सूचना का अधिकार,कब होगी राह आसान

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सूचना का अधिकार,कब होगी राह आसान

आत्मदीप 
सूूचना का अधिकार मनुष्य को प्राप्त सभी स्वतंत्रताओं की मूल धुरी है. यह सारगर्भित कथन संयुक्त राष्ट्र (यूएन) द्वारा अंगीकार किये गये मानवाधिकारों के लिये सार्वभौम घोषणापत्र का है. यूएन द्वारा 1948 में आम राय से मंजूर किये गये इस घोषणापत्र में prमें सर्वप्रथम सूचना का अधिकार मानव अधिकार के रूप में स्वीकार किया गया. साथ ही, सभी देशों को इस अधिकार को लागू करने का आव्हान किया गया. इसके 56 साल बाद भारत सरकार ने इस पर अमल किया. एक ओर, सूचना का अधिकार देने की मांग पर करीब डेढ़ दशक तक देशव्यापी जनांदोलन चला. दूसरी तरफ, विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, एशियाई विकास बैंक आदि भारत जैसे विकासशील देशों को वित्तीय सहायता देने की शर्त के रूप में सुशासन, पारदर्शिता व जबावदेही के लिये कानूनी प्रावधान करने पर जोर देने लगे. ऐसा करके अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं ने भी आरटीआई कानून को लेकर सरकार पर दबाव बनाने का प्रयास किया. 
इस दोतरफा दबाव के चलते 12 अक्टूबर,2015 को भारत में सूचना का अधिकार लागू कर दिया गया. घटनाक्रम से साफ है कि आरटीआई एक्ट,2015 को संसद ने सर्वसम्मति से पारित तो कर दिया पर अनिच्छा और मजबूरी में. नतीजन, इस कानून के अधिकतर बाध्यकारी व जनहितकारी प्रावधान 16 वर्ष बाद भी अपेक्षित अमल के मोहताज बने हुये हैं. यह स्थिति भी तब है जबकि सुप्रीम कोर्ट संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ सूचना के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में कई बार मान्य कर चुका है. सुप्रीम कोर्ट यहां तक कह चुका है कि मुक्त सरकार की अवधारणा जानने के अधिकार का सीधा परिणाम है. 
बेरूखी: आम आदमी को बड़ी ताकत देने वाले इस अधिकार के प्रति केंद्र व राज्य सरकारों की बेरूखी स्पष्ट जाहिर होती है. नतीजा यह है कि सरकारी तंत्र का बड़ा हिस्सा सुशासन की कुंजी माने जाने वाले आरटीआई एक्ट के प्रति नकारात्मक रवैया अपनाये हुये हैं. उसे सकारात्मक करने की जवाबदेही सरकारों पर ही निर्भर है. आरटीआई एक्ट के प्रावधानों को लागू करने के लिये केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा संबंधित अधिकारियों के लिये समय-समय पर परिपत्र जारी किये जाते हैं. पर सरकारी निर्देशों की अनुपालना हो रही है या नहीं, इसकी निगरानी के लिये कोई व्यवस्था नहीं की गई. जिससे ढाक के तीन पात वाली स्थिति बनी रही. 
अनिवार्यता की अनदेखी :  इस एक्ट की धारा-4 बहुत महत्वपूर्ण है. इसमें लोक प्राधिकारियों की बाध्यतायें तय की गई हैं. इसके तहत हर लोक प्राधिकारी के लिय अनिवार्य है कि वह अपने विभाग या कार्यालय के सारे दस्तावेजों को सम्यक तरीके से सूचीबद्ध करके रखेगा. ऐसी रीति व रूप में जो सूचना के अधिकार को आसान बनाये. साथ ही सभी अभिलेखों को कम्प्यूटरीकृत करेगा और विभिन्न प्रणालियों के जरिये उन्हें देशभर में उपलब्ध नेटवर्क से जोडेगा. ताकि सूचना तक लोगों की पहुंच आसान हो सके. प्रत्येक लोक प्राधिकारी अपने संगठन, कार्य व दायित्व आदि से जुडे़ 17 बिंदुओं की जानकारियां स्वतः सार्वजनिक रूप से दर्शायेगा. इसी धारा में पांच अन्य प्रावधान हैं, जिनकी अनुपालना भी अनिवार्य है. इसका उद्देश्य यही है कि आम जनता को बिना मांगे अधिक से अधिक जानकारियां शासन द्वारा स्वयं दी जाये. लेकिन इन बाध्यकारी प्रावधानों का अधिकांश विभाग उल्लंघन कर रहे हैं. इसके लिये जवाबदेह अधिकारियों को दंडित करने की शक्तियां सूचना आयोग को प्राप्त है. पर इनका प्रभावी उपयोग करने में वे भी कोताही बरत रहे हैं, अन्यथा यह विधि-विरूद्ध स्थिति बदल सकती है. 
