जहां जाइए जनसत्ता के यश के चैन से मज़े लूटिये

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जहां जाइए जनसत्ता के यश के चैन से मज़े लूटिये

मनोहर नायक 
रात दो बजे मोबाइल की घंटी बजी तो एक बार तो बंद कर दी. पर वह फिर बजी. दूसरी तरफ रवीन्द्र त्रिपाठी थे. एक दुखद खबर, इससे शुरू कर खबर दी की प्रभाषजी का निधन हो गया. अरे! कहकर मोबाइल काट दिया. मेरा अरे सुनकर रंजना जग गईं . पूछा तो बताया. फिर नींद कहां थी! आकर बाहर हाल में बैठ गए और मैंने त्रिपाठीजी को फिर फोन लगाया और पूछा, क्या क्रिकेट के भावावेश ने उनका समापन कर दिया. उत्तर मिला, हां. यादों में भाई साहब छाते चले गए. उनके बारे में अंतिम खबर क्रिकेट से जुड़ी थी तो याद आई छब्बीस नवंबर 1976 में उनसे पहली मुलाक़ात  , पटना में जेपी के घर में. कोलकाता से जबलपुर लौटते हुए पटना पड़ा तो मैं उतर पड़ा और कदमकुआं के उस प्रसिद्ध घर में पहुंच गया. नौ-दस का समय होगा. भीड़ थी. प्रभाषजी ने नाम पूछा और फिर जेपी से परिचय कराया. वे मेरे परिवार से परिचित थे.  उसके बाद वे कुछ देर को गायब हो गए. थोड़ी देर बाद बचे जेपी और मैं. उनसे क़ाफी बातें हुईं ,खाना खाया. इस बीच मेरी नज़र उस हाल के बाएं सिरे के कमरे में गई थी और मैंने देखा कि प्रभाष जी ट्रांजिस्टर सामने रखे कामेंट्री सुन रहे थे. वे उसी में रमे रहे. उनसे पहली मुलाक़ात और उनके बारे में अंतिम ख़बर विचित्र रूप से  क्रिकेट से जुड़ी थी जिसके वे दीवानावार आशिक थे. सचिन उनके लिए बड़ी हद तक आलोचना से परे थे और खेल के मामले में वे अतिशय देशप्रेमी थे. इन दोनों की भूमिका उनके उस भावावेश में थी जो दरअसल उनकी शायद सबसे बड़ी पूंजी भी थी. 

कहीं पढ़ा था, शायद बच्चनजी की ‘मेरे विदेश प्रवास की डायरी' में जहां वे गांधी की मृत्यु के संबंध में कहते हैं कि कई बार मृत्यु बताती है कि जीवन कैसा जिया. जिस भावावेश ने  प्रभाषजी  के प्राण हर लिए वही उन्हें प्राणवान और जीवंत रखे हुए था. वे एक विकल भारतीय आत्मा थे. एक जिद्दी धुन उनके अंदर हमेशा बजती रहती थी. बीमारी हो या और भी कोई विकट समस्या उसका जुनून उन्हें बेचैन और सक्रिय रखता था. प्रसंगवश ‘प्रभाष जोशी-60 ' नामक जो पुस्तक उनकी षष्ठपूर्ति पर आई उसमें ‘ जी यानि उनकी मां लीलाबाई जोशी का  मालवी में लेख था. शुरू में ही वे कहती हैं, ‘जसो छुटपन में थी असो को असो है अब भी. जरा सी भी फरक नी आयो. बस! जिना काम की धुन लगी, उसके पूरो करके छोड़ तो, भोत जिद्दी थे. म्हारे लगे है कि हना जिद्दीपन कई कारण आज इत्तो बड़ो आदमी बन्यो है. ' भावना और उससे विभोर होकर ही वे जिये. अखबार का काम हो, लिखना, बोलना, सुनना, देखना  उनका सब बहुत उत्कंठित होता था. जनसत्ता जब थोड़ा शिथिल हुआ तो एक मीटिंग ली और बोले, भाई अब वो मज़ा नहीं आ रहा. दफ़्तर आना-जाना जिस हुमकते हुए होता था अब ऐसा नहीं हो रहा. गरज यह कि वे सब में उसी उछाल की वही लय चाहते थे. 

