उपचुनाव के अलार्म को सुनेंगे अखिलेश ?

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उपचुनाव के अलार्म को सुनेंगे अखिलेश ?

डा रवि यादव

उत्तर प्रदेश में लोकसभा की आज़मगढ़ और रामपुर लोकसभा सीट के उपचुनाव में भाजपा की जीत समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव के लिए अलार्म है कि पार्टी अपने संगठन और रणनीति में बदलाव करे या हमेशा विपक्ष में बैठने के लिए तैयार रहे.दिल्ली का राजनैतिक रास्ता लखनऊ से जाता है प्रदेश में लोकसभा की 80 सीट है जिनमे से अब 66 भाजपा के पास है . भाजपा की केंद्र में सरकार उत्तर प्रदेश में उसकी जीत पर ही निर्भर है . अखिलेश यादव को सोचना होगा कि समाजवादी पार्टी पर प्रदेश ही नहीं देश के उन लोगों की अपेक्षा पर खरा उतरने की ज़िम्मेदारी है जो भाजपा की नीतियो से सहमत नहीं है.

यह सही है कि सम्पन्न चुनाव निष्पक्ष और निर्भीक माहौल में नहीं हुए और बीएसपी भाजपा के बीच अघोषित समझौता है . विधान सभा चुनाव में भी बसपा ने रणनीतिक रूप से टिकिट वितरण से भाजपा को लाभ पहुँचाया .बसपा  भाजपा के साथ मिलकर सरकार चला चुकी है उस बात को छोड़ भी दे तो उत्तर प्रदेश में राज्य सभा चुनाव में और अभी 2022 में सम्पन्न राज्यसभा चुनाव में राजस्थान में बीएसपी ने भाजपा समर्थित उम्मीदवार का खुलकर समर्थन किया अब राष्ट्रपति चुनाव में भी मयवतीजी भाजपा उम्मीदवार के समर्थन की घोषणा कर चुकी है.  


रामपुर में पचास प्रतिशत से अधिक मुस्लिम वोटर है वहाँ बीएसपी या कांग्रेस का कोई प्रत्याशी नहीं था अतः सपा प्रत्याशी असीम रजा का सीधा मुक़ाबला भाजपा प्रत्याशी घनश्याम लोधी से था वहाँ भाजपा प्रत्याशी की 42 हज़ार से जीत के दो ही अर्थ हो सकते है कि 45 - 50 हज़ार यादव सहित सभी हिन्दुओ, सिख और ईसाइयों के अलावा  42 हज़ार से अधिक मुस्लिमों ने भाजपा को वोट दिया या फिर जैसा आज़म खान का आरोप है कि  मुस्लिम वोटर वाले 2200 वोट के बूथ पर एक वोट और 900 के बूथ पर 6 वोट पढ़ना पुलिस के दमन को सिद्ध करते है. आज़मगढ़ में भी यह प्रशासनिक दक्षता प्रदर्शित की गई.


कोई संदेह नहीं कि चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग हुआ और चुनाव आयोग ने अपनी भूमिका का निर्वाह नहीं किया. मगर क्या समाजवादी पार्टी यह उम्मीद किए हुए है कि बीएसपी आगे भाजपा की मदद नहीं करेंगी ? क्या अखिलेश यादव सोचते है 2024 के लोकसभा चुनाव के पूर्व कोई टीएन शैषन मुख्य चुनाव आयुक्त होगा ? अगर नहीं तो समाजवादी पार्टी को इन स्थितियों का मुक़ाबला करने की रणनीति बनानी होगी और उस रणनीति को क्रियान्वित भी करना होगा. अखिलेश जी को अपनी कमियों की भी समीक्षा करनी होगी . विधान सभा चुनाव में देखा गया कि सपा के समर्थक समूह के वोटरो बड़ी संख्या में नाम वोटर लिस्ट में नहीं थे . प्रत्याशियों का देर से चयन हुआ अतः वे भी वोटर लिस्ट में आवश्यक संशोधन न करा सके . चुनाव समीक्षा में सपा ने अपनी इन विफलताओं को माना भी किंतु उपचुनाव में फिर प्रत्याशी चयन में विलम्ब हुआ.अखिलेश यादव को नसीहत देते हुए उनके गठबंधन सहयोगी ओम् प्रकाश राजभर ने एसी रूम से निकलकर जनता के बीच जाने की सलाह दी है. सपा का मुक़ाबला उस भाजपा से है जिसका मुख्य मंत्री निकाय चुनाव में प्रचार करता है जिसके राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे केंद्रीय रक्षा और गृह मंत्री जैसे पद पर रहने के बावजूद बूथ मैनेजमेंट का काम करते है तब अखिलेश का लोकसभा उपचुनाव में प्रचार से दूर रहना किसी की भी समझ से परे है. चुनाव जीतना हारना छोड़ भी दे तो कार्यकर्ताओ में उत्साह के किए अखिलेश को चुनाव प्रचार का हिस्सा होना चाहिए था.


अखिलेश जी को न केवल अपने सबसे बड़े समर्थक वर्ग के नाते मुस्लिमों पर हो रहे सरकारी भेदभाव पर मुखर होना होगा बल्कि एक समाजवादी होने के नाते भी पीड़ित मुस्लिमों की आवाज़ उठानी होगी . दलितों के प्रति भी वर्तमान सरकार का रवैया दमनकारी ही रहा है उनकी आवाज़ उठाने वाला तक कोई नहीं , महिला उत्पीड़न की घटनाओं में उत्तर प्रदेश देश में पहले पायदान पर है क्या आप उन पीड़ित महिलाओं दलितों की आवाज़ बुलंद किए बग़ैर ख़ुद को समाजवादी कह सकते हो?

समाजवादी पार्टी को अपने संगठन को नया रूप देना होगा . समाजवादी पार्टी लगातार तीन आम चुनाव हार चुकी है मगर जिलो में बदलाव के अलावा प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर संगठन में कोई बदलाव दिखाई नहीं देता. प्रदेश अध्यक्ष के अलावा सुनील साजन , आनंद भदौरिया , संजय लाठर जैसे अखिलेश यादव के क़रीबी नेता अपना बूथ जिताने में असफल रहते है .स्पष्ट रणनीति के साथ संघर्ष और जनता से निरंतर संवाद ही सपा का भविष्य तय करेगा और सौभाग्य या दुर्भाग्य से सबसे बड़े प्रदेश की मुख्य विपक्षी पार्टी का संघर्ष ही देश के तमाम वंचित , लोकतंत्र और संविधान प्रेमी लोगों की उम्मीदों के साथ देश के भाग्य का फ़ैसला करेगा.

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