जेपी आंदोलन के 'संत' ने हड़प लिया गांधी संस्थान !

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जेपी आंदोलन के 'संत' ने हड़प लिया गांधी संस्थान !


अरुण कुमार त्रिपाठी

आजकल बनारस के गांधी वाले फिल्म `तीसरी कसम’ को बहुत याद कर रहे हैं. फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी `मारे गए गुलफाम उर्फ तीसरी कसम’ पर केंद्रित निर्माता शैलेंद्र और निदेशक बासु भट्टाचार्य की इस फिल्म में नायक हिरामन (राजकपूर) तीन कसमें खाता है. एक तो बैलगाड़ी पर चोरबजारी का माल नहीं लादेंगे. दूसरी कसम यह कि बांस नहीं लादेंगे चाहे कोई पचास रुपए भी दे. तीसरी कसम यह कि कंपनी की किसी औरत की लदनी नहीं करेंगे. इसी तर्ज पर बनारस के गांधी जन चार कसमें खा रहे हैं. एक यह कि किसी संघी संत पर यकीन नहीं करेंगे. दूसरी आपस में अब लड़ेंगे नहीं. तीसरी संघियों से आजीवन लड़ेंगे और चौथी अब भांग पीकर सांसद नहीं चुनेंगे. स्वतंत्रता आंदोलन की बयालीस की अगस्त क्रांति और 1974 में बिहार में छिड़ी संपूर्ण क्रांति के नायक जिन्हें प्यार से लोकनायक कहा जाता है, उन जयप्रकाश नारायण के सुंदर सपनों से बने गांधी विद्या संस्थान को इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र(आईजीएनसीए) ने हड़प लिया है. गांधी विद्या संस्थान सन 2007 से बंद था और उसका विवाद न्यायालय में था. लेकिन गांधी-जेपी की नैतिकता और न्यायालय की गरिमा का लिहाज किए बिना स्थानीय प्रशासन ने गांधी वालों को डराते धमकाते हुए संस्थान का ताला तोड़ दिया और उसे हथिया कर आईजीएनसीए को सौंप दिया. इस बीच वहां रखी जेपी की स्मृतियों को मिटा दिया गया. इस सिलसिले में आंदोलन कर रहे गांधी जन जब 18 जून को आईजीएनसीए के अध्यक्ष राम बहादुर राय से दिल्ली में मिले तो उनका जवाब सुनकर फिर बनारसियों को डॉन फिल्म का वह गाना याद आया कि ---- मीठी छुरी से हुआ हलाल, छोरा गंगा किनारे वाला. मिलने वालों में बनारस राजघाट के गांधी आश्रम के प्रभारी और उत्तर प्रदेश सर्वसेवा संघ के अध्यक्ष रामधीरज, प्रसिद्ध समाजशास्त्री और समाजवादी विचारक प्रोफेसर आनंद कुमार, गांधी दर्शन और स्मृति की पूर्व अध्यक्ष मणिमाला और दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज के प्रोफेसर शशि शेखर सिंह व अन्य लोग शामिल थे. वे सब रामबहादुर राय के मित्र भी रहे हैं. राम बहादुर राय विद्यार्थी परिषद के पदाधिकारी के नाते जेपी आंदोलन में सक्रिय थे. वे संघ के काम के लिए पूर्वोत्तर में रहे और फिर एक पत्रकार के नाते नवभारत टाइम्स और जनसत्ता में उन्होंने लंबी पारी खेली है. इतने पुराने अनुभवों के कारण वे बहुत सारे लोगों से परिचित हैं और संघ से लेकर गांधीवादी संस्थाओं की आंतरिक राजनीति को भी जानते हैं. इसीलिए गांधीवादी व्यक्तियों और संस्थाओं के संघीकरण के लिए वे सबसे उपयुक्त व्यक्ति हैं. बातचीत ढाई घंटे तक बड़े सौहार्द पूर्ण माहौल में हुई. लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला. राम बहादुर राय का जवाब उस इरादे को व्यक्त कर रहा था जो संघियों ने संत