अरुण मिश्र के ‘उत्थान की कहानी’ क्यों नहीं छपी?

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अरुण मिश्र के ‘उत्थान की कहानी’ क्यों नहीं छपी?

संजय कुमार सिंह  
चार जजों की प्रेस कांफ्रेंस वाले अरुण मिश्रा नियम बदल कर मानवाधिकार आयोग के मुखिया बना दिए गए. अखबारों में खबर नहीं दिखी, इतिहास भूगोल तो छोड़िए.पहला पन्ना: NHRC अध्यक्ष बनाये गये जस्टिस अरुण मिश्र के ‘उत्थान की कहानी’ क्यों नहीं छपी? 

यह सिस्टम और सिस्टम से खिलवाड़ का नायाब नमूना है 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तारीफ करने वाले सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज अरुण मिश्र मानवाधिकार आयोग के नए प्रमुख नियुक्त किए गए हैं. पर यह खबर आज अखबारों में पहले पन्ने पर नहीं है. मानवाधिकार आयोग अपने सामने प्रस्तुत किसी पीड़ित या उसकी ओर से दायर किसी अन्य की याचिका पर सुनवाई एवं कार्रवाई कर सकता है. इसके अतिरिक्त,  आयोग न्यायालय की स्वीकृति से न्यायालय के सामने लंबित मानवाधिकारों के प्रति हिंसा संबंधी किसी मामले में हस्तक्षेप कर सकता है. आयोग के पास यह शक्ति है कि वह संबंधित अधिकारियों को पहले से सूचित करके किसी जेल का निरीक्षण कर सके. आयोग मानवाधिकारों से संबंधित संधियों पर भी ध्यान देता है और उन्हें और अधिक प्रभावी बनाने के लिए निरंतर काम करता है. भारत में मानवाधिकार की जो दशा है उसमें मानवाधिकार आयोग का प्रमुख होना अलग महत्व रखता है पर वह व्यक्ति प्रधानमंत्री का प्रशंसक हो तो उससे क्या अपेक्षा की जाए यह अपने आप में महत्वपूर्ण है. दूसरी ओर, यह प्रधानमंत्री की तारीफ करने का इनाम लगता है और यह इनाम बाकायदा व्यवस्था करके यानी सिस्टम में रास्ता निकाल कर दिया गया है इसलिए भी खबर है.  

आज द टेलीग्राफ में यह खबर पहले पन्ने पर है और इसमें याद दिलाया गया है कि आपने अंतरराष्ट्रीय न्यायिक सम्मेलन 2020 को संबोधित करते हुए मोदी को एक ‘अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त दूरदर्शी’ और ‘बहुमुखी प्रतिभा’ वाला व्यक्ति बताया था. अब जब प्रधानमंत्री की बहुमुखी प्रतिभा सर्वविदित है तो इस खबर को प्रमुखता नहीं मिलाना भारतीय मीडिया के समर्पण का एक बढ़िया उदाहरण है. उधर, सुप्रीम कोर्ट के जज द्वारा प्रधानमंत्री की तारीफ पर सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने एतराज किया था. हालांकि, बार के एक वर्ग ने तबके प्रेसिडेंट दुष्यंत दवे का विरोध किया था और उन्हें इस पद से हटाने की कोशिशें शुरू हो गई थीं. दुष्यंत दवे उससे कैसे निपटे वह अलग कहानी है. पर अब जब उन्हें एक महत्वपूर्ण पद मिला है तो खबर नहीं छपने का कोई कारण नहीं है. मीडिया ने महत्व नहीं दिया तो सिर्फ इसलिए कि बाद की बातें याद दिलाए बिना सिर्फ सूचना देना शायद इस मामले में ठीक नहीं होगा. जो भी हो न्यूज18 डॉट कॉम की एक खबर के अनुसार सितंबर 2020 में रिटायरमेंट के वक्त जस्टिस मिश्रा सुप्रीम कोर्ट में तीसरे नंबर पर थे. अभी तक आपने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों को ऐसे पद मिलते सुना होगा. पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को रिटायरमेंट के तुरंत बाद राज्य सभा का सदस्य बनवा दिया गया था. और यह पद मुख्य न्यायाधीश के लिए था तो नियम बदलकर व्यवस्था की गई.   