सूचना आयोगों की दशा: विभिन्न राज्यों के सूचना आयोगों में जितनी अधिक संख्या में अपीलें व शिकायतें लम्बित हैं, उनके मुकाबले कई प्रदेशों के आयोगों में आधे या उससे भी कम संख्या में सूचना आयुक्त नियुक्त हैं. यह अन्यायपूर्ण नीति पिछले डेढ़ दशक से जारी है. परिणामस्वरूप जनता को न्याय मिलने में अनावश्यक देरी हो रही है. अधिकतर आयोग में योग्य व कार्यकुशल स्टाफ की समस्या से जूझ रहे हैं. केंद्रीय सूचना आयोग अपीलों व शिकायतों को प्राप्त करने, उनकी सुनवाई करने और आदेश पारित कर संबंधितों को भेजने की व्यवस्था वर्षों पूर्व ऑनलाइन कर चुका है. जिससे जनता को बडी राहत मिली है. लेकिन कई राज्य सूचना आयोग ऑनलाइन व्यवस्थाओं में पिछडे़ हुये हैं. वे विडियो कॉन्फ्रेंसिंग से सुनवाई भी अधूरे ढंग से कर रहे हैं. डिजिटल इंडिया में प्रत्यक्ष सुनवाई एवं डाक से दस्तावेजों के आदान-प्रदान करने के स्थान पर इंटरनेट सुविधा से इसे त्वरित व सरल बनाया जा सकता है. इससे जहां मामलों के निबटारे में समय बचेगा, वहीं कागज की खपत घटने से पर्यावरण संरक्षण भी हो सकेगा.   
प्रशिक्षण का अभाव: सरकारी दफ्तरों में क्लर्क से अखिल भारतीय सेवाओं के अफसरों तक सभी को चयन के बाद उस काम को करने का प्रशिक्षण दिया जाता है, जिसे उन्हें पद पर रहते हुये करना है. लेकिन आश्चर्य है कि 2 लाख से अधिक वेतन पाने वाले सूचना आयुक्तों को प्रशिक्षण देने की कोई व्यवस्था नहीं है. नतीजे में उनके सेवाकाल में शुरूआत के कुछ माह तो आरटीआई एक्ट को समझने और उसके अनुसार निर्णय पारित करना सीखने में ही निकल जाते हैं. कानूनी प्रशिक्षण के अभाव में कुछ सूचना आयुक्त द्वारा ऐसे आदेश भी पारित किये गये हैं, जो आरटीआई एक्ट के प्रावधानों के सर्वथा विपरीत हैं. मसलन, एक आयुक्त के आदेश में कहा गया कि आयुक्त को दोषी लोक सूचना अधिकारी को दंड देते का अधिकार नहीं है. जबकि एक्ट की धारा-19 में आयुक्त को दोषी लोक सूचना अधिकारी से पीड़ित अपीलार्थी को हर्जाना दिलाने और धारा-20 में दोषी अधिकारी पर 25 हजार रू. तक जुर्माना लगाने एवं उसके विरूद्ध सेवा नियमों के तहत अनुशासनात्मक कार्यवाही की अनुशंसा करने का अधिकार प्राप्त है. दरअसल, सूचना आयोग अर्द्ध न्यायिक निकाय है, जिसे सिविल कोर्ट की शक्तियां भी प्राप्त हैं. 
ज्वलंत समस्या: सूचना आयुक्तों के अन्यायपूर्ण फैसलों के खिलाफ हाईकोर्ट में रिट दायर करने के अतिरिक्त अन्य कोई वैधानिक समाधान लोगों को उपलब्ध नहीं है. हाईकोर्ट जाना महंगा होने से आम नागरिक नाइंसाफी के आगे हार मानकर बैठ जाते हैं. सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट आदि के निर्णयों पर उसी कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर की जा सकती है. आरटीआई एक्ट में संशोधन कर ऐसी ही व्यवस्था सूचना आयोगों में भी लागू की जानी चाहिये जिससे आम आदमी आसानी से राहत पा सके. 
आवश्यकता : लोकहित व लोकक्रियाकलाप से जुडे़ कार्यों के बारे में जानने के अधिकार का आम जनता में व्यापक प्रचार-प्रसार करने की आवश्यकता है. साथ ही, आरटीआई एक्ट के क्रियान्वयन से जुडे़ लोकसेवकों को भी समय-समय पर प्रशिक्षण दिया जाये. तभी यह कानून सार्वजनिक कामकाज में पारदर्शिता लाने, भ्रष्टाचार रोकने, अनियमितता व लेटलतीफी पर अंकुश लगाने, सरकारी तंत्र को जनता के प्रति जवाबदेह बनाने और जमीनी स्तर पर लोकतंत्र को मजबूत बनाने के उद्देश्य को पूरा सकेगा.

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