औरतें राजनीति की मोहरें हैं, चेक नहीं .

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औरतें राजनीति की मोहरें हैं, चेक नहीं .

मनीषा तिवारी दत्ता 

यह एक प्रचलित तथ्य रहा है कि भारत के ऊतर पूर्वी राज्यों मे महिलाएँ पुरुषों की अपेक्षा अधिक स्वावलंबी हैं , परिवार मे उनका मान है और वो पुरुषों पर हावी रहती हैं लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि जब औरत की देह की बात हो तो पुरुष अपना घृणित पुरुषत्व भूल जाये, योद्धा अपनी जीत का पताका औरत को नग्न करके उसके शरीर पर न फहराये , और विजयी भाव का संतोष परिवार या समाज के निजी अंगो को भेदे बिना ही पा लिया जाये .  इस दुनिया मे, चाहे सभ्य हो या असभ्य, ऐसा कब नहीं हुआ है भला .  

वर्तमान सामाजिक, राजनीतिक व प्रशासनिक दृष्टि से देखा जाये तो मणिपुर मे औरतों को नग्न अवस्था मे परेड कराये जाने और भीड़ द्वारा उनके निजी अंगों के साथ खिलवाड़ करने की घटना प्रथमदृष्ट्या तो राजिनीतिक दाँवपेंच और  राज्य मे कानून व्यवस्था के तहस-नहस हो जाने का मामला लगता है .  थोड़ा और गहरे जाएँ तो यह घटना एक विशेष जाति और उसके लिंग के प्रति  नीच सोच का परिणाम स्वरूप घटित घटना प्रतीत होती है .  थोड़ा और गहरे जाकर विचारें तो तो यह कृत्य हमे यह सोचने पर मजबूर करता है कि आज भी औरतों की  देह को उनके परिवार और समाज की इज्जत, मान और सम्मान धोने वाला कैरियर ही समझा जा रहा है .  यदि औरत तथाकथित नीची जाति से है तो वो इस लायक भी नहीं . 


प्रश्न यह कि क्या बादल गया पिछले हज़ार वर्षों मे जब पांचाली को उनके पतियों ने ही चौसड़ के दाँव पर लगा दिया था , जब एक स्त्री को अपने स्तन ढँकने के एवज़ मे स्तन कटवाने पड़े थे, या फिर एक तथाकथित निम्न जाति व गरीब परिवार की बालिका को देवदासी के रूप मे चुन लिया जाता था .  कल भी देवी  देवताओं, धर्म जाति की आड़ मे औरतों पर तथाकथित सामाजिक एवं नैतिक जिम्मेदारियों को उनके कर्तव्य और परिवार समाज की इज्ज़त के रूप मे थोपा जा रहा था और आज भी हम उसी समाज के बीच खड़े हैं जहाँ जाति, वर्ण, संप्रदाय की लड़ाई मे एक औरत की देह पर वर्चस्व दिखा कर हम अपने विरोधी की इज्ज़त पर धावा बोलने का हुंकार भरते हैं .   


वह देश जहाँ एक औरत को किसी पुरुष द्वारा उसकी मर्जी के बगैर देखने / घूरने भर से लैंगिक शोषण का अपराध कारित किया जाना माना जाता है एवं कानून मे इस हेतु ऐसे अपराधी के लिए कठिन सजा का प्रावधान रखा गया है , वहाँ मणिपुर मे घटी यौन हिंसा की घटना हमे यह सोचने पर मजबूर करती है कि हम वापस उसी युग मे पहुँच गए हैं जहाँ से चले थे .  आज देश अपनी औरतों के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और भावनात्मक अधिकारों को सुरक्षित रखने के अंतर्राष्ट्रीय समझौतों पर क्या ही कर पाएगा जब वह एक औरत को उसकी अपनी ही “देह पर अधिकार” जैसे मूलभूत अधिकार के अनुभव से वंचित देख रहा है .  


हम अपने देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था की चुनी हुई सरकारों से यह पुछने का अधिकार तो रखते हैं कि क्या कारण है कि देशभर महिला हिंसा की जघन्य घटनाओं को यह सरकारें रोकने मे असफल रही हैं ? अमूमन सभी मामलों मे यही तथ्य सामने आता है कि घटना की सूचना को संबन्धित एजेंसी ने गंभीरता से नहीं लिया और मौके पर कार्यवाही सुनिश्चित नहीं किए जाने के कारण पीड़ित को दोहरी प्रताड़णा का शिकार होना पड़ा .  ऐसा क्यों है कि, करोड़ो अरबों रुपयों से आपके ही मंत्रियों और नौकरशाहों द्वारा तैयार महिला सशक्तिकरण की योजना ऐसे गंभीर प्रकरण को चिन्हित करने एवं समय पर कार्यवाही करने मे फेल हो जाया करतीं हैं ?  दुख की बात है कि अब तक देश की सरकारों ने महिला हिंसा की घटनाओं की रेपोर्टिंग और उनपर समयबद्ध कार्यवाही सुनिश्चित करने के उद्येश्य से जितनी भी योजनाएँ संचालित की सभी के संचालन को लेकर सरकारों मे ही इक्षाशक्ति की कमी रही .   


