अयोध्या तो सूर्यवंश की लौ में ही प्रकाशित रही है...

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अयोध्या तो सूर्यवंश की लौ में ही प्रकाशित रही है...

ओम प्रकाश सिंह

जो घटित हुआ, हो रहा और जो होगा वह सब प्रभु श्री राम की लीला है.  अयोध्या का गौरव बिखरा हुआ था तो कोई इसे पूछ नहीं रहा था. अब जैसे-जैसे अयोध्या अपने आप को संयोजित कर रही है, समेट और सहेज रही है तो दावेदारी भी बढ़ती जा रही है.  कभी शाकलद्वीपी ब्राह्मणों ने भी इस पर अपना दावा जताया था.  समय बदला तो अयोध्या पर लोगों के दावे भी बदलते गए लेकिन अयोध्या तो सूर्यवंश की लौ में ही प्रकाशित रही है. 

अयोध्या कितनी बार बसी और कितनी बार उजाड़ हुई, इसका हिसाब करना सहज नहीं है .  सच पूछिये तो भगवान श्रीरामचन्द्र की लीला-संवरण के बाद ही अयोध्या पर विपत्ति आई.  कोशलराज के दो भाग हुये .  श्रीरामचन्द्र के ज्येष्ठ कुमार महाराज कुश ने अपने नाम से नई राजधानी " कुशावती बनाई और छोटे पुत्र लव ने "शरावती"/ श्रावस्ती” की शोभा बढ़ाई .  राजा के बिना राजधानी कैसी? अयोध्या थोड़े ही दिनों पीछे आप से आप श्रीहीन हो गई.  अयोध्या के दुर्दशा के समाचार सुन महाराज कुश फिर अयोध्या में आये और कुशावती ब्राह्मणों को दानकर पूर्वजों की प्यारी राजधानी और उनकी जन्म-भूमि अयोध्या में रहने लगे.  

कविकुल-कलाधर महाकवि कालिदास ने रघुवंश काव्य के १६ वें सर्ग में कुशपरित्यक्ता अयोध्या का वर्णन अपनी ओजस्विनी अमृतमयी लेखनी से किया है.  जिसको पढ़कर आज दिन भी सरस रामभक्तों का हृदय द्रवीभूत होता है .  यद्यपि महाकवि ने यह उस समय का पुराना चित्र उतारा है, पर हाय ! हमारे मन्द अदृष्ट से वर्तमान में भी तो वही वर्तमान है.  भेद है तो यही है कि उस समय भगवती अयोध्या की पुकार सुननेवाला एक सूर्यवंशी विद्यमान था.  अब वह भी नहीं रहा.  जड़ जीव कोई सुने या न सुने .  परन्तु अयोध्या की वह हृदयविदा- रिणी पुकार सरयू के कल कल शब्द के साथ " हा राम ! हा राम !" करती हुई अभी तक आकाश में गूंज रही है.  उस प्राचीन दृश्य को विगत जीव हिन्दु-समाज भूले तो भूल सकता है, परन्तु अयोध्या की अधिष्ठात्री- दवी किस प्रकार भूल सकती है.  

सूर्यवंश अस्त होने के पीछे की अयोध्या, महाभारत के महासमर तक  हमेशा सूर्यवंशियों की राजधानी रही .  एक युद्ध में कुमार अभिमन्यु के हाथ से अयोध्या का सूर्यवंशी महाराज बृहद्दल मारा गया.  इसके बाद इस राज्य पर ऐसी तबाही आई कि अयोध्या बिल्कुल उजड़ गई .  सूर्यवंश अन्धकार में लीन हो गया.  इस वंश के लोग दूसरे के अधीन हुए.  प्राणों का.मोह बढ़ा और स्वाधीनता नष्ट हुई .  उदयपुर के धर्मात्मा राणा, जोधपुर के रणबंके राठोड़ और जयपुर के प्रतापी कछवाह इसी सूर्यवंश महावृक्ष की बची बचाई शाखा के अवशिष्ट हैं.  

महाभारत तक का वृत्तान्त पुराणों में मिलता है और पीछे का कुछ वृत्तान्त जाना नहीं जाता कि अयोध्या में कब क्या हुआ और किसने क्या किया .  परन्तु शाक्यसिंह बुद्धदेव के जन्म से फिर अयोध्या का पता चलता है और कुछ कुछ वृत्तान्त भी मिलता है.  कारण बुद्धदेव कपिलवस्तु में उत्पन्न हुये, श्रावस्ती में रहे और कुशीनगर वा कुशीनर में निर्वाण को प्राप्त हुए.  यह सब स्थान कोशल देश में विद्यमान थे.  बुद्धमत के ग्रन्थों से जाना जाता है कि उन दिनों कोशल वा अवध की राजधानी का राज सिंहासन 'श्रावस्ती' में था जिसको श्रीरामचन्द्रदेव के कनिष्ठ पुत्र लव ने 'शरावती' के नाम से बसाकर अपनी राजधानी बनाया था. 

