पंचायत चुनाव ,दलित वोटों पर भगवा दृष्टि

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पंचायत चुनाव ,दलित वोटों पर भगवा दृष्टि

यशोदा श्रीवास्तव 
तो यह मान लिया जाय कि दलित समाज मौजूदा राजनीतिक दौर में वोट बैंक के सिवा कुछ भी नहीं है? आजादी के बाद से इस समाज पर नजर डालें तो इनके हिस्से में लोकलुभावन भाषण और वादे के सिवा कुछ भी नहीं हासिल हुआ. हां इनके नाम पर राजनीतिक दल खड़ा कर  इनके कथित रहनुमाओं की किस्मत जरूर बदली है. इनका वोट हासिल कर प्रदेश और देश की बड़ी पंचायतों तक पहुंचने वाले लोग कहां से कहां पहुंच गए,लेकिन "ये"? 

 दलित समाज के नाम पर राजनीति कौन कर रहा है अथवा इनके वोटों को छलने वाले लोग कौन हैं, शायद यह बताने की जरूरत नहीं है. दरअसल इस वक्त दलित राजनीति पर और इनके वोटों के महत्व पर कुछ लिखने का विचार यूं आया जब यूपी में हो रहे पंचायत चुनाव की आरक्षण सूची जारी हुई. आरक्षण की इस सूची को देख यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि कांग्रेस, सपा,बसपा के बाद इस वोट बैंक पर अब भाजपा की भगवा दृष्टि है. यूपी की योगी सरकार का 1995 से जो गांव इस वर्ग के लिए आरक्षित नहीं हुए,उसे दलितों के लिए आरक्षित कर उन्हें गांव की सरकार बनाने का मौका उपलब्ध कराने के दांव के पीछे निश्चित ही इस वोट बैंक पर हक हासिल करना है.  


योगी शासन में हो रहे पंचायत चुनाव में जिस ग्राम पंचायत का प्रधान दलित होगा,यह बताने की जरूरत नही कि इसके लिए वह किसका शुक्रगुजार होगा. कहना न होगा कि पंचायत चुनाव में आरक्षण का कार्ड खेलकर यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ ने बीजेपी के पक्ष में दलित मतदाताओं को आकर्षित करने का नायाब प्रयास किया है. योगी का यह प्रयास दलितों के अंदर तक चर्चा का विषय बना हुआ है. अभी अभी राज्यसभा के लिए मनोनीत यूपी के रिटायर्ड आईपीएस वृजलाल की मानें तो दलित समाज अब बीजेपी के साथ है. 


बीजेपी का सत्ता में आने के बाद से ही दलितों पर फोकस रहा है. दलित एक्ट में किए गए तमाम परिवर्तन के जरिए भी उसने दलितों के नाम पर राजनीति करने वालों को बे नकाब किया है. खास तौर पर उन्हें जिन्होंने इस वोट बैंक के नाम पर वर्षों तक राज किया. हैरानी की बात है कि मुख्यमंत्री रहते मायावती ने एससी एसटी आयोग का चेयरमैन तक किसी दलित के होने की अनिवार्यता को नजरअंदाज किया था. सीएम बनते ही योगी ने इस अनिवार्यता को बहालकर इस आयोग का अध्यक्ष यूपी के डीजीपी से रिटायर्ड हुए दलित चेहरा वृजलाल को बनाया. 

यह सच है कि उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति के केंद्र बिंदु में बहुजन समाज पार्टी का एक महत्वपूर्ण स्थान है. मायावती यदि चार बार यूपी की सीएम रहीं हैं तो इसके पीछे दलित वोट बैंक ही है. दलित समाज भी सत्ता में निर्णायक हो सकता है, इसे कांशीराम ने समझा और उनके नेतृत्व में इस समाज के उत्थान और राजनीति में भागीदारी सुनिश्चित करने के नाम पर 1985 में बहुजन समाज पार्टी का उदय हुआ.कांशीराम यद्यपि कि अब हम सबके बीच नहीं हैं लेकिन उन्होंने दलित उत्थान के नाम पर जिस दलित राजनीति की राह दिखाई , आज उस राह चलने को आज सभी राजनीतिक दल मजबूर हैं. 


उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति की चर्चा होती है तो बहुजन समाज पार्टी और दलितों की राजनीति करने वाले अन्य छोटे राजनीतिक दल एक दूसरे के विरोध में खड़े दिखते हैं. उत्तर प्रदेश, जहां की शुरू हुई दलित राजनीति संपूर्ण भारत के दलित राजनीति को प्रभावित करती है, उसके अंदर से अलग हुए सोनेलाल पटेल, मसूद अहमद, बाबूराम कुशवाहा, स्वामी प्रसाद मौर्य, उदितराज सरीखे नेता दलितों का उत्थान करने के नाम पर अलग अलग झंडा जरूर पकड़ लिए लेकिन दलितों के बीच वह मुकाम नहीं हासिल कर पाए जो बसपा ने हासिल किया. हां इन कथित दलित नेताओं ने अपने राजनैतिक स्वार्थ के लिए भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस तथा समाजवादी पार्टी सहित अन्य क्षेत्रीय दलों से भी गठबंधन कर सत्ता का लाभ जरूर लिया.  भारत की राजनीति में दलित राजनीति की शुरुआत डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के नेतृत्व से शुरू होता है और सभी दलित समाज के हिमायती नेता अपना आदर्श डॉक्टर अंबेडकर को ही बताते हैं परंतु जब ऐसे राजनीति की समीक्षा होती है तो पाया जाता है कि की डॉक्टर अंबेडकर जैसा नेतृत्व उनके निधन के बाद वह स्थान नहीं पा सका जैसा डॉक्टर अंबेडकर ने सोचा था. महाराष्ट्र में आरपीआई के रामदास अठावले जैसे नेता भी कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की गोद में बैठकर दलित वोटों के बदौलत ही सत्ता का मजा ले रहे हैं. बिहार के रामविलास पासवान ने भी दलित वोटों के बदौलत पूरे जीवन तक सत्ता की मलाई काटी लेकिन उनके बेटे चिराग पासवान अपने पिता की राजनीतिक समझ को समझ पाने में चूक की तो बिहार के लोगों ने उन्हें उनकी औकात बता दी. 


जब हम दलितों के शैक्षणिक, सामाजिक और आर्थिक विकास की बात करते हैं तो सत्ता और राजनीति से अलग रह कर यह कदापि संभव नहीं है. कहना न होगा कि आजादी के बाद से ही उपेक्षा का दंश झेल रहे दलित समाज को उनकी राजनीतिक ताकत का एहसास कांशी राम ने कराया. इसका नतीजा रहा कि वे बीएसपी के बैनर तले एकत्र होना शुरू हुए जो 1991 तक एक ऐसी बड़ी ताकत के रूप में उभरे कि पिछड़ा वर्ग की रहुनमाई करने वाले मुलायम सिंह को बीएसपी के साथ गलबहियां को मजबूर होना पड़ा. आज हाल यह है कि जिस दलितों ने एकत्र होकर अपने रहनुमा को चार बार यूपी की सत्ता मुहैया करवाई,वह दलित समाज अपने इस रहनुमा से खुद को ठगा महसूस कर रहा है. असमंजस में दिख रहा वोटों के इस बड़े वर्ग पर भाजपा की नजर पड़ी तो उसने उनके लिए कुछ करके उन्हें अपना बनाने का प्रयास शुरू किया. दलित एक्ट में व्यापक सुधार फिर आरक्षण के जरिए गांव की सरकार में उन्हें उनके हक के मुताबिक भागीदारी पार्टी की सुनियोजित रणनीति का हिस्सा है. इस तरह हम कह सकते हैं कि समाज के हर वर्ग को अपनी ओर आकर्षित करने के प्रयास में जुटी भाजपा अब दलितों पर भी मेहरबान है.यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ की पंचायतों में आरक्षण के बहाने दलितों को बीजेपी की ओर मुखातिब होने की यह कोशिश दलित वोटों पर बीजेपी की भगवा दृष्टि के रूप में देखा जा रहा है। 
 

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