वर्ष 2012 मे तत्कालीन भारत सरकार महिला सशक्तिकरण  के तहत अपनी प्रमुख योजनाएँ लेकर आयी जिसका उद्येश्य महिला हिंसा की घटनाओं पर पीड़िता के लिए न्याय प्राप्ति की दिशा मे मदद मुहैया कराने के साथ-साथ जरूरतमन्द महिलाओं को कल्याणकारी योजनाओं मे पंजीकृत करना और उनके आवेदनो की निगरानी करना था .  परंतु आगे चलकर योजना गाइडलाईन के अनुसार सहायता प्रणाली विकसित करने मे असफल रही और जिसके अभाव मे इस योजना को बंद कर दिया गया .  


वर्ष 2012 मे घटित निर्भया की वीभत्स घटना के पश्चात गठित न्यायमूर्ति वर्मा समिति की सिफ़ारिशों को अमल मे लाते हुए तत्कालीन भारत सरकार ने नागरिक समाजों के परामर्श से हिंसा प्रभावित महिलाओं को एकीकृत सहायता प्रदान करने के लिए सार्वभौमिक महिला हेल्पलाइन (24 घंटे सातों दिन संचालित महिलाओं के रेफेरल नहीं बल्कि प्रतिनिधित्व हेतु) और सखी वन स्टॉप सेंटर (महिलाओं की शिकायत का प्रतिनिधित्व आपराधिक न्याय प्रणाली तक सुनिश्चित करने के लिए एक भौतिक सुविधा) के नाम से दो वृहद योजनाओं का अत्यंत आधुनिक और अभिनव डिज़ाइन तैयार किया  .  इन समेकित योजना को आठ विशेष अभिनव गुणो के साथ तैयार किया गया था .  यह योजना महिला (शिकायतकर्ता) के रेफेरल की बात नहीं करती थी बल्कि महिला के प्रतिनिधित्व की बात करती थी .   इस योजना को डिज़ाइन ही इस प्रकार से किया गया था कि यह दर्ज शिकायत पर किसी भी प्रकार के फेरबदल का मौका नहीं देता था एवं साथ ही शिकायत से संबन्धित सभी एजेंसियों एवं स्टेकहोल्डरों द्वारा किए जा रहे कार्य का “रियल टाइम डाटा संधारण” करता था  .  इस योजना के डिज़ाइन मे सभी स्टेकहोल्डर्स के बीच तकनीकी इंटिग्रेशन की बात थी ताकि सभी संबन्धित स्टेकहोडर्स समेकित रूप से एक केस फ़ाइल के साथ पीड़िता के साथ जुड़े रहे और संबन्धित नियम व कानून के अंतर्गत अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वहन करते रहे .  इस डिज़ाइन मे मुख्यतः “रिमोट मोनिटरिंग” की बात भी थी, जिसके अंतर्गत केस /शिकायत  मे संबन्धित स्टेकहोल्डर्स द्वारा आवश्यक कार्यवाही न किए जाने पर अथवा कार्यवाही मे विलंब होने पर मौके पर इस हेतु सबंधित स्टेकहोल्डर को ताकीद करते हुए उन्हे संबन्धित नियम व कानून के अनुरूप कार्यवाही हेतु स्मरण कराया जा सके .   तत्पश्चात इस डिज़ाइन मे प्रत्येक केस फ़ाइल और कम्प्लेंट को देश के सबसे वृहद कानूनी फ्रेमवर्क “राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण “ और इसके राज्य, जिले व ताल्लुक स्तर के कार्यालयों  से तकनीकी रूप से जोड़े जाने की भी बात थी ताकि जरूरत पड़ने पर पीड़िता को पृथक से कानून का दरवाजा खटखटाना न पड़े बल्कि पीड़िता की सहमति से उसकी शिकायत को इसी रास्ते न्याय प्राप्ति के अंतिम चरम दरवाजे तक सरलता से पहुंचाया जा सके और महिला निः शुल्क विधिक सेवा का लाभ दिलवाया जा सके .   इस योजना के संचालन की ज़िम्मेदारी किसी विशेसज्ञ बाह्य संस्था को सौंपा जाना था जबकि अनुश्रवण की ज़िम्मेदारी सरकार की थी .  यह योजना महिला हिंसा के विरूद्ध न्याय प्राप्ति की दिशा मे किए गए प्रयास मे “मील का पत्थर” के तौर देखी जा रही थी  . 