का चोला पहन कर गांधी विचारों और संस्थाओं के साथ करने की ठानी है. राम बहादुर राय ने कहा कि हमारी इसमें कोई रुचि नहीं थी. लेकिन बनारस में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र का कार्यालय किराए पर चल रहा था इसलिए हमने कमिश्नर से किसी भवन या स्थान के लिए अनुरोध किया था. तो उनका कहना था कि राजघाट पर ऐसी जगह है, आप उसे ले सकते हैं. इस पर राय साहब ने राय दी कि अच्छी बात है जेपी से हमारा जुड़ाव रहा है क्यों न उसे लेकर हम एक अच्छा संस्थान बना डालें. लेकिन उनका कहना था कि प्रशासन ने गांधीवालों के साथ क्या दुर्व्यवहार किया इसकी उन्हें कोई जानकारी नहीं है. फिर वे बोले कि हालांकि ब्यूरोक्रेसी ऐसा करती ही है इसमें नई बात क्या है. जब बात ज्यादा दूर तक निकली तो उन्होंने माना कि एक पत्र उन्होंने बनारस के क्षेत्रीय निदेशक के माध्यम से कमिश्नर को भेजा था कि उस भवन पर उन्हें तीस साल के लिए नियंत्रण चाहिए. इसके अलावा उनका कहना था कि उत्तर प्रदेश उसके लिए विशेष अनुदान की व्यवस्था करे(हालांकि केंद्र सरकार के संस्थान के लिए उप्र का ऐसा करना अनुचित है). बातचीत के दौरान जब मणिमाला ने कहा कि यह सब तो ठीक है राय साहेब, लेकिन क्या इस काम के लिए आप किसी की जमीन और घर पर कब्जा कर लेंगे. इस पर वे खामोश रहे. गांधी जन उनसे आधी अधूरी उम्मीद लेकर गए थे और वे उन्हें उसी ऊब चूब में झुलाते रहे. एक बार तो उन्होंने कहा कि आप लोग पहले क्यों नहीं आए. रामधीरज पहले आ जाते तो बात इतनी आगे न बढ़ती. फिर वे कहते थे कि अरे हमें तो कोई जानकारी नहीं थी. फिर बोले कि आईजीएनसीए के सदस्य सचिव मेरे पास जब फाइल लेकर आए तो मैंने कहा कि इस पर विचार करने दो वहां बहुत सारे मित्र हैं. लेकिन जब ऊपर से दबाव पड़ा तो दूसरे दिन दस्तखत कर दिया. बताया जाता है कि यह दबाव एक केंद्रीय मंत्री का है. इसी सिलसिले में बिहार के एक प्रमुख गांधीवादी और पूर्व सांसद और कुलपति की ओर से बनारस के कमिश्नर को लिखी गई चिट्ठी भी महत्त्वपूर्ण है. वे गांधी विद्या संस्थान के ट्रस्टी थे और कहा जाता है कि उन्होंने कमिश्नर को संस्थान के अधिग्रहण की अनुमति दी है. राम बहादुर राय से मिलने गए प्रतिनिधि मंडल ने उनके सामने तीन मांगें रखीं. एक तो सर्व सेवा संघ की क्रयशुदा भूमि पर काशी कॉरीडोर के लिए 2 दिसंबर 2020 को जिला प्रशासन ने कब्जा किया है उसे हटवाया जाए. दूसरी मांग यह है कि 15 मई 2023 को गांधी विद्या संस्थान के भवनों पर आयुक्त ने अवैध कब्जा करके उसे इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र को दिया है उसे हटवाया जाए. तीसरी बात यह है कि रेलवे ने सर्व सेवा संघ की खरीदी हुई जमीन पर कूट रचित आपराधिक कृत्य का आरोप लगाया है. यह अपने में पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री, तत्कालीन रेल मंत्री जगजीवन राम और देश के प्रथम राष्ट्रपति बाबू राजेंद्र प्रसाद जैसे लोगों का अपमान है. ऐसे लांछन को तुरंत वापस लिया जाए. सर्व सेवा संघ ने इन तीन मांगों के बारे में राष्ट्रपति को ज्ञापन भी दिया