डूब गया समाजवाद का सूरज

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डूब गया समाजवाद का सूरज

हिसाम सिद्दीकी

लखनऊ! दस अक्टूबर को गुड़गांव के एक अस्पताल में समाजवादी लीडर मुलायम सिंह यादव की सुबह तकरीबन सवा आठ बजे सांसें  थमी तो उनके साथ समाजवाद का ताबनाक सूरज डूब गया. वह छोटे कद के बड़े लीडर थे. तकरीबन पचास साल की अपनी सियासत में उन्होने उत्तरप्रदेश ही नहीं, पूरे देश की सियासत को एक नई सिम्त (दिशा) दी. पिछड़ों, कमजोरों और मुसलमानों को यह एहसास दिलाया कि देश के संविधान ने सभी को बराबरी का हक दिया है. इसलिए इन तबकों को खुद को कमजोर नहीं समझना चाहिए. मुलायम भले ही मुसलमानों, यादवों और पिछड़ों के चैम्पियन समझे जाते हों, देश के फिरकापरस्तों ने उन्हें ‘मुल्ला मुलायम’ तक कह दिया लेकिन मुलायम सिंह ने अपनी सियासत में यादवों, मुसलमानों और पिछड़ों को ही आगे बढाने का काम नहीं किया उन्होने हर तबके, हर मजहब और सवर्ण कहे जाने वालों के साथ भी हमेशा बराबरी का सुलूक किया. 1988 में उन्होने उत्तर प्रदेश में जो क्रांति रथ निकाल कर नया इंकलाब पैदा किया उस रथ पर उनके साथ जनेश्वर मिश्रा, रेवती रमण सिंह, राम शरण दास, मोहम्मद आजम खां, बृजभूषण तिवारी, बेनी प्रसाद वर्मा, भगवती सिंह, रमाशंकर कौशिक, माता प्रसाद पाण्डेय और मोहन सिंह जैसे हर तबके के लोग कांधे से कांधा मिलाकर चल रहे थे. वह राममनोहर लोहिया, राम सेवक यादव, चैधरी चरण सिंह और जनेश्वर मिश्रा को अपना सियासी गुरू मानते थे. इन लोगों से उन्होंने समाजवाद का ऐसा सबक सीखा जैसा दूसरे किसी ने नहीं सीखा. मुलायम के नजदीक समाजवाद का मतलब था ‘सबको बराबरी का दर्जा और मौका’. उन्हें हम समाजवाद का आखिरी पैरोकार कह सकते हैं. क्योकि उनके बाद उनकी पीढी के दो लोग बचे हैं एक लालू यादव दूसरे शरद यादव उन दोनों की सेहत इतनी खराब है कि वह समाजवाद की मुहिम आगे बढाने लायक नहीं बचे हैं.

ग्यारह अक्टूबर को उनके आबाई वतन सैफई में उन्हें जब हमेशा-हमेशा के लिए दुनिया से रूखसत किया गया तो लाखों अवाम ने इकट्ठा होकर पूरी दुनिया को यह मैसेज दिया कि हमारा लीडर जितने बड़े कद का था अब उस कद का कोई दूसरा लीडर पैदा नहीं होगा. उत्तर प्रदेश में गुजिश्ता दिनों एक और बैकवर्ड लीडर उत्तर प्रदेश के साबिक वजीर-ए-आला कल्याण सिंह को भी दुनिया से रूखसत होते देखा  है. रियासती और मरकजी हुकूमतों की तमाम कोशिशों के बावजूद कल्याण सिंह की आखिरी रसूमात में मुलायम सिंह के मुकाबले दस फीसद भी भीड़ इकट्ठा नहीं हुई थी. जिस भारतीय जनता पार्टी ने मुलायम सिंह यादव को ‘मुल्ला मुलायम’ हिन्दुओं और राम का दुश्मन और यादववादी कहकर हमेशा बदनाम किया, उनकी आखिरी रसूमात के वक्त उस बीजेपी के पचास से ज्यादा छोटे-बड़े सियासतदां सैफई में मौजूद थे. इनमे राजनाथ सिंह, रीता बहुगुणा जोशी और एसपी सिंह बघेल जैसे चंद ही ऐसे लोग थे जिनके मुलायम के साथ जाती रिश्ते रहे थे, बाकी तमाम बीजेपी के सियासतदां तो इसलिए सैफई पहुंचे थे कि वह पिछड़ों और कमजोर लोगों को यह मैसेज दे सकें कि वह भी मुलायम सिंह की बहुत कद्र करते थे. उत्तर प्रदेश के वजीर-ए-आला योगी आदित्यनाथ तो मुलायम सिंह की अर्थी दस अक्टूबर को सैफई आने के  फौरन बाद उन्हें खिराजे अकीदत पेश करने पहुंच गए थे.

