गांधी को तुम नहीं मार सकते

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गांधी को तुम नहीं मार सकते

यशोदा श्रीवास्तव

मध्यप्रदेश सरकार द्वारा प्रायोजित फिल्म "गांधी गोडसे:एक युद्ध, पिछले एक महीने से सिनेमा हालों पर लटका है, दर्शक नहीं मिल रहे.  अचरज है कि इस फिल्म के लेखक हैं जनवादी लेखक संघ के अध्यक्ष असगर वजाहत! फिल्म उसी मध्य प्रदेश सरकार के वित्तीय संसाधन से बनी है जहां गांधी को खूब गाली मिलती है, उनके पोस्टर पर गोली दागने जैसे दृष्य़ सामने आते हैं.  यह काम कभी कालीचरण नाम का कोई संन्यासी करता है तो कभी भाजपा की चर्चित नेत्री करती है.  लेकिन सरकार कभी ऐसों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करती उल्टे उनका धूमधाम से स्वागत करती है और गोडसे का जयकारा लगाती है. 

चूंकि गांधी गोडसे नाम से बनी फिल्म मध्यप्रदेश सरकार द्वारा प्रायोजित है इसलिए यह बताने की जरूरत नहीं कि फिल्म की थीम क्या है? इसे एक लाइन में समझना है तो यूं समझिए कि मरने वाला शख्स इसका जिम्मेदार खुद है.  यानी फिल्म में गोडसे को गांधी का हत्यारा होने से बचाव की पूरी कोशिश की गई.  यहां गोडसे को गांधी के बराबर खड़ा करने की भी कोशिश की गई. 

अब यदि महीनों हो गए इस फिल्म के बने और सिनेमा हालों पर दर्शक ही नहीं पंहुच रहे तो इसका मतलब साफ है कि गांधी को भले ही गोली मारकर हत्या कर दी गई लेकिन वे कभी मरे नहीं.  यही वजह है कि गांधी के आलोचक अभी भी उन्हें मारने की कोशिश करते रहते हैं लेकिन गांधी हैं कि मरते ही नहीं. 

यहां एक बात और खास है कि गांधी को मारने वालों की अपेक्षा उन्हें जिंदा रखने वालों की कतार लंबी है.  वे हर क्षेत्र में हैं,हर वर्ग में और हर परिवेश में हैं. 

अब सोचिए कि जब एक मजिस्ट्रेट अपने कोर्ट में जमानत के लिए आए आरोपियों को गांधी की आत्मकथा भेंट करके यह कहे कि इसे ध्यान से पढ़कर आना तब जमानत मिलेगी तो इसे क्या कहेंगे? जी हां यह मजिस्ट्रेट हैं मदन मोहन वर्मा! वे एसडीएम हैं.  इन दिनों उनकी तैनाती यूपी के फरेंदा तहसील में  हैं.  उन्होंने गांधी को इस तरह आत्मसात कर लिया है कि वे चाहते हैं हर कोई गांधी मय हो जाय.  हैरत है कि जहां गांधी की आलोचना का दौर चल रहा हो, वाट्सएप यूनिवर्सिटी से ज्ञान ग्रहण किए लोग भारत के बंटवारे के लिए गांधी को जिम्मेदार ठहरा रहे हों, उन्हें गालियों से नवाजा जा रहा हो वहां एक लोकसेवक गांधी को बचाने के अभियान में जुटा है.  वे केवल गांधी पर भाषण नहीं देते, गांधी की आत्मकथा पुस्तक बांटते रहते हैं.  उनके कार्यालय के आलमारी,गाड़ी के पीछे का हिस्सा और आवास के बुक सेल्फ गांधी की आत्मकथा पुस्तक से भरे रहते हैं.  मुमकिन है गांधी को बचाए रखने का उनका यह अनोखा अभियान बहुतों को अच्छा न लगता हो या बहुत सारे लोग आलोचना करते हों लेकिन वे इस सबसे बेफिक्र अपने अभियान में लीन हैं. 

