राजेंद्र तिवारी
विपक्षी गठबंधन इंडिया के बनने के बाद छह राज्यों की सात विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनावों के नतीजों कई स्पष्ट संकेत दिए हैं. ये संकेत भारतीय जनता पार्टी के लिए मुश्किलें बढ़ाने वाले माने जा सकते हैं. दूसरी तरफ, झारखंड में डुमरी के नतीजों ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की राज्य में हैसियत और बढ़ा दी है. इंडिया गठबंधन में भी इससे उनकी अहमियत और कद में इजाफा होना तय है.
शुक्रवार को झारखंड की डुमरी, उत्तर प्रदेश की घोसी, बंगाल की धूपगुड़ी, केरल की पुथुपल्ली, उत्तराखंड की बागेश्वर और त्रिपुरा की बोक्सानगर और धानपुर सीटों के नतीजे आए. इनमें से त्रिपुरा की दोनों सीटें और उत्तराखंड की बागेश्वर सीट भाजपा ने जीती. बाकी चार सीटें इंडिया के दलों- झामुमो, समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस ने जीतीं. इन सीटों पर विभिन्न पार्टियों के बीच मत विभाजन को देश के राजनीतिक मिजाज में आ रहे बदलाव के प्रमाण के तौर पर देखा जाना चाहिए. जब इन चुनावों के लिए प्रचार चल रहा था, उस दौरान सनातन, इंडिया बनाम भारत, परिवारवाद व भ्रष्टाचार, मणिपुर की हिंसा, नूह के दंगे, प्रधानमंत्री का स्वतंत्रता दिवस भाषण व जी-20 जैसे तमाम मसले चर्चा में थे. इन नतीजों को इन मसलों के परिप्रेक्ष्य में एक छोटे से रेफ्रेंडम के तौर पर भी देखा जा सकता है.
सबसे पहले बात करते हैं झारखंड की डुमरी विधानसभा क्षेत्र की. इस सीट पर इंडिया और एनडीए के बीच सीधा मुकाबला था. भाजपा और आजसू ने कोई भी कोशिश बाकी नहीं छोड़ी. एआईएमआईएम का उम्मीदवार भी मैदान में था. लेकिन झामुमो की बेबी देवी ने यह सीट जीत ली. पिछली बार अपने पति स्व. जगन्नाथ महतो को मिले वोटों के मुकाबले इस बार बेबी देवी को ज्यादा वोट मिले. मजलिस के उम्मीदवार के वोट पिछली दफा के मुकाबले काफी कम हो गए. २०१९ के चुनाव में झामुमो को ३७.८० फीसदी, आजसू को १९.६० फीसदी, भाजपा को १९.१० फीसदी और मजलिस को १२.८० फीसदी वोट मिले थे. इस बार मजलिस का वोट झामुमो की ओर मुड़ गया यानी मजलिस की मौजूदगी के बावजूद मुसलिम मतदाताओं ने इंडिया गठबंधन की ओर अपना पुख्ता रुझान दर्ज कराया. बाबूलाल मरांडी के भाजपा में आने के बाद भी आदिवासियों का भरोसा हेमंत सोरेन पर बढ़ता हुआ ही दिखाई दे रहा है.
उत्तर प्रदेश की घोसी सीट पर पूरे देश की नजरें थीं. पिछली बार समाजवादी पार्टी के टिकट पर जीते दारा सिंह चौहान के भाजपा में शामिल होने की वजह से यह सीट खाली हुई थी. दारा सिंह इस बार भाजपा के उम्मीदवार थे. मतदान के दौरान इस तरह की खबरें भी आईं कि अल्पसंख्यकों को वोट देने से रोकने की कथित कोशिशें भी कई मतदान केंद्रों पर हुईं. लेकिन समाजवादी पार्टी ने पिछली बार के मुकाबले ज्यादा बड़े मार्जिन से यह सीट जीत ली. बहुजन समाज पार्टी मैदान में नहीं थी. यह माना जाता रहा है कि बसपा के वोट का एक बड़ा हिस्सा भाजपा को जाता है. लेकिन इस चुनाव में ऐसा नहीं हुआ बल्कि बसपा के वोटों का एक हिस्सा सपा को भी जाता दिखाई दिया. संकेत साफ हैं कि पाला बदलने से वोटों का पाला नहीं बदल रहा. महाराष्ट्र में भी पिछले दिनों महा विकास अघाड़ी (राष्ट्रीय स्तर पर इंडिया) दलों, खासकर शिवसेना और एनसीपी में हुई भाजपा द्वारा तोड़फोड़ की गई कि इससे उनकी स्थिति राज्य में मजबूत हो जाएगी. लेकिन विभिन्न जनमत सर्वेक्षणों में निकल कर आया कि तोड़फोड़ के बाद अघाड़ी की स्थिति और मजबूत हो गई. यही चीज घोसी में भी दिखाई दी. सपा को वहां इस बार पिछली बार से करीब १५ फीसदी ज्यादा वोट मिले. यह इंडिया के प्रति मजबूत कंसालिडेशन का इशारा है.
हालांकि केरल में इंडिया के ही घटक दलों के बीच मुख्य मुकाबला है लेकिन फिर भी वहां से इंडिया के लिए सकारात्मक संकेत हैं. राज्य पुथुपल्ली सीट पर हुए उपचुनाव में भाजपा के वोटों में खासी कमी आई और वह २०११ में मिले वोटों से भी कम पर लुढ़क गई. और, यहां माकपा के मुकाबले में होने के बावजूद अल्पसंख्यकों और खासकर मुसलिमों का पुख्ता रुझान कांग्रेस की तरफ दिखाई दिया. यानी केरल से लेकर हिंदी हृदय प्रदेश तक यह रुझान राजनीतिक रूप से समीकरण बदलने वाला दिखाई दे रहा है.
बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने जलपाईगुड़ी की धूपगुड़ी सीट भाजपा से छीन ली. २०२१ में भाजपा ने यह सीट करीब ४००० वोटों से तृणमूल से छीनी थी. इस बार समीकरण बदल गया. लेकिन एक खास संकेत यहां से भी है और वह माकपा के वोटों का खिसक जाना. संकेत यह है कि बंगाल में चुनाव ममता बनर्जी और भाजपा के बीच ही होगा और कांग्रेस व माकपा इस बात को जितनी जल्दी समझ लेगी, भाजपा के मुश्किलें बढ़ जाएंगी.
उत्तराखंड की बागेश्वर सीट भले ही भाजपा ने फिर जीत ली, लेकिन नतीजों से निकलने वाले संकेत भाजपा के लिए अच्छे नहीं है - कांग्रेस का वोट प्रतिशत ही नहीं बल्कि वोट संख्या में भी जबरदस्त इजाफा हुआ है. जहां भाजपा पिछली दो दफा यहां २२ फीसदी और १६ फीसदी मतों से जीती थी, इस बार मार्जिन मात्र दो फीसदी रह गया. कांग्रेस को २०२२ में मात्र २७ फीसदी वोट मिले थे लेकिन इस बार उसे ४४ फीसदी से ज्यादा मत मिले हैं. त्रिपुरा की दो सीटों पर जरूर भाजपा ने अच्छी जीत दर्ज की है लेकिन इन सीटों में देश में चल राजनीतिक उथल-पुथल का प्रतिबिंब देखना बेईमानी होगी.
कुल मिलाकर, इन सात सीटों के नतीजे कहीं न कहीं यह बता रहे हैं कि हिंदुत्व की राजनीति सामाजिक न्याय की ताकतों के सामने फीकी पड़ने लगी है और नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान पर लाइन लंबी होती जा रही है.
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