तब 'जनसत्ता' काम करने की अद्भुत जगह हुआ करती थी. गजब का दोस्ताना और खिलंदड़ापन. अनंत बहसें. और डेडलाइन आते-आते  चुस्त  मुस्तैदी. डेडलाइन गड़बड़ाने वाले व्यक्ति वैसे प्रभाषजी ही हुआ करते थे, जब-जब पहले पन्ने पर उनका लेख जाने वाला होता. ... लेकिन जो खुलापन और अनौपचारिक माहौल था वह उन्हीं की देन थी. आप डेढ़-दो महीने छुट्टी मनाकर आइए. जहां जाइए जनसत्ता के यश के चैन से मज़े लूटिये और आकर मेज़ की गर्द झाड़कर काम में लग जाइए. कोई लॉबिंग, उठा-पटक, जोड़-तोड़ नहीं. शुरू में उन्होंने कई महीने सबके साथ बैठकर खूब मेहनत की कि कैसा अखबार निकालना है, फिर जब निकला तो कहीं कोई हस्तक्षेप नहीं. मैगज़ीन की मंगलेशजी जाने, न्यूजरूम की न्यूज एडीटर और चीफ़सब. लेकिन अपने लिखने-पढ़ने-करने से उनकी उपस्थिति हमेशा बनी रहती थी. शाम या कभी देर रात डेस्क पर एक राउंड. सबसे चुहल. हंसी-मजाक. वहां भी उनका मुख्य डेस्टीनेशन खेल डेस्क होती जहां कुछ ज्यादा रुकते. काली स्याही से लिखी उनकी कापी बेहद साफ़-सुथरी होती, बिना काटकूट की, जिसके अंत में हमेशा शीर्षक रहता था. वे एक बैठक और एक उत्तेजना में लिखते थे. वे आगे होकर नेतृत्व करने वाले संपादक थे. टोंकटाकी वाले नहीं. ख़ुद करके सिखाने वाले. बजट के दिन अचानक आएंगे और कहेंगे, क्यों पंडित ‘गरीबों को झुनझुना, अमीरों को पालना' हैडिंग कैसी रहेगी!  

उनके सिखाने का तरीक़ा यही था. वैसे जनसत्ता एक ऐसा अखबार भी रहा है जिसमें जितनी तरह की गलतियां हो सकतीं थीं, वे होती रहती थीं. कुछेक बार ही उनका धीरज टूटा, लेकिन काम करते हुए खुद सीखो वाली बात क़ायम रखी. एक बार लोग कम थे या कुछ काम ज़्यादा था तो मैंने कहा कि भाई साहब कैसे होगा! उन्होंने कहा, नायक साब, क्राइसिस में ही मेटल का पता चलता है. शायद जनसत्ता के लोगों के मन में ये सब बातें सदा गूंजती रहती थीं  शायद इसलिए हमेशा संकटों में जनसत्ता ज़्यादा निखरकर आता. एक बार मैं एडिट पेज देख रहा था. प्रभाषजी का मुख्य लेख था. उसमें दसेक लाइन ज़्यादा थीं. उनका अता-पता नहीं. मोबाइल का ज़माना आने में अभी काफ़ी वक़्त. घर में भी नहीं. अंतत: मैंने दस लाइनें काट दी. दूसरे दिन दफ़्तर में घुसते ही टकरा गए. दूर से ही हाथ के इशारे से कहा-काट दीं. मैंने कहा और क्या करता. बोले ठीक जगह से काटीं. यही  चलन था, बेवजह का रौब नहीं...दफ़्तर को उन्होंने अत्यंत लोकतांत्रिक रखा. इसका कुछ ग़लत असर भी पड़ा. सब बड़े वहां भाई साहब थे इसलिए एक अजब भाईसाहबवाद आ गया था. ग़लती हुई तो, अरे भाई साहब! उन्होंने खूब स्वायत्तता दी जो कहीं-कहीं स्वेच्छाचारिता में भी बदल गई. 