द टेलीग्राफ ने उसकी भी याद दिलाई है. 1993 के मूल मानवाधिकार कानून के अनुसार, आयोग का अध्यक्ष कोई पूर्व मुख्य न्यायाधीश ही हो सकता है. जुलाई 2019 में इसमें संशोधन कर जोड़ा गया, भारत के मुख्य न्यायाधीश या जज. इसलिए अभी तक इस पद पर रिटायर मुख्य न्यायाधीशों  की ही नियुक्ति होती आई है. यह अलग बात है कि कार्यकाल पांच की जगह तीन साल का कर दिया गया है लेकिन इसे अगर इनाम मानें तो इसका मतलब हुआ कि एक ही इनाम से अब दो लोगों को खुश किया जा सकेगा. अगर किसी को देर से नियुक्त किया जाए (यानी इनाम न हो) तो इस पद पर रहने की अधिकतम सीमा 70 साल कर दी गई है.   

उल्लेखनीय है कि न्यायमूर्ति एचएल दत्तू कोई 14 महीने मुख्य न्यायाधीश रहे. दो दिसंबर 2015 को प्रधान न्यायाधीश के पद से रिटायर होने के तीन महीने बाद, 29 फरवरी 2016 को एनएचआरसी प्रमुख का कार्यभार संभाला था. मुझे याद नहीं है कि न्यायमूर्ति एचएल दत्तू ने प्रधानमंत्री की तारीफ की थी या उनके किसी फैसले पर विवाद था. इसलिए तब कोई सवाल नहीं उठा था. अब जब उनका कार्यकाल दिसंबर 2020 में पूरा हो गया और यह पद अरुण मिश्रा को ही दिया जाना था तो पहले भी दिया जा सकता था. लेकिन इस बार पद भले खाली रहा नियुक्ति में जल्दबाजी नहीं की गई ताकि ‘सिस्टम’ सवाल करे तो उसे जवाब मिल जाएगा कि दत्तू को तो तीन महीने बाद ही पद दे दिया गया था. अब तो पांच महीने से ज्यादा हो गए हैं. लेकिन सिस्टम यह नहीं पूछेगा कि दत्तू पर तो कोई आरोप नहीं था. इनपर आरोप हैं – यह खेल सिस्टम के साथ हुआ है. और इसीलिए सिस्टम अब प्रेस कांफ्रेंस नहीं करता और उसे सोशल मीडिया से भी परेशानी है. क्योंकि राज की बातें राज नहीं रहने देता है. 

अरुण मिश्रा का नाम चार जजों की प्रेस कांफ्रेंस के समय सामने आया था. उस समय के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा पर आरोप था कि वे सुप्रीम कोर्ट की विभिन्न पीठों को मुकदमों के “बंटवारे में भेदभाव” कर रहे हैं. बात तब गंभीर हो गई थी जब महाराष्ट्र के जज बृजगोपाल लोया की रहस्यमय मृत्यु की जांच से संबंधित मामला मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने अरुण मिश्रा की पीठ को सौंपा और इस विवादास्पद मामले की संक्षिप्त सुनवाई के बाद ही मामले को स्थगित कर दिया गया. सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार को कोई नोटिस नहीं भेजा और स्थायी वकील से कहा कि वे सुनवाई की अगली तारीख से पहले निर्देश ले लें. अरुण मिश्रा को और भी कई प्रमुख मामले सौंपे गए थे.  

मशहूर अधिवक्ता प्रशांत भूषण को अवमानना का दोषी ठहराने और उन पर एक रुपये का सांकेतिक जुर्माना लगाने का फैसला भी न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा का था. इसे उनके विदाई समारोह में भी याद किया गया. बीबीसी ने उनपर एक खबर भी की थी, जस्टिस अरुण मिश्रा: मोदी की सराहना से लेकर प्रशांत भूषण पर जुर्माने तक. न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा के विदाई समारोह में मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे  ने कहा,  ‘‘मैं ऐसे ज्यादा लोगों को नहीं जानता जिन्होंने तमाम कठिनाइयों के बावजूद अपना काम पूरे साहस के साथ किया.’’ बार एसोसिएशन के अध्यक्ष दुष्यंत देव ने न्यायमूर्ति मिश्रा के विदाई समारोह को वीडियो कांफ्रेंस के माध्यम से संबोधित करने के अवसर से वंचित किये जाने पर आपत्ति की थी और इस बारे में मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र लिखा था. (इंडियाटाइम्स डॉट कॉम)  

द वायर ने उनके फैसलों की पड़ताल पर केंद्रित पांच लेख की श्रृंखला प्रकाशित की थी. इसके अनुसार कुछ प्रमुख मामले और फैसले इस प्रकार हैं :  

1.संजीव भट्ट मामला 

इसमें बेंच की अगुआई सीजेआई दत्तू कर रहे थे, लेकिन उन्होंने संजीव राजेंद्र भट्ट बनाम भारतीय संघ वाले मामले में फैसला लिखने के लिए जस्टिस अरुण मिश्रा को कहा. 13 अक्तूबर 2015 को दिए गए अपने फैसले में, दत्तू-मिश्रा की बेंच ने भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी संजीव भट्ट की गुजरात राज्य सरकार द्वारा उनके खिलाफ दायर दो प्राथमिकियों की निष्पक्ष, विश्वसनीय और स्वतंत्र जांच कराने की मांग करने वाली याचिका को खारिज कर दिया. अदालत ने तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और कई अन्य को इस मामले में प्रतिवादी (रेस्पांडेंट) बनाने की उनकी याचिका को भी खारिज कर दिया. 

