हिसाम सिद्दीकी
नई दिल्ली! मुल्क के एक सौ पैंतीस (135) पावर प्लाण्ट कोयले की जबरदस्त किल्लत का सामना कर रहे हैं इसके अलावा प्राइवेट सेक्टर की कई तरह की सनअतों के बंद होने का खतरा पैदा हो गया है. मुल्क की कोयला खदाने सप्लाई नहीं कर पा रही हैं और इमपोर्टेड कोयले की कीमतें तकरीबन तीन गुना ज्यादा है. अब हालात यह हो गए हैं कि कोयले से चलने वाली सनअतें या बंद हो जाएं या फिर तीन गुना महंगा कोयला खरीद कर नुक्सान बर्दाश्त करें. कोयले की यह किल्लत अचानक ही नहीं हुई है. इसके लिए मोदी सरकार अपने शुरूआती दौर यानी 2014 से ही कोशिशें कर रही थी. मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार ने 2005 से 2011 के दरम्यान मुल्क की दो सौ सोलह (216) कोयला खदानों में से एक सौ पांच (105) प्राइवेट सेक्टर के हाथों नीलाम कर दी थी, निन्नानवे (99) खदाने भारत सरकार की कोयला वजारत के पास रखी गई थीं और बारह (12) खदाने रियासती सरकारों के पास थीं. उस वक्त प्राइवेट हाथों वाली पैंतीस खदानों से ही एक सौ साठ (160) मिलियन टन कोयला निकाला जा रहा था. 2014 में नरेन्द्र मोदी सरकार बनी तो प्राइवेट सेक्टर को एलाट की गई सभी खदानों का एलाटमेंट कैंसिल कर दिया गया था. मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा तो अदालते उजमा ने कहा कि अगर सरकार समझती है कि कम कीमत पर नीलामी की गई है तो दो सौ चौरान्नवे (294) रूपए फी मीट्रिक टन का इजाफा कर दिया जाए और खदाने चलने दी जाएं लेकिन मोदी सरकार नहीं मानी सभी खदानों की नीलामी कैंसिल कर दी, जिन कम्पनियों को दोबारा एलाटमेंट मिला वह अभी तक प्रोडक्टशन पूरी तरह से कर नहीं सकी और देश में कोयले की किल्लत हो गई. अब आए दिन यही खौफ दिखता रहता है कि पता नहीं किस दिन मुल्क में बिजली की पैदावार बंद हो जाए और पूरा मुल्क बिजली के बोहरान का शिकार हो जाए. अगर ऐसा हुआ तो क्या मोदी सरकार बिजली के बोहरान से निबपटने की सलाहियत रखती है? सात सालों के दौरान मोदी सरकार ने मुतबादिल एनर्जी या रिन्यूएबिल एनर्जी को फरोग देने के मामले में कोई काम नहीं किया है. ऐसी सूरत में बिजली का बोहरान देश की आम जिंदगी पर बहुत भारी पड़ सकता है. मोदी सरकार ने 2020 में इकतालीस (41) और 2021 में सरसठ (67) कोयला खदानों की नीलामी की है लेकिन इनसे कोयला निकालने का काम मुकम्मल तौर पर नहीं चल रहा है.
सरकार की जानिब से कोयला वजीर ने कह दिया कि कोविड के बाद अचानक इस्तेमाल में इजाफा और बारिश की वजह से कोयले की कम निकासी की वजह से यह बोहरान पैदा हुआ है तो क्या मोदी के कोयला वजीर यह कहना चाहते हैं कि बहुत सालों बाद इस साल इतनी बारिश हुई है कि कोयला निकालने का काम ठीक से नहीं चल पाया है. दरअस्ल यह बात है कि यह सरकार किसी भी तरह गवर्नेंस सीखना ही नहीं चाहती है. वजीर-ए-आजम मोदी से लेकर नीचे तक सब के सब सिर्फ इस काम पर लगे रहते हैं कि किस तरह ज्यादा से ज्यादा प्रदेशों की सरकारों पर कब्जा किया जाए और हिन्दुत्व की अफीम चटाकर मुल्कके ज्यादा से ज्यादा लोगों को मोदी का सपोर्टर बनाए रखा जाए. 2014 में जब कोयला खदानों के एलाटमेंट कैंसिल किए गए थे अव्वल तो जल्द से जल्द उन खदानों के एलाटमेंट नए सिरे से कर देना चाहिए था, दूसरे उसी वक्त से यह फिक्र होनी चाहिए थी कि किस तरह कोयले की फराहमी बरकरार रखी जाए जरूरत होती तो उसी वक्त कोयला इमपोर्ट किया जाना चाहिए था. अब कोयला इमपोर्ट किए जाने के कारोबार पर मोदी के दोस्त गौतम अडानी की इजारादारी है शायद सराकर इस बात का इंतजार कर रही थी कि मुल्क में कोयले की किल्लत हो जाए तभी इमपोर्टेड कोयला खरीदा जाए ताकि गौतम अडानी मनमानी कीमत पर इमपोर्टेड कोयल फरोख्त करके मर्जी मुताबिक मुनाफा कमा सकें.