है. वही ज्ञापन उन्होंने राय साहेब को भी दिया. राय साहब के पुराने मित्रों यानी जेपी आंदोलन के साथियों को उम्मीद थी वे कोई ठोस आश्वासन देंगे और गांधी-जेपी की विरासत को इस तरह हड़पे जाने के खिलाफ उसी तरह खड़े होंगे जैसे कभी इंदिरा गांधी के आपातकाल के विरुद्ध खड़े हुए थे. लेकिन गांधीजन भी उसी तरह छले गए जिस तरह जेपी संघ वालों से छले गए थे. लगभग सरकारी `संत’ बन चुके राम बहादुर राय ने अपनी मजबूरी जताते हुए कहा कि बात बहुत आगे बढ़ गई है. अब लौटना मुश्किल है. दरअसल महात्मा गांधी की सत्य, अहिंसा और नैतिकता की महान विरासत को हड़प कर उसे झूठ, हिंसा और अनैतिकता में बदल देने की संघ परिवार की वृहत्त योजना है. राम बहादुर राय उस योजना को लागू करने वाले एक कमांडर हैं और बनारस के राजघाट की यह घटना उसका एक सामान्य सा प्रयोग है. हाल में गोरखपुर के गीता प्रेस को एक करोड़ रुपए का 2021 गांधी शांति पुरस्कार जिस प्रकार दिया गया वह उसका एक नमूना है. इस पुरस्कार की जूरी में शामिल लोकसभा में विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौधरी का कहना है कि निर्णय प्रक्रिया में उन्हें शामिल ही नहीं किया गया. गीता प्रेस गोरखपुर के संचालकों को गांधी हत्या के सिलसिले में जेल हुई थी और आरंभ में गांधी से प्रेरणा पाने वाले हनुमान प्रसाद पोद्दार ने गांधी के अछूतोद्धार और मंदिर में हरिजनों के प्रवेश और उनके साथ आयोजित होने वाले सहभोज का कड़ा विरोध किया था. गांधी हत्या के बाद बनी स्थितियों में गांधी जी के निकट सहयोगी घनश्याम दास बिड़ला ने गीता प्रेस वालों को सहयोग देना बंद कर दिया था. साबरमती के गांधी आश्रम को हड़पना और सेवाग्राम(वर्धा) के गांधी आश्रम के स्वाभाविक प्राकृतिक वास्तुशिल्प को नष्ट करके कंकरीट और पत्थरों सुशोभित करना यह उसी योजना का हिस्सा है. उसका कई संवेदनशील गांधीजनों ने विरोध किया था लेकिन वहीं के लोगों में फूट डालकर सरकार इस काम को अंजाम दे रही है. विडंबना देखिए कि यह सब काम आजादी के अमृत महोत्सव के मौके पर हो रहा है. सर्व सेवा संघ गांधी विचार का राष्ट्रीय शीर्ष संगठन है. इसकी स्थापना 1948 में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में संपन्न सम्मेलन में हुई थी. इस सम्मेलन में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू, आचार्य कृपलानी, आचार्य विनोबा भावे, मौलाना अबुल कलाम आजाद, जयप्रकाश नारायण, जेसी कुमारप्पा और अन्य नेता शामिल थे. इसी संस्था को 1960 में जयप्रकाश नारायण ने गांधी विचार के अध्ययन एवं शोध के लिए एक राष्ट्रीय संस्थान की स्थापना का सुझाव दिया. उसे मानते हुए सर्व सेवा संघ ने अपनी जमीन पर राजघाट वाराणसी में `द गांधीयन इंस्टीट्यूट आफ स्टडीज(गांधी विद्या संस्थान) की स्थापना की. इस काम के लिए सर्व सेवा संघ ने अपनी क्रयशुदा जमीन उपलब्ध कराई और भवनों का निर्माण उप्र गांधी स्मारक निधि ने किया. सर्व सेवा संघ की एक रजिस्टर्ड लीज डीड भी है जिसमें कहा गया है कि किन्हीं कारणों से गांधी विद्या संस्थान बंद हो जाता है तो जमीन स्वतः