2.सहारा-बिड़ला डायरी केस 

अपने आवेदन में, एनजीओ कॉमन कॉज ने इनकम टैक्स डिपार्टमेंट द्वारा 2013 में आदित्य बिड़ला ग्रुप ऑफ कंपनीज के दफ्तरों में मारे गए छापे में बरामद किए गए कागजातों को- जिनसे लोकसेवकों को घूस दिए जाने की बात सामने आ रही थी- सीबीआई को सौंपने में नाकाम रहने की जांच कराने की मांग की थी. इन डायरियों में दर्ज एंट्रियों में से एक एंट्री गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 25 करोड़ रुपए देने की तरफ इशारा कर रही थी. उस समय इनकम टैक्स की पड़तालों के इंचार्ज के.वी चौधरी थे. 11 जुलाई, 2017 को दिए गए अपने आदेश में जस्टिस अरुण मिश्रा ने (जो उस समय तक इतने वरिष्ठ नहीं थे कि किसी पीठ की अध्यक्षता कर सकें) कॉमन कॉज के आवेदन को खारिज कर दिया. कारण था संवैधानिक पदाधिकारियों पर ढीले-ढाले पन्नों के आधार पर जांच नहीं बैठाई जा सकती.  

3.रंजन गोगोई का मामला  

जस्टिस मिश्रा को मुख्य न्यायाधीश द्वारा महिला के आरोपों पर विचार करने के लिए बनी विशेष बेंच का हिस्सा खुद गोगोई ने ही बनाया था. इस सुनवाई में गोगोई ने अपनी बेगुनाही घोषित की और (आरोप लगाने वाली) महिला और उसके परिवार के चरित्र पर हमला किया. (उस महिला को नौकरी से निकाल दिया गया था और फिर बहाल कर लिया गया). गोगोई तो राज्य सभा के सदस्य बन ही गए. बड़ी साजिश की जांच एक अवकाश प्राप्त जज एके पटनायक को सौंपी गई, लेकिन जस्टिस मिश्रा ने उनकी रिपोर्ट पर कोई एक्शन नहीं लिया, जबकि रिपोर्ट अक्तूबर 2019 को ही सौंप दी गई थी.  

4.सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति 

कॉमन कॉज बनाम भारतीय संघ वाले मामले में 2019 में सीबीआई के अंतरिम निदेशक के तौर पर नागेश्वर राव की नियुक्ति को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि यह एक मनमानी और गैर-कानूनी नियुक्ति है. जैसा कि सीबीआई बनाम सीबीआई के द वायर की रिपोर्टस ने दिखाया, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई समेत तीन जजों द्वारा खुद को इस मामले से अलग कर लेने के बाद यह मामला जस्टिस अरुण मिश्रा और नवीन सिन्हा की बेंच के सामने सूचीबद्ध किया गया. लेकिन मिश्रा की बेंच ने इस चुनौती को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि अंतरिम निदेशक की नियुक्ति को उच्च शक्ति प्राप्त सलेक्शन कमेटी द्वारा दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टैब्लिशमेंट एक्ट, 1946 की धारा 4ए के तहत प्राधिकृत किया गया था. इस धारा के तहत हुई हाल की नियुक्ति और उसके आदेश की चर्चा यहां पहले की जा चुकी है.  

जस्टिस अरुण मिश्रा के और भी कारनामे पढ़ने के लिए इस लिंक पर जाएं. इनमें एक मामला खुद द वायर और अमित शाह के बेटे जय शाह से संबंधित है. 

इसके अलावा, आज केरल चुनाव के दौरान भाजपा द्वारा पैसों के लेन-देन से संबंधित एक खबर में अमित शाह का नाम होने का जिक्र है. पर दूसरे अखबारों में इसका कोई जिक्र नहीं है. कांग्रेस के कथित टूल किट और उससे संबंधित खबरों पर हंगामा मचाने वाली भाजपा और अन्य मीडिया संस्थान इस मामले में पूरी तरह शांत हैं और यहां आप रोज ऐसी खबरों की चर्चा पढ़ते हैं. आज की इन दो खबरों के लिहाज से बाकी चारो अखबारों की सारी खबरें रद्दी हैं. साभार 



 


 

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