अंग्रेजी राज में अयोध्या पाँच छः हजार की आबादी का एक छोटा सा नगर सरयू नदी के बायें तट पर बसा था .  इसका अक्षांश २६० २७ उत्तर और देशान्तर लन्दन से ८२० १५ पूर्व और बनारस से ७ ३०" पश्चिम है .  परन्तु धार्मिक विचार से फैजाबाद के अतिरिक्त और कई गाँव भी इसी के अन्तर्गत हैं.  यह बात परिक्रमा से सिद्ध होती है जो किसी नगर की सीमा जानने के लिये सबसे उत्तम प्रमाण है.  यह परिक्रमा कार्तिक सुदी नवमी को की जाती है और सरयू के किनारे पर स्वर्गद्वार से प्रारम्भ होती है .  यद्यपि परिक्रमा और कहीं से भी आरम्भ की जा सकती है, किन्तु जहाँ से प्रारम्भ की जाय वहीं अन्त होना चाहिये .  स्वर्गद्वार से चल कर नदी के किनारे किनारे यात्री सात मील तक जाता है और वहाँ से मुड़ कर शाहनिवाजपूर से होता हुआ दर्शननगर में सूर्यकुण्ड पर ठहरता है.  यह दर्शननगर बाजार के पास राजा दर्शन सिंह का बनाया हुआ सूर्य भगवान का सुन्दर सरोवर है.  दर्शननगर से वह पश्चिम की ओर कुशमाहा, मिर्जापुर और भीखापुर से होता हुआ जनौरा को जाता है जो फैजाबाद-सुल्तानपूर सड़क पर है.  यह गाँव अयोध्या से दक्षिण-पश्चिम में ७ मील पर और फैजाबाद से दक्षिण की ओर १ मील पर है.  इस गाँव में एक पका सरोवर है जिसे गिरिजाकुण्ड कहते हैं और एक शिवमन्दिर है .  यह अयोध्या में एक पवित्र स्थान माना जाता है और बहुत से यात्री यहाँ प्रतिवर्ष कार्तिक

में परिक्रमा करते हुये पूजा करने जाते हैं. 

पुराणों में अयोध्या सूर्यवंशी राजाओं की राजधानी है.  इस राजवंश में विचित्रता यह है कि और जितने राजवंश भारत में हुये उनमें यह सबसे लम्बा है.  आगे जो वंशावली दी हुई है उसमें १२३ राजाओं के नाम हैं जिनमें से ९३ ने महाभारत से पहिले और ३० ने उसके पीछे राज्य किया.  जब उत्तर भारत के प्रत्येक राज्य पर शकों, पह्नवों और काम्बोजों के आक्रमण हुये और पश्चिमोत्तर और मध्य देश के सारे राज्य परास्त हो चुके थे तब भी कोशल थोड़ी ही देर के लिये दब गया था और फिर संभल गया.  

कोई राजवंश न इतना बड़ा रहा न अटूट क्रम से स्थिर रहा जैसा कि सूर्यवंश रहा है और न किसी की वंशावली ऐसी पूर्ण है, न इतनी आदर के साथ मानी जाती है.  विद्वानों का मत है कि पूर्व में पड़े रहने से कोशलराज उन विपत्तियों से बचा रहा जो पश्चिम के राज्यों पर पड़ी थीं.  हमारा विचार यह है कि सैकड़ों बरस तक कोशल के शासन करनेवाले लगातार ऐसे शक्तिशाली थे कि बाहरी आक्रमणकारियों को उनकी ओर बढ़ने का साहस नहीं हुआ और इसी से उनकी राजधानी का नाम "अयोध्या" या अजेय पड़ गया.  

महाभारत ऐसा सर्वनाशी युद्ध हुआ जिससे भारत की समृद्धि, ज्ञान, सभ्यता अदि सब नष्ट हो गये और उसके पीछे भारत में अन्धकार छा गया .  सब के साथ सूर्यवंश की भी अवनति होने लगी और जब महापद्मनन्द के राज में या उसके कुछ पहिले क्रान्ति हुई तो कोशल शिशुनाक राज्य के अन्तर्गत हो गया .  महाभारत में भी कोशलराज ने अपनी पुरानी प्रतिष्ठा के योग्य कोई काम नहीं कर दिखाया जिसका कारण कदाचित् यही हो सकता है कि जरासन्ध से कुछ दब गया था.  अंग्रेज इतिहासकार बेण्टली ने ग्रहमंजरी के अनुसार जो गणना की है उससे इस वंश का प्रारम्भ ई० पू० २२०४ में होना निकलता है .  मनु सूर्यवंश और चन्द्रवंश दोनों के मूल-पुरुष थे.  सूर्यवंश उनके पुत्र इक्ष्वाकु से चला और चन्द्रवंश उनकी बेटी इला से .  मनु ने अयोध्या नगर बसाया और कोशल की सीमा नियत करके इक्ष्वाकु को दे दिया .  इक्ष्वाकु उत्तर भारत के अधिकांश राज्यों का स्वामी था क्योंकि उसके एक पुत्र निमि ने विदेह जाकर मिथिलाराज स्थापित किया दूसरे दिष्ट या नेदिष्ट ने गण्डक नदी पर विशाला राजधानी बनाई.  