सर्व सेवा संघ के पास वापस चली जाएगी. इस केंद्र का उद्घाटन स्वयं पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने 1964 में किया था. इस स्थान पर जिन महान संतों(नकली नहीं) ने अध्ययन मनन किया उनमें आचार्य विनोबा भावे, लोकनायक जयप्रकाश नारायण उनकी पत्नी प्रभावती, अच्युत पटवर्धन, नारायण देसाई, विमला ठकार, निर्मला देशपांडे, कृष्णराज मेहता, शंकर राव देव, आचार्य राममूर्ति और अमरनाथ भाई जैसी महान हस्तियां शामिल हैं. विश्व विख्यात अर्थशास्त्री प्रोफेसर ई.एफ शुमाखर ने यहीं रह कर `स्माल इज ब्यूटीफुल’ (Small is Beautiful ) जैसी किताब लिखी थी. गांधी की विरासत और विचार भूमि को इस तरह हड़पने और उस पर संघ के हिंदुत्ववादी विचारों की खेती करने को लालायित मौजूदा निजाम और उसमें शामिल राजनीतिक और सांस्कृतिक संगठनों की नीयत तभी प्रकट हो गई थी जब अटल बिहारी वाजपेयी भारत के प्रधानमंत्री थे. उस समय डा मुरली मनोहर जोशी देश के मानव संसाधन विकास मंत्री और बनारस के सांसद थे. संस्थान को आईसीएसएसआर से अनुदान मिलता था, उसे बंद करवा दिया गया. जब गांधीजन उनसे मिले तो उनका कहना था कि इसका प्रशासन हमारे हाथ में दीजिए और शोध वह होगा जो हम कहेंगे, तभी अनुदान मिलेगा. यह शर्त गांधी जनों को मंजूर नहीं थी. इसलिए संस्थान लड़खड़ाने लगा और उसे पूरी तरह हड़प लेने की परिणति तब हुई जब आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बनारस के सांसद हैं. राजघाट परिसर के प्रभारी रामधीरज बताते हैं कि उस परिसर में जेपी रहते थे, उनकी पत्नी प्रभावती रहती थीं. वहां उनकी स्मृतियां थीं. ताला तोड़े जाने के बाद उनके सारे सामान गायब हैं. भला जेपी आंदोलन से अपने को जोड़ने वाले कैसे ऐसा काम कर सकते हैं? मुझे हैरानी है. विनोबा और जेपी पर फर्जीवाड़ा करने का आरोप है. यह घोर निंदनीय है. दिल्ली स्थित गांधी स्मारक निधि के अध्यक्ष राम चंद्र राही कहते हैं कि यह सिर्फ एक गांधी संस्थान की जमीन हड़पने की घटना नहीं है. यह अहिंसा के विचार के आधार पर एक सभ्यता का सपना देखने वालों को हराकर हिंसा के पुराने विचार को स्थापित करने की योजना है. लोकतंत्र का अपहरण हो गया है. राजघाट की घटना तो एक बानगी है. हम इसके लिए लड़ेंगे और कोशिश करेंगे कि मौजूदा सरकार 2024 में वापस न आए. हम देश को फासीवाद की ओर नहीं जाने देंगे. उसके लिए जो भी कीमत चुकानी है चुकाएंगे. हम लोकशक्ति को जगाएंगे और राजनीतिक दलों का साथ भी लेंगे. बनारस से जुड़े प्रोफेसर आनंद कुमार कहते हैं कि बनारस के लोग भांग पीते हैं और कभी कभी भांग के नशे में फैसला ले लेते हैं. 