हम जाती तौर पर जानते हैं कि मुलायम सिंह यादव अयोध्या में राम मंदिर बनने के खिलाफ बिल्कुल नहीं थे, लेकिन उनका और चन्द्रशेखर दोनों का हमेशा यह कहना था कि आरएसएस और विश्व हिन्दू परिषद के लोग देश के सही सोच के लोगों और मुसलमानों को चिढाने का काम कर रहे हैं. उन्हें पुख्ता यकीन था कि अगर बैठकर सलीके से बातचीत की जाए तो देश के मुसलमान अयोध्या में राम मंदिर की तामीर के लिए रजामंद हो सकते हैं. लेकिन आरएसएस और उससे मुताल्लिक तमाम तंजीमें मुसलमानों को चिढा कर खौफजदा करके और उनसे छीनकर अयोध्या की जमीन लेना चाहती हैं. क्योकि इन लोगों की दिलचस्पी और मकसद मंदिर से कहीं ज्यादा वोटों की सियासत और देश के आम हिन्दुओं को यह एहसास कराना था कि हमने तो मुसलमानों से जमीन छीनकर राम मंदिर बनवाया है. इसी जेहनियत के खिलाफ मुलायम सिंह यादव ने सबसे पहले 1982 में वीएचपी और आरएसएस के जरिए निकाले गए राम रथ की मुखालिफत की थी. उनका मानना था कि राम रथ निकलने के दौरान जिस तरह की नारेबाजी होती है माहौल में गर्मी और कशीदगी पैदा की जाती है वह हिन्दू मुसलमानों नहीं बल्कि मुल्क के मफाद के खिलाफ है. उस वक्त मुलायम सिंह ने एलान किया था कि अगर सरकार ने राम रथ नहीं रोका तो इटावा मे वह खुद रोक देंगे. इटावा व उसके इर्द-गिर्द के जिलों में वह किसी को भी नफरत का बीज बोने की इजाजत नहीं दे सकते. उन्होने इटावा मे राम रथ को रोक भी दिया था.

मुलायम सिंह यादव पहली बार वजीर-ए-आला बने तो आरएसएस, बीजेपी और वीएचपी ने भगवान राम के नाम पर समाज में नफरत को उरूज तक पहुंचा दिया. 30 अक्टूबर को कार सेवा का एलान किया गया. एक बड़ी भीड़ अयोध्या और उसके इर्दगिर्द इकट्ठा कर दी गई. उस वक्त सुभाष जोशी फैजाबाद के सीनियर पुलिस कप्तान थे मुलायम सिंह ने उनसे साफ कह दिया था कि सवाल बाबरी मस्जिद का नहीं देश की एकता और संविधान बचाने का है. इसलिए जो भी सख्त से सख्त कार्रवाई करनी पड़े किसी को भी बाबरी मस्जिद के इर्दगिर्द फटकने न दिया जाए. कारसेवकों के नाम पर इकटठा किए गए लोगों की भीड़ तीस अक्टूबर को न सिर्फ मस्जिद तक पहुंची बल्कि कई लोग मस्जिद के ऊपर चढ गए. पुलिस के बार-बार कहने के बावजूद जब नहीं उतरे तो फायरिंग हो गई, इसके बाद वीएचपी और बजरंग दल वगैरह ने अयोध्या की गलियों और इर्दगिर्द के गांवों में काफी भीड़ इकट्ठा कर ली, दो नवम्बर को यह भीड़ फिर मस्जिद की तरफ बढने की कोशिश कर रही थी तो पुलिस ने फिर फायरिंग की, दोनों दिन की फायरिंग में सोलह या सत्रह लोग मारे गए थे, लेकिन आरएसएस ने पूरे मुल्क में प्रोपगण्डा किया कि सैकड़ों कार सेवकों को मुलायम सिंह ने मरवा दिया गलियां लाशों से पट गईं और सरयू का पानी लाल हो गया. मुलायम सिंह ने बार-बार बीजेपी और आरएसएस से कहा कि अगर आप सरकारी बात को सच नहीं मानते तो खुद ही एक लिस्ट दे दीजिए कि कितने कारसेवक मारे गए सोलह से ज्यादा की लिस्ट आज तक कोई नहीं दे पाया. इसके बावजूद मुलायम सिंह को मुल्ला मुलायम सिंह, राम और हिन्दुओं को दुश्मन करार दिया गया. मुलायम इस प्रोपगण्डे से डरे नहीं और न ही अपने मौकुफ (स्टैण्ड) से पीछे हटे.