जनसत्ता के जरिए उन्होंने हिंदी पत्रकारिता की रूढ़ि तोड़ी. उसे औपचारिक और सरकारी विज्ञप्ति की भाषा के खांचे से निकाला और कलेवर बदला, उसमें गहरे सरोकार जोड़े उस सबका बखान बहुत और सही होता है, लेकिन जिन लोगों को प्रजानीति की याद है वे जानते होंगे कि वहां भी अलग पत्रकारिता थी और मुहावरा सबसे अलग था. खबर-दार, बेखबर जसे कॉलम और सधी रिपोर्टें. उम्दा टीम. प्रभाषजी ही उसके कर्ताधर्ता  थे, वैसे सम्पादक प्रफुल्लचंद्र ओझा ' मुक्त' थे . जनसत्ता में भी  उन्होंने बिलकुल यही किया. प्रजानीति जनसत्ता का प्रस्थान बिंदु था. इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप अब भाजपा और तब जनसंघ के प्रभाव में काफ़ी रहा है. जेपी के आंदोलन में जनसंघ का वर्चस्व था. तब प्रजानीति में खुद प्रभाषजी की एक दो रिपोर्टे लंबे समय तक खटकती रहीं. लेकिन प्रभाषजी इस मायने में विलक्षण थे कि उन्हें समझ में आ जाए कि मामला अब ठीक नहीं तो उसके विरोध में खड़े होने में देर नहीं लगाते थे. बाबरी ध्वंस के बाद उन्होंने संघ परिवार की जैसी ख़बर ली और जैसी लेते रहे वैसा तो पहले कभी किसी ने किया ही नहीं. 

प्रभाषजी जिस तरह अख़बार के कामकाज से धीरे-धीरे दूर होते गए उससे कोफ़्त होती थी. उसका असर जनसत्ता पर भी पड़ा. पर दूसरी दृष्टि से देखें तो उन्होंने अखबार को जमाया और दूसरे ऐसे कार्यो में लगे जो बेहद ज़रूरी थे. हर तरह के सामाजिक सवाल उन्हें मथते थे. इसलिए ऐसे हर मंच पर वे खड़े दिखते. घूमते-फिरते अपने सरोकारों की अलख जगाते. प्रभाषजी आज़ादी के बाद युवा हुए और सक्रिय हुए पर जैसे उनकी जड़ें आज़ादी के पूर्व के समय में थी. वही सरोकार, वही निष्ठा. उनके लिये पत्रकारिता औरआंदोलन में कोई फ़र्क़ नहीं था . इस सबके बीच संगीत, क्रिकेट और आत्मीयों के लिए उनके पास समय भी खूब निकलता रहता . गुणाकर मुले की शोकसभा में वे देर से पहुंचे. हिंदी भवन में उस दिन मृत्यु से एक हफ़्ते पहले आख़िरी मुलाक़ात थी. पीछे पड़े कि एक गाना सुनाना है. मंगलेशजी, जोसफ़ गाथिया और मैं और वे उनकी वहीं बाहर खड़ी गाड़ी में बैठे और पंद्रह मिनट तक संगीत सुनते रहे. 

उनकी पत्रकारिता और विचारों पर कई जगह एतराज हो सकता है ... कई चीज़ें ऐसी थीं भी, मार्मिकता पर बेहद ज़ोर था.... कई  खटके तो रामनाथजी और एक्सप्रेस से बैखटके  चले आये थे  . जनसत्ता ने विरोध भी झेला पर उन्हें विरोध की कोई परवाह भी नहीं थी. जो सही लगता उसे बेलाग, दो-टूक कहते. बहत्तर वर्ष उनके बेहद सक्रिय और सार्थक थे. सचिन जिता नहीं पाए तो यह भी क्रिकेट की भव्य अनिश्चितता का ही कमाल है. और जीवन तो सब खेलों से बड़ा खेल है उसकी अनिश्चितताएं भी भव्यतर हैं. प्रभाषजी का एकाएक जाना भी इसी में शुमार है. सदमा तो लगा पर ऐसे सच्चे, संजीदा, सजग, संवेदनशील, अतिसक्रिय और आत्मीय व्यक्ति के जाने पर  मन दुख  से कातर होता ही है पर उनके काम, उनके संगसाथ की यादें सम्पन्न करती हैं... उषा भाभी, संदीप, सोनल और सोपान ने जो अमूल्य खो दिया वैसा ही बहुमूल्य हिंदी समाज, पत्रकारिता, जनांदोलनों और उनके असंख्य प्रशंसकों ने भी खोया है. छाया की तरह साथ रहने वाले अपने सचिव महादेव देसाई की मृत्यु पर गांधीजी ने उनकी पत्नी को आगा खां पैलेस से चिट्ठी लिखी थी- ‘शोक की इजाजत नहीं. मैं तुमसे ज्यादा विधवा हो गया हूं.'

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