अंबेडकर नगर जिले के ग्राम रसूल पुर टांडा निवासी मदनमोहन वर्मा 1996 में नायब तहसीलदार पद पर चयनित हुए थे.  तभी उन्होंने गांधी आत्मकथा पढ़ी. इस पुस्तक को पढ़ कर वे इस कदर प्रेरित हुए कि जन जन तक गांधी की आत्मकथा पंहुचाने का वीणा उठा लिया. इस वक्त वे पीसीएस संवर्ग में प्रोन्नति पाकर एसडीएम के पद पर कार्यरत हैं.  वे बताते हैं कि सन् 2005 तक उन्होंने जाना ही नहीं कि नौकरी के बदले उन्हें तनख्वाह भी मिलती है.  तनख्वाह का सारा का सारा पैसा वे गांधी के पुस्तकों की खरीद और बांटने में लगाते थे.  तब तनख्वाह कम थी.  अब उसी तनख्वाह में से पुस्तकें भी खरीदता हूं और घर खर्च भी चलता है. वे शिद्दत से कहते हैं कि इतने बड़े मिशन में यदि वे कामयाब हैं तो इसके पीछे उनकी पत्नी का भी बड़ा योगदान है जिन्होंने कभी उन्हें रोका टोका नहीं।

नवजीवन प्रकाशन अहमदाबाद से वे गांधी की पुस्तकें मंगाते हैं.  चूंकि उनकी मांग हजारों में होती है इसलिए जाहिर है उन्हें कुछ सब्सिडी मिल जाती होगी.  सन,2000 से अब तक वे 50 हजार गांधी की आत्मकथा लोगों में वितरित कर चुके होंगे.  यह क्रम अभी जारी है.  चाहे उनका कोर्ट हो या कोई मौका मुआयना,वे गांधी आत्मकथा के साथ होते हैं.  उनका कहना है कि वे बस गांधी की एक लाइन ही लोगों को समझाना चाहते हैं.  वह ये कि" बापू को उनका बड़ा भाई मारा करता था,वे अपनी मां से शिकायत करते थे तो मां कहती कि तुम भी मार दिया करो, गांधी मां से कहते, मां आप भाई से यह क्यों नहीं कहती कि वह मुझे न मारें! गांधी का यही विचार उनके अहिंसावादी बनाता है.  गांधी का यही विचार यदि लोग आत्मसात कर लें तो सोचिए समाज में कितना बड़ा बदलाव हो सकता है.  वे कहते हैं कि मुझे समझ नहीं आता कि कुछ लोग गांधी को क्यों नहीं समझ पाते! उन्होंने गांधी आत्मकथा प्रियंका गांधी और अमीर खान को भी भेंट किया है. 

पीसीएस अफसर मदन मोहन वर्मा सिर्फ गांधी की आत्मकथा ही नहीं बांटते,वे जहां रहते वहां गांधी की प्रतिमा भी लगवाते.  जौनपुर जिले के बदलापुर तहसील में गांधी की प्रतिमा लगाने को लेकर कुछ लोगों ने विवाद खड़ा कर दिया.  नतीजा उनका और गांधी प्रतिमा का तबादला बनारस हो गया.  बाद में यह प्रतिमा बनारस में लगी.  बिहार के जमुई में उन्होंने गांधी की प्रतिमा लगवाई जहां गांधी जी के प्रपौत्र तुषार गांधी भी शामिल हुए थे.  अब तक वे अपने खर्चे से सात जगह गांधी की प्रतिमा लगवा चुके हैं.  अब सोचिए जहां एक लोकसेवक के रूप में मदन मोहन वर्मा जैसे लोग गांधी के विचारों को जन जन तक पहुंचाने का वीणा उठाए हों वहां गांधी को न तो उनके पोस्टरों पर गोली दाग कर मारा जा सकता है और न ही गांधी गोडसे एक युद्ध जैसी फिल्मों के जरिए गोडसे को गांधी के बराबर खड़ा किया जा सकता है. 


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