जनाब ! अशोक स्तम्भ मूर्ति शिल्प भर नही है

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जनाब ! अशोक स्तम्भ मूर्ति शिल्प भर नही है

चंचल 

हमारी आख़िरी  गवाही है , नोट कर लें .इस विषय पर अब नही आऊँगा .  बड़ा सवाल था - जब - भारत की संसद दुनिया के  नक़्शे पर अब एक  ऐतिहासिक धरोहर के रूप में देखी जाती है , ऐसे में इसके अस्तित्व को मिटाया क्यों जा  रहा है ?  यह इमारत जहां  भारत की संसद लगती है , अनगिनत ऐतिहासिक घटनाओं का चश्मदीद गवाह है .

    इस इमारत ने एक देश की सैकड़ों नही , हज़ारों साल की ग़ुलामी को मिटा कर आज़ाद होने का ऐलान यहीं से किया है . इस इमारत ने दुनिया के सबसे बड़े डेमोक्रेट पंडित  जवाहर लाल नेहरु को बैठने के लिए कुरसी दी है .

    दुनिया की यह एक इमारत है  जिसकी कोख से समता का दर्शन उठता है और सारी दुनिया चौंक जाती है , ख़ुदमुख़्तारी का अद्भुत प्रयोग देखा है इस इमारत ने - एक  कुरसी पर महाराज धिराज राजा दरभंगा कामेश्वर सिंह बैठे हैं , तो उसी क़तार में मधेपुरा से आए किराय मुसहर बैठे हैं .

     यह इमारत भर नही है , यह देश का आइना है .इसी इमारत में विश्व नाथ सिंह  गहमारी ने पूर्वांचल की ग़रीबी का  बयान दिखाया था ,  पंडित नेहरु को विचलित होते देखा है इस इमारत ने .  इस इमारत के  ज़र्रे - ज़र्रे  में कहानियाँ हैं , ऐसी कहानी  जो किसी मुल्क के मुस्तकबिल की डगर बताती हैं .

 यह इमारत भर नही है , यह इतिहास है , इसके  गलियारे में इतिहास के चलने की आवाज़ सुनाई पड़ती है .यहाँ तीखी  झड़पों से उठा सन्नाटा आज भी साँस लेता सुनायी  पड़ता है ,  “तीन आने बनाम तेरह आने “  .

 कहाँ तक याद दिलायाजाय ? 

 इतने  बड़े और महत्व पूर्ण सवाल को किस  शातिर साज़िश के तहत  दर  किनार कर , बहस घुमा दिया गया अशोक स्तम्भ की तरफ़ ?        जनाब ! अशोक स्तम्भ मूर्ति शिल्प भर नही है , वह एक नेहतर सोच की अभिव्यक्त  है .एक बलवान अपनी ताक़त की दिशा बदल कर , करुणा में चला जाता है , अशोक  स्तम्भ वह सोच है .     हंसी तब आती है जब कला की व्याख्या  राजनीति (?) करने लगती है .

              

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