डा रवि यादव
कर्नाटक विधान सभा चुनाव में 135 सीट जीतकर कांग्रेस ने शानदार सफलता प्राप्त की है. भाजपा को 66 और पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा की जनता दल सेल्यूलर को 19 सीट से संतोष करना पड़ा है . चुनाव परिणाम से कांग्रेसी ही नहीं बल्कि सभी ग़ैर भाजपा समर्थक उत्साहित है वहीं ग़ैर भाजपा ग़ैर कांग्रेस राजनीतिक दलों ने भी सकारात्मक और उत्साहजनक प्रतिक्रिया दी है . तो तमाम राजनीतिक विशेषज्ञ और पत्रकार चुनाव परिणाम का लोकसभा चुनाव 2024 के सन्दर्भ में विश्लेषण कर रहे है. इन विश्लेषणों में एक यह है कि कर्नाटक में मुसलमानों ने एकतरफ़ा कांग्रेस को वोट दिया इसलिए कांग्रेस इतना अच्छा प्रदर्शन करने में सफल रही और इसलिए देश भर में और विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में मुसलमानों को कांग्रेस को वोट देना चाहिए भले ही कांग्रेस चुनाव जीते या हारे , तभी भाजपा को हराया जा सकता है . तमाम समाजवादी अम्बेडकरवादी और गांधीवादी चोला पहने वरिष्ठ पत्रकार की उपाधि रखने वाले पत्रकार और बुद्धिजीवी इस धारणा को बनाते हुए फ़ेसबुक, ट्वीटर , राष्ट्रीय मीडिया और यूट्यूब मीडिया पर देखे जा रहे है . यह शोध का विषय है कि भाजपा के राज्यसभा सांसद माननीय लक्ष्मीकांत वाजपेई के विचारों से ये लोग प्रेरित है या वाजपेई जी इनके विचारों से प्रेरित हो कांग्रेस का भला सोचने लगे है क्योंकि लक्ष्मी कांत वाजपेई जी ने भी समान विचार व्यक्त किए है.
पत्रकार और विश्लेषक चाहे कितना भी निष्पक्ष होने का दावा करें किंतु सामाजिक आर्थिक पृष्ठ भूमि और विचारधारा का झुकाव विश्लेषण को प्रभावित करता ही है.. निष्पक्षता एक सकारात्मक धारणा है जैसा कि मुंशी प्रेम चंद के पंचपरमेश्वर में हम सभी ने पढ़ा है . हम लोकतांत्रिक देश में रहते है किसी भी तथ्य की व्याख्या जब तक तथ्यों से छेडछाड किए बगैर तार्किक है तो आपत्ति रहित कहा जा सकता है. लोकतांत्रिक मूल्यों के बग़ैर की गई व्याख्या धूर्तता की श्रेणी में न भी हो तो भी तटस्थता की श्रेणी में गिनी जाएगी और तब जैसा कि दिनकर ने लिखा है -
समर शेष है ,नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ है समय लिखेगा उसका भी अपराध
किंतु तथ्यों से छेड़छाड धूर्तता की निशानी है. हमारी समस्या शायद वह है जिसे बाबा साहब अम्बेडकर ने जातिप्रथा उन्मूलन में लिखा है कि हिन्दुओं की नीति और आचार व्यवहार पर जाति प्रथा का प्रभाव अत्यधिक सोचनीय है. जाति प्रथा ने जन चेतना को नष्ट कर दिया है. जाति प्रथा के कारण किसी भी विषय पर सार्वजनिक सहमति का होना असंभव है . हिन्दुओं के लिए उनकी जाति ही जनता है उनका उत्तरदायित्व अपनी जाति तक ही सीमित है . गुणों का आधार भी जाति ही है और नैतिकता का आधार भी जाति ही है . अगर कोई व्यक्ति सही है और उनकी जाति का नहीं है तो सहानुभूति नहीं होती है, इसके विपरीत कोई ग़लत भी है लेकिन उनकी जाति का है तो उसका साथ देते है . सामान्य जनजीवन में बाबा साहब के विचारों को सत्यता की कसौटी पर आज भी खरा पाते है . जंतर मंतर पर योंन उत्पीड़न की शिकायत लिए धरने पर बैठी लड़कियों की जाति के नाम पर समाज के विभाजन को देखा जा सकता है..
कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के जो भी तर्क हैं वे पार्टी लाइन के लिहाज़ से ठीक ही है , प्रगतिशील उदारवादी चोले में बंच आँफ थाँट के प्रति आस्थावान बुद्धि जीवियों को भी कुछ कहना ठीक नहीं लेकिन आश्चर्य होता है उन वास्तविक प्रगतिशील लोकतन्त्र प्रेमी और राजनीति की अच्छी जानकारी रखने वालों पर कि वे क्यों और किस तरह संघी नैरटिव का शिकार हो रहे है . पिछले एक सप्ताह में मैंने ऐसे तीन वरिष्ठ पत्रकारों को सुना जिनकी नीयत पर कम से कम मैं संदेह नहीं रखता - उनका तर्क था कि यूपी में ख़राब क़ानून व्यवस्था , कोरोना कुप्रबंध्स्न और आज़म खान सहित अनेको मुसलमानों पर अत्याचार के बाद भी अखिलेश यादव भाजपा को हराने में कामयाब नहीं रहे और अभी हाल ही में अतीक अहमद कांड पर भी अखिलेश यादव भाजपा को घेरने में कामयाब नहीं रहे है अतः मूसलमानों को कांग्रेस को मौक़ा देना चाहिए. उनका आरोप यह भी था कि अखिलेश यादव भाजपा से डरे हुए लगते है इसलिए केजरीवाल और मायावती जी की तरह भाजपा की मदद कर रहे हो सकते है .
अखिलेश यादव भाजपा को हटाने में कामयाब नहीं हुए यह ठीक है मान लेते है कि वे उतना संघर्ष नहीं कर रहे जितनी उनसे अपेक्षा है लेकिन यूपी में कांग्रेस के लिए तो यह सुनहरा अवसर था कि वे संघर्ष कर अपनी जगह मज़बूत कर सकती थी आख़िर यूपी इसी देश का वह प्रदेश है जहाँ से सबसे अधिक संसद सदस्य चुने जाते है . आज़म ख़ान कि इस स्थिति में कांग्रेस के नवाब परिवार का भी योगदान कम नहीं है नवाब साहब भाजपा का खुला समर्थन करके भी कांग्रेस में है . भाजपा को हटाने में सफल होने के आधार पर पार्टी की नीति और नेतृत्व की मंशा का आँकलन करना हो तो गुजरात में सुशासन की वजह से भाजपा नहीं जीत रही, पिछले विधान सभा चुनाव 2017 में गोवा में तीन सीट से हारने , उत्तराखंड में एक सीट से हारने और माणिपुर में दो सीट से हारने वाली कांग्रेस ने 2022 में शर्मनाक प्रदर्शन किया तो क्या वह भाजपा की कोई छुपी हुई टीम तो नहीं ?
