प्रियंका पर मीडिया की यह मेहरबानी क्यों

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प्रियंका पर मीडिया की यह मेहरबानी क्यों

डा रवि यादव 
उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी कांग्रेस महासचिव बनने के पहले से सक्रिय रही है, हाँ तब उनकी सक्रियता अमेठी और रायबरेली तक सीमित थी . अमेठी लोकसभा क्षेत्र में उनकी राजनैतिक सक्रियता राजीव गांधी के जीवित रहते हो चुकी थी . 1989 में लोकसभा चुनाव से लगभग तीन माह पूर्व महानंदपुर गाँव में आग लगने से कुछ लोगों के घर जल गए थे तब वहाँ राहत सानिग्री बाटने प्रियंका गांधी गई थीं , उनके साथ सिर्फ़ स्थानीय कांग्रेस पदाधिकारी थे . राजीव जी की मृत्यु के बाद उनकी सक्रियता अमेठी और रायबरेली दोनो लोकसभा क्षेत्र में लगातार रही है इसके बावजूद इन क्षेत्रों में 2012 और 2017 के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह हारी जबकि तब प्रियंका का पूरा फ़ोकस सिर्फ़ इन दो क्षेत्रों में ही था . 2019 के लोकसभा चुनाव मे अमेठी भी हार गई . 
लखीमपुर खीरी नरसंहार में प्रियंका के पीड़ित किसानो से मिलने के स्टेण्ड ने उन्हें मीडिया की सुर्ख़ियो में ला दिया .कई लोग इस घटना को कांग्रेस के रिवाइवल के रूप में देख रहे है तो कुछ जानबूझकर रिवाइवल के रूप में उछाल रहे है . किसान आंदोलन में लगे ख़ालिस्तान ज़िंदावाद के नारे” की हेड लाइन लगाने वाले और किसानों को “उपद्रवी “ लिखने वाले हिंदी के बड़े भाजपा समर्थक अख़बार ने  ख़बर प्रकाशित की कि-      “ लखीमपुर हिंसा में मृतक किसान गुरूविंदर की बेटी को प्रियंका गांधी अपना वट्सएप नंबर दे कर गई है “. जबकि गुरबिंदर की अभी तक शादी नहीं हुई है .  
ग़ालिब ने लिखा है - 
बेरुख़ी बेसबब नहीं ग़ालिब ,  कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है .  

प्रियंका और कांग्रेस पर गोदी मीडिया की यह मेहरबानी भी बेसबब नहीं है , इसके निहितार्थ भी समझना बहुत मुश्किल नहीं है .गोदी मीडिया द्वारा  प्रियंका गांधी को प्रोमोट करना बताता है यह खेल सत्ता विरोधी वोट में भ्रम फैला कर उसे बाटने के लिए ही है ताकि उसका लाभ भाजपा को मिले . सभी जानते है,  संघ अन्ना आंदोलन में भीड़ जुटाने का काम कर चुका है . 

अभी तक उत्तरप्रदेश विधान सभा चुनाव में मुक़ाबला सीधे सपा - भाजपा के बीच दिखाई दे रहा है द्विध्रुवीय मुक़ाबले में सत्ता विरोधी वोट सिर्फ़ सपा को मिल सकता है जिससे भाजपा को बड़ा नुक़सान होगा .यू पी के साथ ही पंजाब , उत्तराखंड , गोवा और मणिपुर में चुनाव है . पिछले विधान सभा चुनाव में कांग्रेस को बहुमत से गोवा में तीन और मणिपुर में चार सीट कम मिली थी , पंजाब में उसकी सरकार बन गई थी और उत्तराखंड में हार के बाद भी वह मुख्य विपक्ष है . उत्तरप्रदेश में उसके सिर्फ़ 7 विधायक है .  
प्रियंका राष्ट्रीय नेता है जिनकी हैसियत कांग्रेस मे कम से नम्बर दो पर है .  आकर्षक व्यक्तित्व और नेहरु की विरासत भी उनके साथ है तो उनके दौरे , प्रदर्शन या वक्तव्यों को किसी अन्य विपक्षी नेता की तुलना में यू भी मीडिया में अधिक जगह मिलती है . अन्यथा उनका यह वक्तव्य पूर्णत: असत्य और भ्रामक है कि सपा उनकी तुलना में भाजपा सरकार के ख़िलाफ़ कम मेहनत कर रही है . सपा आज यूपी में सीधे मुक़ाबले में है तो इसके पीछे अखिलेश और पार्टी कार्यकर्ताओ की मेहनत ही है . लखीमपुर घटना के चंद दिन पूर्व मुख्यमंत्री के गृह जनपद गोरखपुर  में पुलिस ने होटल में सो रहे कानपुर के युवा व्यापारी मनीष गुप्ता को जगा कर पीटपीट कर मार डाला . रक्षको के भक्षक बनने की यह घटना इस मायने में लखीमपुर से भी गम्भीर है कि वहाँ सरकार के तंत्र ने अपराध को अंजाम दिया था . अखिलेश पीड़ित परिवार से मिले जबकि गुप्ता न सपा का परम्परागत वोट है न आगे मिलने की सम्भावना है . सिर्फ़ पिछले महीने अखिलेश 28 जिलो में अलग अलग कार्यक्रमों में शामिल हुए . ये अलगबात है कि उनके दौरे इलेक्ट्रोनिक मीडिया में जगह नहीं बना सके . समाजवादियों को पहले भी मीडिया कम ही महत्व देता रहा है अब तो ख़ैर कहना ही क्या ! 
वे उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार के ख़िलाफ़ सड़क पर उतरती है तो उनका स्वागत होना चाहिए . उत्तरप्रदेश में कांग्रेस की मज़बूती उनका कर्तव्य है और अधिकार भी मगर अभी कांग्रेस 2022 के विधान सभा चुनाव में अगर अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा पंजाब को बचाने और उत्तराखंड , गोवा और मणिपुर में जीत हासिल करने पर लगाए तो अगले वर्ष होने वाले पाँच राज्यों में चार में जीतने की स्थित में है . एक बड़े शिक्षाविद ने पहले कठिन सबाल हल करने का सुझाव दिया था , कांग्रेस भी वही कर रही है अन्यथा उन राज्यों पर अधिक ध्यान देकर जीत हासिल करती जहाँ वह मज़बूत है जबकि यूपी में उसकी अधिक मेहनत से वह कुछ वोट प्रतिशत बढ़ाने में भले कामयाब हो जाए सरकार बनाने तो क्या मुख्य विपक्ष बनने की स्थिति में भी नहीं . यूपी कांग्रेस की हालत पर पूर्वांचल की कहावत पूर्णतः लागू होती है- “मूस मुटाई त लौढा होई, और का हाथी घोड़ा होई “  

 

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