औरंगज़ेब-एक पुनर्पाठ

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औरंगज़ेब-एक पुनर्पाठ

 प्रेमकुमार मणि 

 पिछले हप्ते यात्रा में मेरे साथ  Audrey Truschke  की किताब Aurangzeb : The man and The myth बनी रही ,जिसे मैं रुक -रुक कर पढता रहा. यह किताब पिछले साल पेंगुइन से प्रकाशित हुई है. लेखिका न्यू जर्सी के रुत्गेर्स यूनिवर्सिटी में दक्षिण एशियाई इतिहास की सहायक प्रोफ़ेसर हैं.  नाम से ही स्पष्ट है कि किताब की अंतर्वस्तु क्या है.

2015 में भारतीय राजनीतिक पटल पर औरंगज़ेब अचानक एक बार फिर चर्चित हुआ ; जब नयी दिल्ली में इसके नाम से ज्ञापित एक सड़क के नामान्तर का प्रसंग आया. सामान्यतया वह मध्यकालीन भारतीय इतिहास का खलनायक माना गया  है.  क्रूर ,झक्की , कट्टर और असहिष्णु आदि -आदि. वर्तमान की भारतीय राजनीति में जिस हिंदुत्व की विचारधारा को सरकारी स्तर पर प्रतिष्ठित - पोषित किया जा रहा है उसके लिए औरंगज़ेब के  साधन बनने की पूरी गुंजायश है. इसलिए दक्षिण एशिया की इतिहास की विदुषी -विशेषज्ञ युवा इतिहासकार को यह शायद ज़रूरी लगा कि औरंगज़ेब का पुनर्पाठ किया जाय.

  अबुल मुजफ्फर मुहीउद्दीन मुहम्मद औरंगज़ेब ( 1618 - 1707 ) मुगल साम्राज्य का छठा बादशाह था. उसने 1658 से लेकर मृत्युपर्यन्त अर्थात 3  मार्च 1707 तक हिंदुस्तान पर शासन किया. उसके सत्तासीन होने की कहानी  इतनी आम है कि उस पर विस्तार से चर्चा बेमानी है.  पिता शाहज़हां को कैद करने ,दो भाइयों को क्रूरतापूर्वक मार देने और तीसरे को देश के बाहर खदेड़ देने की कथा में कुछ भी नया नहीं है. फिर मुगलों - खास कर अकबर द्वारा स्थापित उदार धार्मिक नीति - के विपरीत एक कट्टर   मुस्लिम छवि के साथ खड़ा  होना , हिन्दू विरोधी अभियान चलाना (जजिया टैक्स और मंदिर ध्वस्तीकरण ) उसके कुछ ऐसे कृत्य हैं ,जिन पर चुपचाप हमने एक धारणा बना ली है . जवाहरलाल नेहरू जैसे उदारचेता तक ने अपनी किताब ' डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया ' में लिखा " औरंगज़ेब ने मुगलों के इतिहास की घडी को उलटी दिशा में घुमा दिया ,फलतः यह रुक गयी  और अंततः टूट गयी."  


प्रोफ़ेसर ट्रश्के  इन्ही रूढ़ मान्यताओं पर पुनर्विचार का आग्रह करती हैं . औरंगज़ेब पर काफी लिखा गया है . उस ज़माने पर भी पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है . समकालीन यूरोपीय दरबारी फ्रेंक्विस बर्नियर से लेकर बीसवीं सदी के इतिहासकार यदुनाथ सरकार तक ने बहुत कुछ बतलाया है . प्रोफ़ेसर ट्रश्के  किसी का खंडन नहीं करतीं .वह केवल तत्कालीन परिस्थितियों में पूरे मामले का आकलन और वर्तमान परिस्थितियों में पुनर्विचार चाहती  हैं  . या अधिक से अधिक पुनर्विश्लेषण . 

 बर्नियर ने अपने विवरण में मुग़ल दरबार का हाल विस्तार से बतलाया है . वह अद्भुत जिज्ञासु और अन्वेषी था . हालांकि ट्रश्के  की इस किताब में उसका अपेक्षित उपयोग नहीं किया गया है . शाहज़हां के चार बेटे ( दारा , शुजा , औरंगज़ेब और मुराद ) तथा तीन बेटियां ( जहाँआरा , रोशनआरा और गौहरआरा ) थीं . दारा शुकोह शाहज़हां के साथ दरबार में था ,लेकिन राजकाज से निस्पृह बना अपनी ज्ञान साधना में तल्लीन रहता था . उसे संस्कृत और फारसी का गहरा ज्ञान था और उसके नेतृत्व में संस्कृत साहित्य के हिन्दू धर्म सम्बन्धी ग्रंथों का फ़ारसी में अनुवाद हुआ था . उसने स्वयं हिन्दू और मुस्लिम दार्शनिक परंपरा में एकरूपता दिखाने का प्रयास करते हुए फ़ारसी में एक किताब भी लिखी .इसका संस्कृत रूप ' समुद्रसंगम ' और अंग्रेजी The confluence of two Oceans है . इन अनुवादों द्वारा ही यूरोपीय मनीषियों को उपनिषदों की जानकारी मिली . शुजा बंगाल में राजकाज देख रहा था और औरंगज़ेब व मुराद क्रमशः डेक्कन और गुजरात में . तीन बेटियां किसी न किसी भाई की पॉलिटिक्स साध रही थीं . जहाँआरा दारा से जुडी थी तो रोशनआरा औरंगज़ेब और गौहरआरा शुजा से . बर्नियर के अनुसार मुग़ल शाहज़ादियों की शादी नहीं होती थी ,क्योंकि मुग़ल इसे अपनी तौहीन समझते थे . बर्नियर के अनुसार शाहजहां का उसकी बड़ी बेटी जहाँआरा के साथ ऐसे सम्बन्ध थे ,जो नहीं होने चाहिए थे . शाहजहां के बड़े बेटे दारा की शादी में बत्तीस लाख रूपए खर्च किये गए थे . यह ताजमहल के निर्माण में हुए खर्च से डेढ़ गुना अधिक था . दारा ब्राह्मणों को उदारतापूर्वक वजीफे और अनुदान देता था .एक तरह से उनके लिए शाही खज़ाना खुला था .वह खुद को रूहानी इंसान कहलाना ज्यादा पसंद करता था . 

