मोहन भागवत का मश्विरा या धमकी

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मोहन भागवत का मश्विरा या धमकी

आरएसएस चीफ मोहन भागवत ने कहा कि भारत में मुसलमानों को डरने की जरूरत नहीं है मगर उन्हें अपनी बालादस्ती और अफजल (वर्चस्व और श्रेष्ठ) होने का दावा छोड़ना पड़ेगा.  राम नवमी और दीगर मजहबी जुलूसों में तलवारों और असलहों के मुजाहिरे और मस्जिदों के सामने बड़ी तादाद में नौजवानों की जानिब से नारे लगाते हुए डांस करने, हलाल गोश्त पर पाबंदी लगाने की तजवीज, हिजाब पर पाबंदी, मुस्लिम दुकानदारों का बायकाट और लवजेहाद के नाम पर सिर्फ गरीबों को परेशान करने के वाक्यात का नाम लेकर तो मोहन भागवत ने कुछ नहीं कहा लेकिन यह कहकर इन तमाम हरकतों पर मोहर लगा दी कि हिन्दू अक्सरियत में पैदा हुई जारेहियत (आक्रमकता) जायज और फितरी (स्वाभिवक) है.  क्योकि हिन्दू समाज गुजिश्ता एक हजार बरस से विदेशी हमलों, विदेशी असर और विदेशी साजिशों के खिलाफ लड़ रहा है.  यह हकीकत है कि हिन्दुस्तान को हिन्दुस्तान ही रहना चाहिए, ऐसा होने में मुसलमानों का कोई नुक्सान नहीं है.  वह अपने मजहबी अकीदे पर टिके रह सकते हैं.  उनके मजहब इस्लाम को भारत में कोई खतरा नहीं है.  इसके बावजूद अगर वह चाहें तो अपने पूर्वजों (हिन्दुओं) की आस्था में लौटने की ख्वाहिश पूरी कर सकते हैं.  मोहन भागवत और पूरा आरएसएस उन मुगलों के बहाने मुसलमानों पर तो अक्सर हमलावर रहते हैं जिन मुगलों ने हिन्दुस्तान को सोने की चिड़िया बनाने में नुमायां रोल अदा किया और यहां की एक ईंट भी उठा कर सेण्ट्रल एशिया नहीं ले गए.  लेकिन अंग्रेजों ने तकरीबन ढाई सौ साल की हुकूमत में भारत की ईंट र्से इंट बजा दी.  कोहेनूर समेत तमाम दौलत लूट ले गए.  भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव, अशफाकउल्लाह खां, राम प्रसाद बिस्मिल और मंगल पाण्डेय जैसे आजादी के सिपाहियों पर झूटे इल्जाम लगाकर फांसी पर चढा दिया.  जलियांवाला बाग जैसा खौफनाक कत्लेआम कराया.  उन अंग्रेजों के खिलाफ आरएसएस कुन्बे का कोई शख्स एक लफ्ज भी नहीं बोलता बल्कि कई मौकों पर ब्रिटेन और अंग्रेजों की खुशामद करते दिखते हैं. 

मोहन भागवत के बयान के बाद देश के मुसलमान और आरएसएस के नजरियात में यकीन न रखने वाले करोड़ों हिन्दू यह नहीं समझ पा रहे हैं कि उनका यह बयान मुसलमानों के लिए मश्विरा है या धमकी.  उनका यह कहना कि भारत में इस्लाम के लिए कोई खतरा नहीं है.  यह भी तो एक तरह से बालादस्ती (वर्चस्व) जाहिर करने की बात है.  इस्लाम खुदाई मजहब है, बाकी तमाम मजहबों की तरह इसकी अपनी अलग शिनाख्त है.  इसकी हिफाजत का जिम्मा तो खुद अल्लाह ने ले रखा है.  मोहन भागवत या किसी और के पास इतनी सलाहियत नहीं है कि वह इस्लाम को खतरे में डाल सके या खतरे से निकाल सके.  रही बात मुसलमानों में बालादस्ती और अफजलियत (वर्चस्व और श्रेष्ठा) के जज्बे की तो वह जज्बा भी कभी खत्म नहीं हो सकता न मुसलमान उसे छोड़ सकते हैं क्योंकि मुसलमान हों या दुनिया के दूसरे हिन्दू-ईसाई, यहूदी, बौद्ध, जैन वगैरह हों, जो जिस मजहब का मानने वाला है वह अपने मजहब को सबसे अच्छा समझता है.  तभी तो उसपर अमल करता है.  अगर लोगों को अपने मजहब के सिलसिले में ऐसा जज्बा न हो तो फिर वह अपने मजहब पर अमल क्यों करे?

