प्रदीप गिरी के बारे में कल ही प्रोफेसर दीपक मलिक से बात हो रही थी जो प्रदीप गिरी के कई दशक पुराने मित्र हैं और काठमांडू में अमूमन उनके ही मेहमान होते थे वे इस खबर से बहुत विचलित नजर आए . कल ही दीपक मलिक और मीरिया मलिक उनकी बिगड़ती स्थिति के बारे में बता रहे थे . प्रदीप गिरी कैंसर से जूझ रहे थे . किडनी पूरी तरह खराब हो चुकी थी . उम्मीद भी नहीं बची थी . प्रोफेसर दीपक मलिक और मीरिया अब काठमांडू जाने की तैयारी में है उनकी पत्नी से मिलने . सालों का साथ रहा है खासकर बनारस में तो परिवार का हिस्सा ही थे वे .
चंचल ने लिखा है . प्रदीप गिरी नही रहे. लगा एक अंग टूट गया . और जब हक़ीक़त पर नज़र दौड़ाया तो ' लगा ' निरर्थक नही मिला . वाक़ई हम सिकुड़ गए परिधि में , अपने को समेट लिए हैं . प्रदीप गिरी नेपाल के नही थे , भारत के नही थे , उगांडा , ज़ाम्बिया या अफ़ग़ानिस्तान के नही थे , मन और मिज़ाज में एक समतामूलक समाज का खाका लिए घूमते विश्वनागरिकता के पैरोकार थे . हमारी मुलाक़ात और दोस्ती दोनो बनारस में तब हुई, जब बनारस बहुत बड़ा था . दुनिया की कौन सी सभ्यता है , जो बनारस में न हो . बोली भाषा अलग अलग की रही लेकिन संवाद में कोई दिक़्क़त नही . काशी विश्व विद्यालय का परिसर आज की तरह “छोटा “ नही था , बहुत बड़ा और व्यापक था . काशी विश्व विद्यालय में छात्र नेता व पूर्व अध्यक्ष देव व्रत मजूमदार की तूती बोलती थी , जिन्हें लोग “ देबू दा बोलते थे . 70/71 में हम वहाँ दाख़िला ले चुके थे . भाई मोहन जी ( मोहन प्रकाश , कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव व छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष )ने हमे अपने “ ख़ेमे “ में ले लिया . और पता ही नही चला , हम कब उस ख़ेमे की “चौकी” से खिसके और “चौका”में जा पहुँचे और देबूदा के नज़दीक पहुँच गये . देबू दा ने मिलवाया था -
ये हैं प्रदीप गिरी नेपाली कांग्रेस के . उन दिनो छात्रावासों में गोष्ठियाँ खूब होती थी , प्रदीप जी अक्सर मिल जाते . दोस्ती बढ़ती रही , दायरा बढ़ता रहा , भारत नेपाल के पुराने रिश्ते . जंगे आज़ादी में नेपाल समाजवादियों का गुप्त ठिकाना रहा , ठीक उसी तरह जैसे नेपाली कांग्रेस का घर बनारस बन गया था .
78 का वाक़या है , एक दिन प्रदीप जी ने बताया दिल्ली स्थित नेपाली दूतावास पर समाजवादियों का प्रदर्शन है , प्रोफ़ेसर राज कुमार जैन का बयान है किसी अख़बार में हमने देखा है . यह उस जमाने की बात है जब समाजवादी न कल से बैठते थे न बैठने देते थे . नियत समय पर हम दिल्ली पहुँचे . प्रोफ़ेसर जैन साहब हमारे नेता रहे / हैं . प्रदर्शन हुआ , हम गिरफ़्तार हो गये . कहीं से नेता राज नारायण जी को पता चला तो वे आए और छुड़ा कर ले गये . दूसरे दिन अख़बारों के पहले पन्ने पर . वापस बनारस आया तो प्रदीप जी बहुत गर्म जोशी से मिले और मिलते ही बोले - तुम नेपाल चले जाओ , वहाँ तुम्हारी बहुत चर्चा है , बहुत दिन बाद जाओगे , एक बार सब इकट्ठे मिल जाँयगे .