प्रसिद्ध इतिहासकार डंकर ने महाभारत की चार तारीखें मानी हैं.  ई० पू० १३००, ई० पू० ११७५, ई० पू० १२०० और ई० पू० १४१८, परन्तु पार्जिटर उनसे सहमत नहीं हैं और कहते हैं कि महाभारत का समय ई० पू० १००० है .  उनका कहना है कि अयुष, नहुष और ययाति के नाम ऋग्वेद में आये हैं.  ये ई० पू० २३०० से पहिले के नहीं हो सकते .  रायल एशियाटिक सोसाइटी के ई० १९१० के जर्नल में जो नामावली दी है उनके अनुसार चन्द्रवंश का अयुष, सूर्यवंश के शशाद का समकालीन हो सकता है और ययाति अनेनस् का .  पार्जिटर का अनुमान बेण्टली के अनुमान से मिलता जुलता है.  परन्तु महाभारत का समय अब तक निश्चित नहीं हुआ.  

राय बहादुर श्रीशचन्द्र विद्यार्णव ने “डेट अव महाभारत वार"  शीर्षक लेख में इस प्रश्न पर विचार किया है और उनका अनुमान यह है कि महाभारत ईसा से उन्नीस सौ बरस पहिले हुआ था.  सूर्यवंशी राजाओं में जो प्रसिद्ध हुये उनका संक्षिप्त वृतांत निम्न है.  अयोध्या के सूर्यवंशी राजा (महाभारत से पहिले)  मनु, इक्ष्वाकु, शशाद, ककुत्स्थ,अनेनस, पृथु , विश्वगाश्व, युवनाश्व, श्रावस्त, कुवलयाश्व, रढ़ाश्व, प्रमोद, हर्यश्व, निकुम्म, संहताश्व, कृशाश्व, प्रसेनजित,  युवनाश्व, मान्धाता, त्रसदस्यु, सम्भूत,अनरण्य, पृषदश्व, हर्यश्व, वसुमनस्तृ, धन्वन्, चैयारुण, त्रिशंकु, हरिश्चन्द्र, रोहित, हरित, चंचु (चंप, भागवत के अनुसार), विजय, वृक, बाहु, सगर, असमञ्जस, अंशुमत् , दिलीप, भगीरथथे।

विष्पुराण के अनुसार मान्धात का बेटा अंबरीष था उसका पुत्र हारित हुआ जिससे हारीता गिरस नाम क्षत्रियकुल चला.  इसके बाद नाभाग, अम्बरीष, सिंधुद्वीप, अयुतायुस्, ऋतुपर्ण, सर्वकाम, सुदास, कल्माषपाद, अश्मक, मूलक, शतरथ, वृद्धशर्मन् , विश्वसह, दिलीप, दीर्घबाहु, अज, दशरथ, श्रीरामचन्द्र, कुश, अतिथि, निषध, नल, नभस् , पुण्डरीक, क्षेमधन्वन, देवानक, अहीनगु, पारिपात्र, शल, उक्थ, वजनाभ, शंखन, व्युषिताश्व, विश्वसह,  हिरण्यनाभ, पुष्य, ध्रुवसन्धि, सुदर्शन, अग्निवर्ण, शीघ्र, मरु, प्रथुश्रुत. सुसन्धि, अमर्ष , महाश्वत, विश्रुतवत्, बृहद्वल का उल्लेख मिलता है. 

महाभारत के पीछे के सूर्यवंशी राजा बृहत्क्षय, उरुक्षय, वत्सद्रोह ( या वत्सव्यूह), प्रतिव्योम, दिवाकर, सहदेव, ध्रुवाश्व ( या वृहदश्व ), भानुरथ, प्रतीताश्व ( या प्रतीपाश्व), सुप्रतीप, मरुदेव ( या सहदेव), सुनक्षत्र, किन्नराव (या पुष्कर), अन्तरिक्ष, सुषेण ( या सुपर्ण या सुवर्ण या सुतपस्), सुमित्र (या अमित्रजित् ), बृहद्रज (भ्राज या भारद्वाज), धर्म ( या वीर्यवान् ), कृतञ्जयस बात, रगञ्जयस सय, शाक्य, क्रुद्धोद्धन या शुद्धोदन, सिद्धार्थ, राहुल (या रातुल, बाहुल) लांगल या पुष्कल), प्रसेनजित (या सेनजित ), क्षुद्रक (या विरुधक), कुलक ( तुलिक, कुन्दक, कुडव, रणक) , सुरथ , सुमित्र माने जाते हैं.  अंतिम राजा महानन्द की राजक्रान्ति में मारा गया .  समय बदला तो अयोध्या पर लोगों के दावे भी बदलते गए लेकिन अयोध्या तो सूर्यवंश की लौ में ही प्रकाशित रही है. 


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