मोहन भागवत ने यह भी कहा कि मुसलमानों को अपनी बालादस्ती और अफजलियत (वर्चस्व और श्रेष्ठता) छोड़नी होगी.  उन्हें देश को गुमराह करने के बजाए यह भी बता देना चाहिए कि हिन्दुस्तान का मुसलमान किस मामले में और कब अपनी बालादस्ती और अफजलियत का मुजाहिरा करता है.  भारत सरकार की ही बनाई हुई सच्चर कमेटी की रिपोर्ट मौजूद है जिसमें साफ कहा गया है कि देश में मुसलमानों की माली और तालीमी हालत दलितों से भी बदतर है.  सरकारी नौकरियों में एक डेढ फीसद ही नुमाइंदगी बची है.  देश के तकरीबन आठ फीसद मुसलमान सऊदी अरब, यूनाइटेड अरब अमीरात, कुवैत और दीगर खलीजी मुमालिक में अगर नौकरी करने न जाते तो भूकों मरने की नौबत आ जाती.  ऐसी कौम के लोगों पर यह इल्जाम लगाने का कौन सा जवाज (औचित्य) है कि वह बालादस्ती और अफजलियत का जज्बा रखते हैं और उसका मुजाहिरा करते हैं.  यह बात तो सरासर झूट है, हां मुसलमान चाहे जितना गरीब या अमीर हो उसे अपने मजहब इस्लाम पर फख्र जरूर रहता है तो यह जज्बा तो हर मजहब के मानने वालों में रहता है.  इसे बुरा क्यों माना जाए?

मोहन भागवत ने कहा कि आज हिन्दुओं में जो जारेहियत (आक्रमकता) पैदा हुई है वह इसलिए जायज और फितरी (स्वाभाविक) है कि हिन्दू दरअस्ल हिन्दू मजहब और हिन्दू सकाफत (संस्कृति) की हिफाजत के लिए जारेहाना  रवय्या अख्तियार किए हुए हैं.  यह रवय्या बाहर के हमलावरों की वजह से नहीं अंदर के दुश्मनों की वजह से है.  भागवत का मतलब शायद यह है कि देश के अंदर रहने वाले मुसलमान आज भी हिन्दुओं के दुश्मन हैं.  आखिर यह बात उन्हें किसने बता दी और वह इस नतीजे पर कैसे पहुंच गए कि देश के अंदर रहने वाले मुसलमान हिन्दुओं के दुश्मन हैं.  अगर यही ख्यालात आम हिन्दुओं में भरे जाते रहे तो जाहिर है कि देश का इत्तेहाद तबाह व बर्बाद होगा.  देश में हिन्दुआंे बल्कि आरएसएस की सरकार आधी से ज्यादा रियासतों मंे हिन्दुओं की सरकार, सुप्रीम कोर्ट में मुस्लिम जज नहीं हाई कोर्टों में गिनती के मुस्लिम जज, एलक्शन कमीशन में मुस्लिम अफसर नहीं, किसी प्रदेश का चीफ मिनिस्टर मुसलमान नहीं, किसी हाई कोर्ट का चीफ जस्टिस मुसलमान नहीं.  राष्ट्रपति और नायब सदर जम्हूरिया भी हिन्दू, फौज और पुलिस में मुसलमानों की नुमाइंदगी नहीं के बराबर, इस सूरतेहाल के बावजूद अगर मोहन भागवत यह कह रहे हैं कि हिन्दुओं की जारेहियत, हिन्दू मजहब और हिन्दू सकाफत की हिफाजत के लिए है तो इसका मतलब तो यही निकलता है कि वह हिन्दुओं को कमजोर और बुजदिल समझते है.  जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है. 

मोहन भागवत ने आरएसएस के तर्जुमान पांचजन्य को दिए इंटरव्यू में इन बातों के अलावा एक और इंतेहाई सनसनीखेज बात यह कह दी कि हमजिन्सी (समलैंगिकता) फितरी (स्वाभाविक) बात है और यह हमेशा से है.  इसमें कोई गलत बात नहीं है.  क्योकि इसके ‘पौराणिक’ सुबूत मौजूद हैं.  उन्होने बताया कि राजा जरासंघ के दो सिपाहसालारों ‘हंस’ और ‘डिभक’ के दरम्यान भी ऐसे रिश्ते थे.  भगवान कृष्ण ने अफवाह फैला दी कि डिभंक की मौत हो गई है.  यह सुनकर ‘हंस’ ने खुदकुशी कर ली.  इस मिसाल से साबित होता है कि हमजिन्सी ताल्लुकात बहुत पुराने समाज का हिस्सा थे.  भागवत की यह बात किसी भी तरह काबिले कुबूल नहीं हो सकती.  क्योंकि ‘हंस’ और ‘डिभंक’ की कोई मजहबी हैसियत नहीं थी.  न वह मजहब के नुमाइंदे थे वह तो गुमराह हुए फौजी थे जो गैर फितरी (अप्राकृतिक) सेक्स में मुब्तेला हो गए थे.  यह भी तो मुमकिन है कि भगवान कृष्ण को उनकी यह हरकत पसंद न हो इसलिए उन्होने डिभंक के मरने की अफवाह उड़ा कर गैर फितरी (अप्राकृतिक) हरकत में मुलव्विस जोड़ी को तोड़ने का काम कर दिया.  वैसे भी हमजिन्सी (समलैंगिकता) को सही ठहरा कर मोहन भागवत देश के नौजवानों को क्या संदेश देना चाहते हैं?  

जदीद  मरकज़

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