दुर्भाग्यवश यह योजना देशभर मे लागू करवा पाने मे भारत सरकार पुनः असफल रही .  उससे भी अधिक दुखद यह रहा कि जिन राज्यों (छत्तीसगढ़, असम, मेघालय, जम्मू-कश्मीर) मे योजना गाइडलाइन के अनुसार यह योजना संचालित की जा रही थी, वहाँ के नौकरशाह इस अति पारदर्शी, नियमबद्ध, त्वरित मॉनिटरिंग व्यवस्था से घबराने लगे थे .  फलस्वरूप उन्होने अपने-अपने स्तर पर इस योजना/व्यवस्था का विरोध करना शुरू कर दिया .   नौकरशाह आश्चर्य मे थे कि यह कैसी व्यवस्था है जिसमे एक पीड़ित महिला अथवा उनके प्रतिनिधि (योजना के अंतर्गत कार्यरत टीम) सीधे तौर पर दर्ज कम्प्लेंट पर की गयी कार्यवाही के बाबत उनसे पूछ-ताछ करती है और प्राप्त जवाब स्वतः रियल टाइम डाटा सिस्टम (वॉइस रेकॉर्ड व लिखित दस्तावेज़ सहित) पर संधारित हो जाता है .   इसका परिणाम यह हुआ कि एक ओर जहां 2017 से ही भारत सरकार ने योजना के संचालन के समेकित प्रयास मे कमी और तकनीकी कमी का ऐलान करते हुए योजना को पुनः पारंपरिक कॉल सेंटर मे बदल दिया वहीं दूसरी ओर छत्तीसगढ़, असम, मेघालय, एवं जम्मू एवं कश्मीर की सरकारो ने भारत सरकार को यह बताना भी आवश्यक नहीं समझा कि उनके राज्य मे यह योजना वर्ष 2012 के तत्कालीन भारत शासन द्वारा तैयार योजना दिशानिर्देश के अनुसार एकीकृत और अति परिष्कृत आधुनिक  तकनीक के साथ चल रही है और यह भी कि उनके राज्यों मे यह योजना पीड़िता /महिलाओं की मुखर आवाज बनकर सामने आयी है और समाज के एक बहुत बड़े वर्ग मे सुरक्षा और संतोष का भाव भरने मे मील का पत्थर साबित हुई है  .  


वर्ष 2017 से वर्ष 2022 तक भारत सरकार एवं नीति आयोग ने वर्ष 2012 की तत्कालीन भारत शासन द्वारा लायी गयी 181 महिला हेल्पलाइन और सखी वन स्टॉप सेंटर की एकीकृत इकाई की इस क्रांतिकारी योजना को यह कहते हुए कि, इस योजना के संचालन, अनुश्रवण, दस्तावेजीकरण और वित्तीय समायोजन मे समस्याएँ रही,  इसे पूरी तरह से मटियामेट कर दिया गया और योजना की सभी अभिनव, आधुनिक संरचना को खत्म कर पुनः पुराने घिसे-पिटे पारंपरिक डिज़ाइन मे तैयार कर “मिशन शक्ति” के नाम से आयी नयी फैशनेबल योजना पुनः नौकरशाहों के हाथ संचालन के लिए सौंप दी गयी है  .  अब संचालन भी सरकारी नौकरशाह करेंगे और संचालन का अनुश्रवण , मूल्यांकन भी नौकरशाह स्वयं ही करेंगे .  


कुल मिलाकर सच्चाई  यही है कि औरतें आज भी शतरंज रूपी राजनीति की मोहरे हैं, चेक नहीं .  सरकारे किसी की भी हों, महिलाओं के सम्मान की बहाली की ईक्षाशक्ति किसी भी सरकार के पास नहीं है  .   बहुत सम्म्भव है कि कल ऐसी ही घटना किसी अन्य राज्य मे घटित हो जाये .  क्या करेगी एक औरत, एक महिला, एक पीड़िता यदि देश ने इन्हे अपनी शिकायत रखने और उसपर सवाल करने की सामान्य भौतिक व्यवस्था ही नहीं दी .  ये बात दीगर है कि हमने कानून की किताबों मे बड़े बड़े कानून छाप दिये परंतु उनके क्रियान्वयन के लिए इतने सारे विंडो तैयार कर दिये कि एक शिकायतकर्ता अपनी पूरी जिंदगी एक विंडो से दूसरे विंडो पर चक्कर लगाते रहे, और जिसकी ज़िम्मेदारी अंत तक कोई न ले .  यदि केंद्र मे बैठी श्रीमती स्मृति ईरानी ने और वर्तमान भारत शासन द्वारा पोषित संस्थाओं और व्यवस्थाओं ने मणिपुर की महिलाओं को नहीं सुना तो यह कहना भी गलत नहीं होगा कि अन्य राज्य की सरकारें भी अपने- अपने राज्यों मे महिला की सुरक्षा और उनके सवालों पर मौन रहने का ही विकल्प चुना है .   


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