डा रवि यादव
कंसर्न वर्ल्डवाइड और वेल्ट हंगर हिल्फ द्वारा संयुक्त रूप से तैयार और जारी की गई वैश्विक भुखमरी सूचकांक में भारत 116 देशों में 101 वे पायदान पर है पिछले वर्ष भारत की रैंकिंग 96 थी . सभी पड़ौसी देशों की स्थिति पाकिस्तान (92) म्यांमार (76) नेपाल (76) और बांग्लादेश (71 ) भारत से बेहतर है . एक देश जिसके अन्न भंडारण गोदाम भरे हुए है , इसका एक उद्धयोग पति संदर्भित साल में 92 करोड़ प्रति घंटा बचाता है और दूसरा एक उद्धयोगपति अपनी सम्पत्ति एक वर्ष पहले 1, 40, 200 करोड़ से 5.05,900 करोड़ करते हुए देश के साथ एसिया का दूसरा सुपररिच बन जाता है उस देश के लिए यह चिंता का सबब होना चाहिए . लेकिन दुर्भाग्य से जिनको इन हालातों से लड़ना चाहिए वें निश्चिन्त दिखाई दे रहे है बल्कि लगता तो ये है कि -
वो ज़हर जो देता तो नज़र में आता ,
कुछ यू हुआ कि उसने समय पर दवा न दी .
नॉवल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री प्रोफेसर अमर्त्य सेन ने कई दशक पहले अपने अध्ययन से सिद्ध किया है की अकाल या भुखमरी इसलिए नहीं आते कि खाद्यान की कमी है बल्कि इसलिए आते है कि लोगों के पास खाद्यान ख़रीदने के लिए धन नहीं है अर्थात लोगों के पास क्रयशक्ति नहीं है . पिछले सात साल से अपनाई जा रही आर्थिक नीतियो ने सम्पति वितरण को पहले से अधिक असमान बना दिया है . 2014 में देश की कुल सम्पत्ति का 54 % भाग 1% लोगों के पास था जो अब बढ़कर 77 % हो चुका है .
रिश्ते परस्त आपराधिक पूँजीवाद ( क्रोनी कैपिटलिज़म) के तहत सब कुछ कुछ चुनिंदा लोगों के लिए सुरक्षित किया गया है परिणाम स्वरूप प्रतियोगिता ख़त्म हो गई और नए लोगों के लिए अवसर भी , 23 हजार से अधिक कारोबारी पिछले सात साल में वैधानिक तरीक़े से देश छोड़ चुके है अर्थात उनका पुराना कारोबार अभी भी भारत में है , टैक्स भी देते है मगर निवास और नया निवेश अन्य देशों में कर रहे है .
दूसरा बड़ा कारण बग़ैर विश्लेषण किए नई नीतियो का क्रियान्वयन रहा है जैसे नोट बंदी के आर्थिक दुष्परिणामों का आँकलन किए बग़ैर देश के असंगठित कारोबार की कमर तोड़ दी और वही स्थित जीएसटी के साथ हुई जिसमें पहले ही वर्ष में 300 से अधिक संशोधन किए गए इससे संगठित क्षेत्र बर्बाद हुआ .
तीसरी बड़ी समस्या सरकार द्वारा किसी बग़ैर तैयारी विश्लेषण के कोई नीति / नियम बना दिया गया तो दिखाई दे रहे दुष्परिणामों के फ़ीडबेक के बाद भी नेतृत्व की बदलाव न करने की ज़िद और हठधार्मिकता किसान आंदोलन जैसे परिणामो के लिए ज़िम्मेदार रही है
आर्थिक नीतियो की अनिश्चितता देश की आर्थिक हालात के ख़राब होने की चौथी प्रमुख वजह है , यह पूँजी और कारोबार की लागत बड़ाती है , ख़राब और उलझन भरे क़ानून और उनमें रोज़रोज़ बदलाव , मनचाही रियायतें ,नियमों की असंगत व्याख्याएँ जिनसे पैदा होने वाले क़ानूनी विवाद ....उसके बाद नया निवेश तो क्या आएगा पुराना ही फँस जाता है .....
