जेल से लल्लू के नाम पाती !

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जेल से लल्लू के नाम पाती !

चंचल 

  जहां से जानता हूँ , इसी क्रम में चलिए - ललितेश्वर पति त्रिपाठी , ( हमारे बेटे की तरह है )  पुत्र राजेश पति त्रिपाठी ( मित्र हैं भाई की तरह है  ) पुत्र मरहूम लोकपति त्रिपाठी जो घर मे लल्लू जी बोले  जाते थे , (हमारे अग्रज रहे ) पुत्र स्वर्गीय कमलापति त्रिपाठी .  यह कथा पंडित कमलापति त्रिपाठी से चलती है .  इसे पढ़ने से पहले आज मित्र Sudhendu Patel जी के पन्ने पर लिखा उनका एक  संस्मरण जरूर देख लें जो सेंट्रल जेल बनारस के पुस्तकालय से मिली पंडित कमलापति त्रिपाठी की लिखित एक किताब से जुड़ा है .  उस किताब का नाम है  ' बंदी की चेतना '  'जेल  से लल्लू के नाम पाती ' .  निहायत नफीस लेखों का गुलदस्ता है .  इस किताब से जुड़ी दो घटनाएं हमारे साथ घटित हुई है , इसका जिक्र कहीं कर चुका हूं .  

     आजादी की लड़ाई में पंडित कमलापति  त्रिपाठी इसी सेंट्रल जेल बनारस में कैद थे .  किन किन परेशानियों से उन्हें गुजरना पड़ रहा था, उसे उनजोने अपने बेटे लोकपति त्रिपाठी उर्फ लल्लू जी को पाती के रूप में लिखा और वही बाद में किताब की शक्ल में प्रकाशित हुई .  पंडित कमलापति त्रिपाठी  धुरंधर सियासतदां थे , बेहतर संपादक थे , कांग्रेस में समाजवादी कांग्रेस थे .  

 उसी किताब के हवाले से हमने अपन लोगों  की तकलीफ लिख कर पंडित जी नाम  लिफाफा भेज दिया .  उन दिनों पत्र सेंसर होने के बाद बाहर जाते थे और उसी तरह सेंसर होकर हम कैदियों को मिलते थे .  

 बहरहाल चिट्ठी का कोई जवाब नही आया .  

   जेल से छूटे तो एक दिन मन किया पण्डित जी से मिला जाय .  पंडित जी जनपथ के बंगला नम्बर 7 या 9 में रहते थे .   लान में पंडित जी पास काशी विष्वविद्यालय के प्रो0 हरिहर नाथ त्रिपाठी भी बैठे थे .  हम भी जाकर बैठ गए .  

पंडित जी पान घुलाये बैठे थे .  मौका मिलते ही  हमने पंडित जी कहा - हमने जेल से आपको खत लिखा था .  आपने जवाब नही दिया ? ' 

      पंडित जी चुप रहे .  थोड़ी देर में हमने फिर वही सवाल किया .  पंडित जी ने  एक  बस्ता मंगवाया  , हरिहर गुरु से बोले इसमे कहीं चिट्ठियों के बीच एक चिट्ठी इनकी भी होगी , निकालिए तो .  चिट्ठी मिल गयी .  पंडित ने हरिहर गुरु से कहा इसे आप भी पढ़ लीजिये बताइए इसका क्या जवाब होगा ? कह कर पंडित जी मुस्कुराये . हरिहर गुरु पढ़ते जाँय और मन ही मन मुस्कुराते जाँय .  अंत मे हरिहर गुरु ने  वह खत हमे पकड़ा दिया .  हमने देखा .  लिफाफा सही था .  पता दुरुस्त था .  लेकिन खत का मजमून उलट गया था .  यह खत हमने अपनी  महिला दोस्त को लिखा था ,वह पंडित जी के नाम वाले लिफाफे में चला गया था .  यह बदमाशी जेल के सेंसर ने की थी .  हमने चुपचाप खिसक लेना ही बेहतर समझा .  

      नोट करिये , उस जमाने तक नेता और कार्यकर्ता के बीच जो खतो किताबत होती थी वह सियासत का एक उसूल रहा जो पितामह बापू से चला और जमाने तक चलता रहा .  अब यह रिवायत ही बदल गयी है . फोटो साभार 


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