन अति करता लगा तो मेरठ तबादला किया और उसने जब उदयन शर्मा की संगत पकड़ी तो उसे ‘रविवार’ में जाने दिया.  मेरे लिए निजी तौर पर पहले रियाज का मेरठ और आलोक तोमर का मुंबई तबादला भारी फैसला था.  आलोक मुझे ग्वालियर से ‘संवाद परिक्रमा’ के लिए फीचर भेजा करता था.  एक दिन उसने फोन कर बताया कि वह दिल्ली आया है और ‘वार्ता’ में अपने शहर का संवाददाता बनने की जुगाड़ में है तो मैंने उसे तुरंत दफ्तर बुलाया.  आवेदन लिखवा उसे उसी वक्त हाथों हाथों पेपर दे कर परीक्षा देने को कहा.  प्रभाषजी को कॉपी दिखाई और उन्हें आश्वस्त करके रिपोर्टर नियुक्त करवाया.  

तथ्य है कि हम चार आला लिक्खाड़ों के बाद ‘जनसत्ता’ का पांचवा पठनीय व पहचान बनवाने वाला पत्रकार आलोक तोमर था.  वह लोकल रिपोर्टिंग, विशेष कर 1984 के दिल्ली दंगों की उसकी रिपोर्टिंग उसकी और अखबार दोनों की पहचान बनवाने वाली थी.  मगर फिर प्रभाषजी और मेरे लाड़ में वह जनवादियों की तरह हो गया… और उसे दिल्ली की संगत से दूर मुंबई भेजने का फैसला लेना पड़ा.  

मैं जनवादियों की निगाहों में शुरू से पराया रहा हूं.  विचारों में क्योंकि शुरू से स्वतंत्रमिजाजी, दक्षिणपंथी था और भीलवाड़ा के सहज हिंदू ब्राह्मण परिवार के इन छोटे-छोटे संस्कारों में ढला हुआ था कि शराब पीना बुरा है.  प्रताप टॉकिज के पास या फलां-फलां होटल में नॉन-वेज खाना मिलता है तो उधर देखना-झांकना भी नहीं जैसे मनोभाव बचपन में पके थे.  बाद में जेएनयू पंहुचा और वहा जनवादी कॉमरेडों में लड़के-लड़कियों को सिगरेट, शराब, नशा करते देखा तो मन में कोफ्त बननी ही थी.  विदेशी मामलों में पढ़ते-लिखते भी साम्यवाद का विरोध पका.  उन दिनों पत्रकारिता में 99 प्रतिशत जनवादी-वामपंथी-समाजवादी या वे एलिट पत्रकार-संपादक हुआ करते थे जो कॉमरेडवाद चलाते थे तो प्रेस क्लब या घर पर भी संवाद और लेखन बिना शराब के करना संभव नहीं मानते थे.  

याद है टाइम्स में ट्रेनी पत्रकार के वक्त छुट्टी ले कर एक दफा राजेंद्र माथुर से मिलने इंदौर गया.  ‘नई दुनिया’ दफ्तर (उस परिवेश पर भी लिखना बनता है) पहुंचा और राहुल बारपुते, राजेंद्र माथुर से मेल-मुलाकात हुई.  रज्जू बाबू के तब सहयोगी महेश जोशी थे.  वे भी मुझे बहुत मानते थे तो उन्होंने रज्जू बाबू से अनुमति ले कर कहा ये आज शाम मेरे घर भोजन को आएंगे.  मैं महेश जोशी के घर पहुंचा तो जेएनयू, मुंबई से आए पत्रकार के नाते उन्होंने मुझे बूझ खाने से पहले ड्रिंक का बंदोबस्त बना रखा था.  मैंने उन्हें बताया कि मैं पीता नहीं हूं तो उन्हें बहुत अटपटा लगा…और अगले दिन महेश जोशी ने यह बात राजेंद्र माथुर को भी बताई.  अगले दिन मैं वापिस ‘नई दुनिया’ दफ्तर गया तो वे भी मुस्कराते हुए कुछ कह ही बैठे. … बहरहाल मेरा तब भी मानना था और आज भी है कि हिंदी के पत्रकारों, भारत की पत्रकारिता शराब-कबाब के भुक्खड़पने में बहुत बदनाम व बरबाद हुई गै.  कई अच्छी प्रतिभाओं की अकाल मृत्यु हुई.  और ‘नई दुनिया’ के वे महेश जोशी भी शराब में ही अपनी प्रतिभा जाया कर बैठे.  