दूसरे दिन अचानक सच्चिदा बाबू मिल गए . बिहार समाजवादी आंदोलन के नेता सच्चिदा नंद सिंह ( आज के मंत्री भाई जगदा नंद सिंह के बड़े भाई . बोले चलो पटना . घूम आओ . लम्बी जेल काट कर लौटे थे सोचा सब से मिल लिया जाय . पटना में सब मिले . भाई शिवानंद तिवारी , जाबिर हुसैन , लालू प्रसाद यादव माँगनी लाल मंडल , रघुनाथ गुप्त वग़ैरह . हमने जाबिर हुसैन से कहा हमे नेपाल जाना है . उन्होंने टिकट माँगा दिया और हम नेपाल में . नेपाली कांग्रेस के सारे नेता किसी न किसी रूप से बनारस से जुड़े हुए थे . बिल्कुल घर की तरह . प्रकाश से ( प्रकाश कोईराला , वी पी कोईराला के सुपुत्र और मनीषा कोईराला के पिता ) हमारी खूब जमती थी .
नेपाल के प्रसिद्ध नेता गणेश मान सिंह और उनकी पत्नी मंगला देवी , इनके पुत्र प्रकाश मान सिंह और पी यल सिंह से परिवार का रिश्ता . इन्ही दिनो छात्र आंदोलन ज़ोरों पर था , और हम भी गिरफ़्तार हो गये . कैसे छूटा यह बहुत बड़ी कहानी है , फ़ेसबुक पर ही लिख चुका हूँ . इस साथी के जाने का दुःख तो होगा ही . सादर श्रद्धांजलि मित्र
वरिष्ठ पत्रकार अनुराग चतुर्वेदी ने लिखा है प्रदीप गिरी से पहली मुलाक़ात आपातकाल के दिनों में जेएनयू में हुई थी जहां बनारस में पढ़ने के बाद वे खुद भी दाख़िला ले लिए थे . शशिशेखर सिंह और कोमल के साथ वे मिले . प्यारी हिंदी और समाजवादी विचारों की जानकारी से भरे हुए . बाद में वे मोहनप्रकाश जी और तेज नारायण झा के साथ की तिकड़ी के भी सदस्य बन गये. झा जी और प्रदीप जी की अंतरंगता देखते ही बनती थी.
प्रदीप जी नेपाली कांग्रेस के बड़े नेता थे और भारत के हर समाजवादी नेता के कार्यकलाप से वे परिचित थे . मधु लिमये, जॉर्ज और राजनारायण से लेकर जे. पी. , लोहिया के क़िस्सों के वे जानकार थे .प्रदीपजी राजनीति के साथ साहित्य के भी बड़े छात्र थे . हिंदी , उर्दू और अंग्रेज़ी के बड़े साहित्यकारों को वे पढ़ चुके थे और उर्दू शायर तो उनकी ज़ुबान पर थे . मैंने मुंबई, दिल्ली या बॉस्टन में मिले नेपाल निवासियों से मिलने पर प्रदीप जी का नाम लिया तो सभी उनके नाम से परिचित होते थे और वे एक ऐसे नेता थे जो पढ़ा- लिखा था.प्रदीप जी को पैदल चलना पसंद था . वे बातें करने और नए प्रसंगों , नयी पुस्तक और नयी राजनीति के बारे में जानने के इच्छुक रहते थे . मेरे अधिकांश मित्र उनके भी मित्र थे . देवीप्रसाद त्रिपाठी , के मन में नेपाल के प्रति अतिरिक्त अनुराग प्रदीप जी के कारण ही बना होगा,प्रदीप जी कोईराला परिवार की धुरी से भी जुड़े रहे .
प्रदीपजी तर्कतीर्थ परम्परा के वाहक थे . वे ज्ञान और प्रेम के अद्भुत प्रतिनिधि थे. उनके जाने से भारत , नेपाल का समाजवादी आंदोलन वैचारिक रूप से और गरीब हो गया है.
प्रदीप जी के आख़री दिन मुंबई में गुजरे और वे बीमारी, पीड़ा के कारण मुझे कहते रहे, .ठीक होकर मिलूँगा. मुझे भी लगता रहा वे ठीक हो जायेंगे . पर अंत में डॉक्टरों ने जवाब दे दिया और वे नेपाल लौट गये जहां की धरती में वे पले-बढ़े थे.
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