आलोक कुमार
सारणः सारण ज़िला मुख्यालय छपरा से 26 किलोमीटर दूर उत्तर की ओर बसा एक कस्बा.आज के समय में मढ़ौरा का पता लोग कुछ ऐसे ही बताते हैं. लेकिन वो भी ज़माना था जब किसी से पूछा जाता, भाई मढ़ौरा का नाम सुना है तो छूटते ही जवाब आता कि वही मढ़ौरा ना, जहां मॉर्टन चॉकलेट की फ़ैक्ट्री है. आज बिहार की पहली चीनी मिल होने का गौरव हासिल करने वाले मढ़ौरा की चीनी मिल का दिन गर्दिश में है.चीनी मिल पर छाए गर्दिश के बादल और गहराने लगे है.25 साल से बंद मढ़ौरा चीनी मिल को फिर से चालू कराने का प्रयास युवा साथियों के द्वारा जारी है.
मढ़ौरा चीनी मिल को चालू करवाने के लिए 80 युवा साथियों का पदयात्री जत्था सोमवार 15 अगस्त को स्वत्रंतता दिवस के अवसर पर पदयात्रा पर निकल गई हैं.युवा साथी नारायण सिंह के नेतृत्व में कल 15 अगस्त को परसा हाई स्कूल में रात्रि विश्राम किये और आज पदयात्रा प्रारंभ कर दी है. मढ़ौरा से पटना तक पहुँचने के लिए 84 कि.मी. की दूरी तय करनी पड़ती है.17 अगस्त को राजधानी पटना के हड़ताली स्थल गर्दनीबाग में पहुंचेंगे.
बताया गया कि मढ़ौरा की चीनी मिल को बिहार की पहली चीनी मिल होने का गौरव हासिल रहा है. मढ़ौरा की चर्चा अंग्रेजों ने अपनी पुस्तकों में भी की है. दरअसल मढ़ौरा की चीनी मिल की ख़ासियत ये थी कि वहां जो शक्कर बनती थी वे दूर से ही शीशे की तरह चमकती थी. मॉर्टन की चॉकलेट का तो कोई ज़ोर ही नहीं था. इसकी चर्चा आते ही सबके मुंह में पानी आ जाता था लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि मढ़ौरा चीनी मिल और मॉर्टन मिल दोनों ही रसातल में चले गए. अब सिर्फ उनकी यादें ही शेष हैं. वो भी एक ज़माना था जब इस कस्बे में काफी चहल-पहल हुआ करती थी. ज़िले भर से लोग यहां आकर किसी न किसी रूप में रोज़गार मिल हीं जाते थे. आप इसी बात से इस औद्योगिक कस्बे की चकाचौंध का अंदाज़ा लगा सकते हैं कि यहां की कुल जनसंख्या का 80 फ़ीसदी यहां की मिलों से ही रोज़गार पाता था.
1904 में हुई थी चीनी मील की स्थापनाजिस चीनी फैक्ट्री के नाम से मढ़ौरा जाना जाता था उसकी स्थापना 1904 में हुई थी. शक्कर उत्पादन में भारत में इसका दूसरा स्थान था.वर्ष 1947-48 में ब्रिटिश इंडिया कॉरपोरेशन ने इसे अपने अधीन ले लिया था.लेकिन नब्बे के दशक आते-आते प्रबंधन की ग़लत नीतियों के कारण यह मिल बंद हो गयी.
यहां 52 कमरों का गेस्ट हाउस जो 10 एकड़ में फैला था लेकिन अब वीरान है. करीब 25 साल से बंद पड़े चीनी मिल के कल-पुर्ज़े तक पुराने पड़ गए. धीरे-धीरे इसके कल-पुर्ज़े कबाड़ में बेच दिए गए. और रही सही कसर चोरों ने पूरी कर दी.अब चाहे चीनी मिल हो या मॉर्टन मिल दोनों खंडहर में तब्दील हो चुके हैं. मढ़ौरा की पहचान कभी 52 कमरों वाला शुगर फ़ैक्ट्री का गेस्ट हाउस हुआ करता था.
भीड़-भाड़ वाली सड़कें हुईं वीरानचीनी, मॉर्टन सारण और डिस्टीलरी की चार-चार फैक्ट्रियां. शाम के चार बजते ही जब मिल से छुट्टी का सायरन बजता था तो सड़कों पर चलने की जगह नहीं हुआ करती थी. इतनी चहल-पहल कि पूछिए ही मत. लोगों को आज की तरह अपने घर से बाहर जाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती थी, लेकिन आज वो सड़कें वीरान पड़ी हैं, टूटी-फूटी पड़ी हैं.
90 के दशक तक बिहार में क़रीब 24 बड़ी शुगर फैक्ट्रियां थीं. उनमें से ज्यादातर अब बंद हो चुकी हैं. मढ़ौरा, सुगौली, मोतिहारी, मोतिपुर, उरारु, रफीगंज, चनपटिया, चकिया, नरकटियागंज, बगहा, लोहट, गयाम, हरिनगर, समस्तीपुर, सकरी, बदमानखी, गरोर, वसंतपुर, रिग्गा, बिहटा, मझौलिया, शीतलपुर, पचरुखी, सीवान ये कुछ ऐसी फैक्ट्रियां थीं जिनमें चीनी के प्रोडक्शन का काम 90 के दशक के अंत तक चल रहा था.
लखनऊ की गंगोत्री इंटरप्राइजेज नामक कंपनी के हाथों इसे 1998-99 में बेचा गया ताकि इसे नई जिंदगी मिल सके. बावजूद इसके मिल चालू नहीं हो सकी. बिहार राज्य वित्त निगम ने सन् 2000 में इसे बीमारू घोषित कर अपने कब्जे में ले लिया. जुलाई 2005 में उद्योगपति जवाहर जायसवाल ने इसे ख़रीद लिया.
अब बात सारण फ़ैक्ट्री की. सारण फ़ैक्ट्री वो फ़ैक्ट्री हुआ करती थी जहां शुगर फ़ैक्ट्री में प्रयोग किए जाने वाले कल-पुर्ज़े बनाए जाते थे. जैसा की नाम से ही स्पष्ट था, सारण यानि इस फ़ैक्ट्री की पहचान सारण कमिश्नरी की सबसे बड़ी फ़ैक्ट्री के तौर पर थी. यहां से बनने वाले कल पुर्जे बिहार की चार कमिश्नरों में सप्लाई किए जाते थे. लेकिन सरकार की ग़लत नीतियों या यूं कहें कि उसकी उपेक्षा के चलते ये सारी फैक्ट्रियां एक के बाद एक बंद होती चली गईं.
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