कोयला खदानों की नीलामी करके जिन प्राइवेट कम्पनियों को खदानें सौंपी गई हैं उन खदानों से माकूल मिकदार (मात्रा) में कोयला इस लिए भी नहीं निकल पाने की हालत में है कि इनमें से बेश्तर खदानों के ऊपर या तो जंगल लगे हुए हैं या फिर आदिवासियों का कब्जा और इलाका है. सरकार और कोयला खदानें लेने वाले व्यापारी मजदूरी के अलावा आदिवासियों को कुछ देना नहीं चाहते हैं. जबकि आदिवासियों का कहना है कि उन खदानों पर पहला हक उन्हीं का है इसलिए उन्हें उनका मुनासिब हिस्सा मिलना चाहिए. जंगल काटने की इजाजत हासिल करने और आदिवासियों के साथ मामलात सुलझाने में भी काफी वक्त लगता है. यह भी इत्तेफाक है कि प्राइवेट कम्पनियां चूंकि ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना चाहती हैं इसलिए आदिवासियों के साथ उनका समझौता भी आसानी के साथ नहीं हो पाता है. अपने हक से महरूम किए जाने वाले आदिवासी जब कोई कार्रवाई करते हैं या समाजी खलफिशार पैदा करते हैं तब उनका रियासती पुलिस और सीआरपीएफ के साथ टकराव शुरू हो जाता है. यह टकराव अक्सर दर्जनों जाने ले लेता है.
भारत दुनिया में कोयला पैदा करने वाला दूसरा सबसे बड़ा मुल्क है इसी तरह देश में कोयले की खपत भी सबसे ज्यादा होती है. गुजिश्ता दिनों खबर आई कि देश में कोयले की पैदावार तकरीबन सात हजार मीट्रिक टन कम हो गई है. बिजली घरों में जहां कोई दो हफ्ते की खपत के बराबर स्टाक हर वक्त रहना चाहिए वहां इतनी कमी हो गई कि बिजली घरों में तीन-चार दिन और कहीं इससे भी कम स्टाक बचा पूरे देश में हंगामा मच गया. रियासती सरकारों ने बिजली सप्लाई को हाई एलर्ट पर रखा और तकरीबन तमाम सरकारों ने मोदी की मरकजी सरकार को खत लिखकर मतालबा किया कि उन्हें जरूरी स्टाक बरकरार रखने के लिए ज्यादा कोयला दिया जाए. सरकार की नाकिस पालीसियों की वजह से कई सालों से कोयला की पैदावार में कमी हो रही है. कोल इंडिया के मुताबिक 2018 में देश में छः सौ सात (607) मिलियन टन कोयला निकला था. 2019 में छः सौ दो मिलियन टन निकाला गया. 2020-21 में और कम होकर पांच सौ छियान्नवे मीट्रिक टन ही निकला. इस साल तो हालत और ज्यादा खराब हो गई. इस साल छः सौ सत्तर (670) मिलियन टन कोयला निकालने का टारगेट तय किया गया था लेकिन अक्टूबर की शुरूआत तक सिर्फ दो सौ उन्चास (249) मिलियन टन ही कोयला निकाला जा सका है. तो क्या अब सिर्फ इमपोर्ट ही वाहिद (एकमात्र) रास्ता बचा है.जदीद मरकज़
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