2014 और 2019 में वे ऐसा कर चुके हैं. कोशिश होगी कि 2024 में वे वैसा न करें और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बनारस में करारी हार दिलवाएं. वे यह भी सवाल करते हैं कि भला कला की एक संस्था इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र कैसे समाज विज्ञान की संस्था गांधी विद्या संस्थान पर डकैती डालकर उसे अपना बना सकती है. यह संस्थान समाज विज्ञान और सामाजिक आंदोलनों के बीच एक सेतु रहा है. इसने दंगों के इतिहास और उसकी प्रकृति पर काम किया है. लेकिन हम इस संस्थान को बंद नहीं होने देंगे और उसे अभी तो आनलाइन चलाएंगे. गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशांत ने कहा कि यह गांधी संस्थाओं को बंद करने की बड़ी साजिश का हिस्सा है. गुजरात के अहमदाबाद में वैसा हुआ. वे असहमति की किसी आवाज को चाहते नहीं हैं. यह संघर्ष 2024 तक जाएगा. उसके पहले उन्हें सद्बुद्धि आ जाए तो अच्छा है. लेकिन असली सवाल यह है कि क्या जेपी, विनोबा, लोहिया के विचार खेमों में बंटे हुए गांधीजन एक होकर लड़ पाएंगे? इस पर उस समय कुछ संदेह होता है जब उनमें इस बात पर तकरार हो जाती है कि बैनर पर लोहिया का फोटो क्यों नहीं है और विनोबा का क्यों है? जबकि विनोबा ने इमरजंसी को राष्ट्रीय पर्व कहा था. और लोहिया की सप्तक्रांति और जेपी की संपूर्ण क्रांति तो एक ही है. यह बात जेपी ने स्वयं कही थी. आज गांधी के पीछे चलने वाली सर्वधर्म समभाव की पूरी विरासत इस आंदोलन में जुट रही है लेकिन बीच बीच में यह स्वर भी उठते हैं कि बैनर पर आंबेडकर, फुले, नेहरू, भगत सिंह और लोहिया जैसे सभी महापुरुषों का चित्र क्यों नहीं है? क्यों कुछ खास ही लोगों के चित्र हैं. इसको लेकर काफी खींचतान होती है. ऐसे लोग एक ओर गांधी और आंबेडकर के बीच में समान विंदु ढूंढते हैं तो दूसरी ओर लोहिया और विनोबा के बीच खाई खोदते हैं. यह भी सवाल उठता है कि राम बहादुर राय तो अपने मित्र हैं उनसे संबंध नहीं बिगाड़ना है. ऐसे लोग गांधी वाले संत और संघ वाले संत का भेद करने में असमर्थ लगते हैं. या फिर चाहते हैं कि मुट्ठी भी तनी रहे और कांख भी ढकी रहे. ऐसी लड़ाई लड़ी जाए कि राय साहब नाराज भी न हों और गांधी विद्या संस्थान भी मिल जाए. यह दुविधा आंदोलनकारियों में दिखती है. हालांकि इस आंदोलन का नेतृत्व प्रोफेसर आनंद कुमार, रामचंद्र राही, कुमार प्रशांत और रामधीरज जैसे तपे तपाए और समझदार लोगों के हाथ में है. इसलिए उम्मीद है कि वे आपसी मतभेद भुलाकर लोकतंत्र की बड़ी लड़ाई के लिए गांधीजनों को एकजुट कर पाएंगे. लेकिन उससे पहले बनारस के ठगों को पहचानना होगा. नकली संतों को बेनकाब करना होगा और यह कसम खानी होगी कि संघ के विचारों से लंबी लड़ाई है कोई ढिलाई खतरनाक होगी. बनारस के लोग भांग पीकर काम नहीं करेंगे. काशी के साथ 2014 के बाद से चल रहे नए किस्म के छल पर केंद्रित प्रोफेसर दिनेश कुशवाहा की कविता बड़ी मौजूं है. वे लिखते हैः— काशी आया नया जुलाहा, कबिरा को गरियाता, तेजी जय हो भारतमाता, शूट बूट में घूम रहा है सूत न एको काता, तेरी जय हो भारतमाता कभी गाय गाय, कभी चाय चाय , कभी आंय बांय कभी सांय सांय करता है वह मदमाता, तेरी जय हो भारत माता. .......................... बनारस के बहाने शुरू हुई यह लड़ाई अगर नकली संतों, नकली जुलाहों और हिंसक विचार में यकीन करने वालों को हराकर अहिंसक सभ्यता की स्थापना में सहायक हो तो देश और दुनिया का भला होगा. साभार-सत्य हिंदी

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