कर्नाटक चुनाव के नतीजे सभी लोकतंत्र समर्थकों के लिए उत्साहवर्धक है मगर ये नतीजे हिंदी पट्टी और विशेषरूप से उत्तर प्रदेश में परिलक्षित नहीं हो सकते क्योंकि कर्नाटक में 2018 के विधान सभा चुनाव में भी कांग्रेस ने भाजपा से दो फ़ीसदी अधिक वोट प्राप्त किया था जबकि मोदी जी की लोकप्रियता अभी से उस समय अधिक थी जबकि उत्तर प्रदेश में कुल दो प्रतिशत है . दूसरा कर्नाटक में कांग्रेस के पास सिद्धारमैया जैसा मज़बूत नेतृत्व है जिसे प्रतिस्थापित करने के लिए डीके शिवकुमार जैसा युवा नेतृत्व तैयार है जबकि उत्तर प्रदेश में एक से दस नंबर तक नेतृत्व का अभाव है . कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में अंतिम अच्छा प्रदर्शन 2009 में किया था जब वह 21 लोकसभा सीट जीतने में सफल हुई तब ब्राह्मण वोट का बड़ा हिस्सा कांग्रेस के साथ गया था और इसलिए उस हर सीट पर जहाँ वह मुख्य मुक़ाबले में थी वहाँ मुस्लिम वोट भी कांग्रेस के खाते में गया था 2004 में कांग्रेस सिर्फ़ ब्राह्मण बाहुल्य 9 लोकसभा सीटें मुसलमान वोट के सहयोग से जीतने में कामयाब हुई थी . अभी भी जब तक कांग्रेस ब्राह्मण या कोई अन्य समुदाय 12-15 प्रतिशत प्रतिबद्ध वोट के रूप में नहीं जोड़ पाती तब तक भाजपा सरकार को नापसंद करने वाला एक भी समझदार मतदाता कांग्रेस को वोट देने से पहले कई बार सोचेगा.
देश की राजनीति में सक्रिय और कम या अधिक प्रभाव रखने बाले दलों की संख्या सैंकड़ों में है लेकिन सामान्य रूप से देश का जनमानस भाजपा समर्थक या भाजपा विरोध के दो ध्रुवों में बँट चुका है . ऐसे में वह स्थानीय से लोकसभा चुनाव तक या तो भाजपा को वोट करेगा या फिर जो भाजपा को हराने की क्षमता रखता है उसके साथ जाना चाहेगा. विधान सभा चुनाव 2022 के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति दो ध्रुवीय हो चुकी है जिसके निकट भविष्य में बहुध्रुवीय होने की कोई सम्भावना नहीं है.दो ध्रुवीय राजनीति में एक ध्रुव का नुक़सान दूसरे का स्वाभाविक लाभ बन जाता है तो सत्ता से किसी भी कारण असंतुष्ट व्यक्ति सामान्यतः मुख्य विरोधी का समर्थक हो जाता है.
कुछ अतिउत्साही नेता या प्रायोजित विश्लेषक अखिलेश यादव पर मुस्लिम विरोधी होने का आरोप लगा सकते है मगर आम मुस्लिम यह जनता है कि भाजपा की जीत का सबसे प्रमुख कारण सपा को मुस्लिम परस्त और अखिलेश को मौलाना मुलायम की तरह अखिलेश अली प्रचारित/सिद्ध करना ही रहा है. हॉ स्वयं अखिलेश यादव इस आरोप पर शायद यही सोच सकते है-
रुख़सार पे मेरे ये तमाचा के निशाँ है ,
और वो पूछते है कि बफ़ादार कौन ?
ज़िंदगी उपलब्ध में बेहतर विकल्प के चुनाव की संभावनाओं का अवसर देती है सर्वोत्तम / आदर्श विकल्प सिर्फ़ लक्ष्य होता है सम्भव नहीं. आज की हक़ीक़त यहीं है कि यूपी में भाजपा/ संघ की विचारधारा , कार्य और कार्यशैली से असहमत लोगों के पास सिर्फ़ एक विकल्प है और वह समाजवादी पार्टी है.किसी को पसंद हो या नापसंद यूपी में सपा ही भाजपा से लड़ने की स्थिति में है और अपनी वास्तविक राजनीतिक ताक़त को ध्यान में रखकर कांग्रेस को सपा के साथ गठबंधन को अंतिम रूप दे देना चाहिए .कांग्रेस भाजपा को हराना चाहती है तो उसे अपने समर्थकों को यह संदेश देना चाहिए कि संभावित सहयोगियों पर बिलो द वेल्ट वार न करें अन्यथा गठबंधन होने पर भी अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकती .
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