यें मेरी व्याख्या नहीं और ना ही किसी कम्यूनिस्ट या कांग्रेसी की .....नहीं किसी मुसलमान का ऐसा कथन है और न ही किसी देशद्रोही या हिंदूविरोधी ने ऐसा कहा है यह किसी विशेष विचारधारा से प्रेरित अर्थशास्त्री की नसीहत भी नहीं है . यह तो वर्ष 2018-19 की भारत सरकार की आर्थिक समीक्षा में छपा है जिसमें से नए वर्ष 2020-21 का बजट निकला है और भारत को पाँच ट्रिलियन की अर्थ व्यवस्था बनाने का ख़्वाब भी .
तो क्या कहा जाय कि सरकार के एक हाथ को दूसरे हाथ की ख़बर नहीं है या संतोष किया जाय कि चलो एक हाथ तो हक़ीक़त से बाख़बर है . आर्थिक समीक्षा देश की ख़राब आर्थिक सेहत को तफ़सील से समझाती है मगर बजट में इसका ख़याल क्यों नहीं रखा गया .
एक उदाहरण - जब आटोमोबाइल उद्धयोग तबाही के मुहाने खड़ा है तब सरकार ने कलपुर्ज़ों के आयात पर भारी कस्टम ड्यूटी लगा दी , पेट्रोलियम पर सेस बड़ा दिया , पुराने वाहनो को बंद करने के नए नियम बना दिए , प्रदूषण के नए मानक , वाहन रजिस्ट्रेशन की फ़ीस बड़ा दी और जुर्माना कईगुना बड़ा दिया .
दूसरा- जब बचत और पूँजी निर्माण 2014 की तुलना में 11% कम है . आम लोगों की बचत पिछले 20 साल में सबसे कम है तो बचत जमादर , बैंक डिपॉज़िटरी पर व्याज दर पिछले 10 साल की न्यूनतम है . पूँजी कहा से आएगी ?
तीसरा मकानों कि बात करते है - माँग की कमी और क़र्ज़ के बोझ में फँसा यह उद्धयोग जैसे ही नोटबंदी के भूकंप उबरा भी न था कि इसे रेरा (नए रियलएस्टेट क़ानून ) से निपटना पड़ा इससे कई कंपनियां बंद हुई बैंकों का क़र्ज़ और ग्राहकों की उम्मीदें टूटी . भवन निर्माण के कच्चेमाल और मकानों की बिक्री पर भारी जीएसटी लगा दिया . निर्माण और खेती के बाद यह रोज़गार का बड़ा श्रोत है जो चरम मंदी में है. नोटबंदी से पैदा हुई बेरोज़गारी, जीएसटी और कोविड से उत्तरोत्तर बड़ती रही और सरकार डिनाइल मूड में बनी रही
इस सब का संयुक्त परिणाम माँग की कमी विशेषरूप से ग्रामीण और असंगठित क्षेत्र में जहाँ सीमांत आय वर्ग रहता है (मज़दूर किसान )की ख़रीद क्षमता ही ख़त्म हो गई . ख़रीद क्षमता के ख़त्म होने से न केवल वह स्वयं भुखमरी के कगार पर खड़ा है साथ ही देश की अर्थव्यवस्था को भी कंगाली के कगार पर खड़ा कर दिया है .
सीमांत आय वर्ग की उपभोग प्रत्यासा पूर्ण (एक ) होती है अर्थात अगर उसकी आय एक रुपया बढ़ जाए तो वह पूरा एक रुपया ख़र्च करता है , जो किसी दूसरे की आय बनता है और इस तरह मुद्रा संचलन वेग बढ़ाकर वह अर्थ व्यवस्था को गति देता है . फूटकर विक्रेता की विक्री बढ़ती है जो थोक विक्रेता की माँग बढ़ाता है और फिर थोक विक्रेता उत्पादक की , सरकार को अप्रत्यक्ष कर प्राप्त होता है . इस तरह रोज़गार , आय और माँग का चक्र मिलकर अर्थ व्यवस्था को गति मिलती है .
इसके उटत स्थिति में रोज़गार, आय , माँग की कमी का दुश्चक्र और अधिक मज़बूत हो रहा है .
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