ओम प्रकाश सिंह
अयोध्या.राजा राम की नगरी अयोध्या जहां किसी जाति व समाज के बसने की वर्जना नहीं रही.नगर की इसी उदारता ने सहज ही घुमंतू नटों को भी यहां का निवासी बना दिया.लेकिन, राजकीय नीतियां नगर के चरित्र सी उदार नहीं हैं, इसीलिए यहां बस जाने के बावजूद नटों को समाज की मुख्यधारा से नहीं जोड़ा जा सका.नटों की 'मंगता' पहचान और वृत्ति दोनों यथावत है.जिस उम्र में बच्चों के हाथ किताबें होनी चाहिए, उस उम्र में उनके हाथ कटोरा है.जनपद में तैनात सब-इंस्पेक्टर रणजीत सिंह यादव इसी वंचना व विद्रूप के विरुद्ध 'सीटी' बजाते हैं.सुबह उनकी सीटी की आवाज सुनते ही नट समाज के बच्चे एक चिलबिल के पेड़ के नीचे जमा हो जाते हैं.इन बच्चों के संसाधन नहीं है, लेकिन ललक है.यही रणजीत की प्रेरणा बनी.
अयोध्या में रामजन्मभूमि स्थल पर सुर्ख पत्थरों से मंदिर साकार हो रहा है.सूर्य की किरणों से यह पुण्य पत्थर और चटख हो उठे हैं.यहां पुलक है, प्रयोजन हैं.जबकि, उसी के पूरब जयसिंहपुर वार्ड के एक हिस्से में दिवस का रंग भी रात सा है.यह नटों की बस्ती है.सूर्य अस्त नेपाल मस्त के दृश्य के लिए समय बाध्यता इस बस्ती में मायने नहीं रखती.मंगतो का पेशा सूअर पालन, कूड़ा बीनना, रिक्शा चलाना, शादी ब्याह के अवसरों पर बैंड बजाना, लाइट उठाना, मजदूरी करना है।
बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, सर्व शिक्षा अभियान का स्कूल चलो के सरकारी नारे इस बस्ती तक आते-आते दम तोड़ देते हैं.इस नट बस्ती के लगभग सत्तर बच्चों की उम्र पढ़ने की हो गई लेकिन किसी भी बच्चे का पंजीकरण सरकारी स्कूल में नहीं है.समाज, घरपरिवार व सरकारी भेदभाव के शिकार इन बच्चों को शिक्षित करने का बीड़ा पुलिस विभाग के एक सब इंस्पेक्टर रणजीत यादव ने उठा रखा है।
कच्चे-पक्के सीलन भरे घर, बजबजाती नालियों में लोटते सूअर, कच्ची पगडंडी जैसी सड़क पर बहता पानी और बदबूदार भरे माहौल की बस्ती में रणजीत यादव अपने एक सहयोगी के साथ सुबह सात बजे पहुंच जाते हैं. बच्चों को बुलाने के लिए वे सीटी बजाते हैं सीटी की आवाज सुनकर अलसाए, नंगे, मैले कुचले कपड़ों में कुछ बच्चे चिलबिल के पेड़ की तरफ बढ़ लेते हैं.रणजीत यादव सीटी बजाते हुए बहुत से बच्चों को नाम पुकार कर घरों से निकालते हैं।आधे घंटे की मशक्कत के बाद 60-70 बच्चों का जमावड़ा चिलबिल पेड़ के नीचे हो जाता है और फिर शुरू हो जाता है 'अपना स्कूल'।
चिलबिल पेड़ के आसपास की उबड़ खाबड़ जमीन को बच्चों ने कुछ समतल भी कर रख लिया है.वहां पर वे बैनर, दरी, जाजिम, स्वयं बिछाते हैं.कॉपी पेन रबड़ की व्यवस्था रणजीत यादव, जिन्हें लोग अब खाकी वाला गुरु भी कहते हैं, ने कर रखा है.नई पेंसिल पाने के चक्कर में कई बच्चे पेंसिल घर भूल आए कहकर गुरु जी को ही पढ़ा देते हैं.गुरुजी भी मंद मुस्कान के साथ बैग से एक पेंसिल निकालकर बच्चे को थमा देते हैं.फिर बोर्ड पर एबीसीडी आदि लिख दिया जाता है.पढ़ाई शुरू होने से पहले भारत माता की जय, जय हिंद के नारे के बाद जब रणजीत यादव साइलेंट बोलते हैं तो बच्चे भी साइलेंट बोल उठते हैं।
बरसात होने पर अपना स्कूल नही लगता है बाकी ठंडी, गर्मी में नियमित क,ख,ग,घ रटना पड़ता है.अपना स्कूल के इन बच्चों के प्रति चिलबिल का पेड़ भी उदार रहता है.अपनी कम पत्तियों के बावजूद उसकी कोशिश लगभग 2 घंटे चलने वाले स्कूल के बच्चों को छांव देने की होती है.पिछले 5-6 महीने की कोशिश के बाद अब बच्चे वहां पर एबीसीडी, छोटा अ बड़ा आ, क, ख,ग घ सीख पाए हैं.जिन बच्चों को उम्र के हिसाब से कक्षा दो, तीन, चार में होना चाहिए था अफसोस वो अपना नाम भी नहीं लिख पाते हैं.यही अफसोस व बच्चों के सीखने की ललक ने रणजीत यादव को यहां अपना स्कूल खोलने पर मजबूर कर दिया.खाकी वाले गुरु, पुलिस सब इंस्पेक्टर रणजीत यादव का सपना है कि ये बच्चे उच्च शिक्षा ग्रहण करें.सवाल उठता है कि कैसे यह सपना पूरा होगा.अभी तक बच्चों का किसी सरकारी स्कूल में पंजीकरण तक नहीं है.
पीपल के पेड़ के नीचे बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था.क्या यह चिलबिल का पेड़ इन बच्चों के लिए बोधिवृक्ष बन पाएगा.क्या अपने ही छेड़े हुए 'रण' को 'जीत' पाएगें रणजीत.इन सवालों का जवाब तो फिलहाल भविष्य के गर्भ में हैं लेकिन नट समाज की जो परिस्थिति और वातावरण है उसमें से रणजीत यादव एक बच्चे को भी स्कूल भेज पाए तो यह भागीरथ के गंगा जैसी ज्ञान गंगा का अवतरण होगा।
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