मुलायम चूंकि पक्के समाजवादी थे और समाजी बराबरी के पैरोकार थे इसलिए तमाम तबकों में उनके हामी भी मौजूद थे. अयोध्या मेे फायरिंग करवाने के इल्जाम के बावजूद वह सुकून से बैठे नहीं, दिसम्बर 1992 में मस्जिद गिराए जाने के साथ कल्याण सिंह की सरकार गिर गई, 1993 में असम्बली का एलक्शन हुआ वह एलक्शन मुलायम कांशीराम से मिलकर लड़े. मुलायम और कांशीराम की मीटिंगों में कुछ लोग नारे लगाते थे ‘मिले मुलायम कांशीराम- हवा हो गए जय श्रीराम’. इतने खतरनाक नारे के बावजूद मुलायम सिंह और कांशीराम ने एलक्शन जीता और सरकार में वापसी की.

दुनिया से जाने से पहले ही मुलायम सिंह यादव ने अपने जानशीन के तौर पर अपने बेटे अखिलेश यादव को तैयार कर दिया. अखिलेश यादव उतने बड़े समाजवादी तो शायद न बन सके जितने मुलायम सिंह यादव थे क्योंकि मुलायम सिंह को डाक्टर राम मनोहर लोहिया, राम सेवक यादव, चैधरी चरण सिंह और जनेशवर मिश्रा जैसे लोगों से समाजवाद का जो सबक मिला था वह सबक हासिल करने का मौका अखिलेश को नहीं मिला. इसके बावजूद पांच साल तक वजीर-ए-आला रहने के दौरान उन्होने खुद को जिस तरह पेश किया और सरकार जाने के बाद गुजिश्ता तकरीबन पौने छः सालों से उन्होने जिस तरह हिम्मत के साथ सत्ता में बैठे लोगों की ज्यादतियों का मुकाबला किया है उससे तो यही लगता है कि अखिलेश यादव अपने आंजहानी वालिद और करोड़ो लोगों के ‘नेता जी’ की कमी काफी हद तक पूरी कर सकेंगे.

समाजवाद मतलब ‘मसावात’  यानी बराबरी यह बात मुलायम सिंह यादव ने अपनी जिंदगी के हर अहम मौके पर साबित की यही वजह है कि देश और दुनिया में उनकी किसी के साथ जाती या सियासी दुश्मनी नहीं थी. उन्होने दुश्मन बनाना तो जैसे सीखा ही नहीं था. नजरियाती एतबार से वह कांग्रेस और बीजेपी के भले ही सियासी मुखालिफ थे लेकिन जाती रिश्तों का इतना ख्याल रखते थे कि उन्होने कभी भी राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी के खिलाफ एलक्शन में अपना उम्मीदवार नहीं उतारा. जब तक नारायण दत्त तिवारी व राजीव गांधी जिंदा रहे उनके साथ फिर सोनिया गांधी, राहुल गांधी, गुलाम नबी आजाद और दिग्विजय सिंह समेत दर्जनों कांग्रेसियों के साथ उनके बहुत अच्छे रिश्ते रहे. बीजेपी में अटल बिहारी वाजपेयी, लाल जी टंडन, राजनाथ सिंह, कल्याण सिंह और कलराज मिश्रा के साथ उनके हमेशा गहरे रिश्ते रहे और दूसरी पार्टियों के तमाम लोगों के साथ अपने रिश्तों को उन्होंने बखूबी निभाया भी.

मुलायम मतलब मेहनत और सिर्फ मेहनत, दिन-रात की मेहनत, 1967 में असम्बली का पहला एलक्शन लड़े तो जसवंत नगर असम्बली हलके का एक भी गांव नहीं बचा जहां मुलायम साइकिल से वोट मांगने न पहुचे हो चूकि वह नए लीडर बने थे इसलिए अगला एलक्शन हार गए. उनके लीडर बन जाने के बाद वह सिर्फ एक बार 1980 में बलराम सिंह यादव के मुकाबले एलक्शन हारे. इन दो एलक्शनों के अलावा उन्हें पूरी जिंदगी कभी भी हार का मुंह नहीं देखना पड़ा. वह आठ बार मेम्बर असम्बली, एक बार एमएलसी और सात बार लोक सभा मेम्बर रहे. तीन बार उत्तर प्रदेश के वजीर-ए-आला और एक बार मुल्क  के डिफेंस मिनिस्टर भी रहे.


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