तभी मैं ‘गपशप’ कॉलम में रविवार पत्रिका के स्टॉफ में याकि शाम की दारू पर पत्रकारी संवाद वाली महफिल व दरबारी पत्रकारिता के खिलाफ आइटम लिखने में हर्ज नहीं मानता था.  एक वक्त तो सुरेंद्र प्रताप सिंह, उदयन शर्मा की मंडली मेरे से ऐसी चिढ़ी कि नशे में बहकते हुए एक दिन केसी त्यागी (जनता दल यू के मौजूदा महासचिव) के आगे व्यथा निकली कि केसी इस पंडित की ठुकाई कराओ! पर मैं परवाह ही नहीं करता था.  मुझे बहुत वितृष्णा होती थी जब सुनता था कि फलां प्रेस कांफ्रेंस में या संपादक व उसके पत्रकार शाम को झूमते हुए गाली-गलौज पर उतरे, जमावड़े में लुढ़के या उलटियां कीं. … अब सोचता हूं तो ‘गपशप’ में वैसे आइटम लिखना, वैसे पंगे लेना फिजूल था.  लेकिन स्वभाव का मारा था.  मेरा लिखना हमेशा कलम और दिमाग की कदमताल में हुआ.  दिमाग ठहर-ठहर कर सोचता हुआ नहीं रहा कि इससे कहीं पंगा तो नहीं होगा! अपना अहित तो नहीं हो जाएगा.  

तब प्रभाषजी बफर थे.  मैं लिख कर उन्हें देता था.  वे गपशप चेक करते थे और जब वे मेरा लिखा ठीक समझ रहे हैं, गपशप छप रही है तो अपने को क्या! इस प्रवृत्ति में कभी-कभार झटके भी खाए.  खासकर तब जब अकबर अहमद डंपी या अरूण नेहरू जैसे दुस्साहसी गपशप में आइटम पढ़ सीधे रामनाथ गोयनका को फोन कर देते थे.  तब आरएनजी का भड़भड़ाते (दो-तीन दफा सीधे मेरे पास भी) सीधा फोन आता था और वे अपनी बात कह कर धड़ाम से फोन रख देते.  लेकिन कभी यह फोन नहीं था कि फलां ऐसा कह रहा है उससे मिलो.   

बहरहाल विषयांतर है.  ‘जनसत्ता’ में लोगों को चुनने, प्रारंभिक परिवेश को गढ़ने की मेरी कोशिश, फैसले अपनत्व, सात्विकता में थे.  मेरा काम जिलों में बतौर स्ट्रिंगर लोगों को छांटना, रखना भी था.  तब भी मैंने छांट-छांट कर ऐसे चेहरे चुने जो जोश लिए हुए थे लेकिन वैसा कोई संस्कार नहीं, जिनसे उन दिनों पत्रकारिता बदनाम थी.  साफ-सुथरे-अच्छी कॉपी व जुनूनी हैं तो क्रांतिकारी ने भी मेरी स्ट्रिंगर टीम में जगह पाई.  मेरे फ्लैशबैक में चेहरा है उसका नाम याद नहीं लेकिन मैं व महेश पांडे उसके जगदलपुर घर गए थे, जिसने बतौर स्ट्रिंगर ‘जनसत्ता’ के लिए बस्तर को बहुत कवर किया.  बहुत बाद में सुनने को मिला उसका जुनून नक्सली था और गिरफ्तार हुआ है.  स्ट्रिंगरों में से ही जितने ‘जनसत्ता’ में बाद में संवाददाता बने वैसे शायद ही किसी अखबार में हों.  सबमें अपनी कसौटी थी लिखने और खबर पकड़ने में कैसा है.  

उन दिनों (बाद में तो खैर सब खत्म ही हुआ) स्ट्रिगरों-रिपोर्टरों से कई संपादकों के दरबार बनते थे.  शाम को पीने-पिलाने की जनवादी महफिलें हुआ करती थीं.  लेकिन मैं स्ट्रिंगरों की राज्यवार बैठकों में उन्हें मुझसे बेबाक संवाद के लिए कहता था.  शाम से पहले सबको अपने जिलों में लौटा देता था.  प्रभाषजी और मैं या हम कहीं जाते थे तो स्ट्रिंगर-रिपोर्टर को सर्किट हाउस या सरकारी घोड़ा-गाड़ी का प्रबंध नहीं करना होता था.  हम खुद ही अपनी होटल बुकिंग, अपना सामान उठाए स्ट्रिंगर को साथ ले कर रिपोर्टिंग के लिए निकला करते थे.  यहीं प्रभाषजी का मिजाज था.  पूरी टीम का था.  मुझे बहुत बुरा लगता था जब सुनता कि फलां अखबार में स्ट्रिंगर डेस्क के इंचार्ज या संपादक को खुश करने के लिए ऐसा करते है.  ‘जनसत्ता’ में ऐसा कुछ नहीं होने दिया.  

ये छोटी-छोटी बातें हैं.  मगर जान लें इन छोटी-छोटी बातों से ही ‘जनसत्ता’ बड़ा बना था.  तब ‘जनसत्ता’ का हर रिपोर्टर, पत्रकार, स्ट्रिंगर अपने परिवेश, शहर में अलग पहचान लिए हुए था तो इन छोटी बातों के बड़े मैसेज की वजह से.  इसी से प्रभाषजी की जिंदगी की पत्रकारिता की छोटी ही (पंद्रह साला) पुण्यता बनी और ‘जनसत्ता’ 12-13 साल अनोखा अखबार रहा.  हां, यह अपना घमंड के साथ और जनसत्ता में की मेहनत के बूते साधिकार मानना है.  
नया इंडिया में  हरिशंकर व्यास कॉलम  पण्डित का ज़िंदगीनामा से

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