इसी शाही दरबार के विरुद्ध औरंगज़ेब का 1658 में विद्रोह हुआ .थोड़े समय में ही सैनिक कार्रवाई द्वारा उसने पूरी सल्तनत को काबू में कर लिया . पिता और भाइयों के साथ उसने जो किया ,उसे बतलाया जा चुका है 


.प्रोफ़ेसर ट्रश्के  की चिंता  है ,इस पूरे सिलसिले में औरंगज़ेब के चरित्र का आकलन कैसे किया जाय . हम जब इतिहास का संधान करते हैं तब उसे तत्कालीन परिस्थितियों और वर्तमान के सामाजिक मूल्यों के समन्वित आधार पर करना चाहते हैं . औरंगज़ेब शाहज़हां का तीसरा बेटा था . कायदे से उसे बादशाहियत नहीं मिलनी थी .सोलह साल की उम्र से  ही वह डेक्कन का राजकाज देख रहा था . शाही दरबार की जिन सच्चाइयों की तरफ बर्नियर का ध्यान गया है , वह औरंगज़ेब को भी उसकी बहन रोशनआरा द्वारा मालूम होगी . राजनीति को विद्वता से अधिक कार्यकुशलता की दरकार होती है . इन सब स्थितियों में यदि दारा बादशाह बन गया होता तो शाहज़हां के जीवनकाल में ही मुगलिया सल्तनत चार -पांच हिस्सों में बँट गया होता . क्योंकि मुराद और शुजा ने लगभग अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी .दारा को कोई उज्र नहीं होता यदि औरंगज़ेब भी डेक्कन में स्वतन्त्र हो जाता . यदि यह सब होता तो राजनीतिक परिणाम यही आता कि यूरोपीय शक्तियां भारत पर पचास साल पहले काबिज़ होतीं . 

अब ऐसे में औरंगज़ेब के कृत्यों को देखा जाय . क्या उसने ऐसा कुछ किया जो भारत में कभी नहीं हुआ था ? जवाब शायद यह होगा कि उसने वही किया जो कभी  अशोक मौर्य ने किया था ,या उस से भी पूर्व बिम्बिसार -पुत्र अजातशत्रु ने .या बिलकुल आज के ज़माने में नरेंद्र मोदी ने . ( आज  अपने वरिष्ठों या दावेदारों को मार्गदर्शक मंडल में डालने से ही काम हो जाता है .)  मैकियावेली ने अपनी किताब - प्रिंस - में एक  शासक से ऐसी ही उम्मीद की है . उसके अनुसार राजा को आधा ही मनुष्य होना चाहिए . हर हाल में उस से आधे पशुत्व यानि पशुवत व्यवहार की अपेक्षा की गयी है . औरंगज़ेब ने क्रूरतापूर्वक विरोधियों को ख़त्म किया और राजसत्ता पर काबिज हुआ . वह उसकी राजनीति थी .वह लोकतान्त्रिक ज़माने का नहीं था .एक परंपरा ज़रूर होती थी , लेकिन कोई संविधान तब नहीं था ,जिसके साथ इंदिरा गाँधी की तरह उसने छेड़छाड़ किया था . राजसत्ता केलिए हर चीज जायज है की मकियावेलियन नीति पर वह अनजाने चल रहा था . वह संभवतः इतिहास का अभिप्रेत था .

एक तरह से देख जाय तो सभी मुग़ल बादशाह थोड़े खब्ती थे . अकबर पर इसी शीर्षक से एक औपन्यासिक कृति देने वाले शाज़ी ज़मां का तो कहना है कि अकबर के बारे में उस दौर के इतिहासकारों ने जिस तरह की हालत का जिक्र किया है उसे आज बाइपोलर डिसऑर्डर मन जा सकता है . अकबर डिस्लेक्सिया से भी पीड़ित था . पढाई से उसे डर लगता था . उसका बाप हुमायूँ सीढ़ियों से गिर कर मरा . वाकया यह हुआ कि सीढ़ियों से उतरते हुए अज़ान की आवाज सुनाई पड़ी और उसने बिना सोचे -समझे घुटनों के बल बैठना चाहा . लुढ़कना ही था . उसका बाप बाबर भी कुछ वैसा ही था . जहांगीर , शाहज़हां , दारा शिकोह से लेकर आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर में भी सनकीपन के लक्षण किसी न किसी मात्रा में थे . इसी परिप्रेक्ष्य में औरंगज़ेब को भी देखा जाना चाहिए .  

व्यक्तिगत रूप से औरंगज़ेब में अन्य मुग़ल बादशाहों की तुलना में  खूबियां अधिक थीं . वह अय्याश बिलकुल नहीं था . शराब से दूर रहता था .यह शायद इसलिए भी कि वह इस्लाम के कायदों पर चलना चाहता था . समय निकाल कर वह कुरआन की प्रतियां और मज़हबी टोपियां बनाता था और इसे बेचता था . इस  से वह निजी खर्च चलाता था . खुद पर शाही ख़ज़ाने लुटाने की मुग़ल परंपरा के वह विरुद्ध था और इसे गुनाह समझता था . उस का पहनावा शाही जरूर था ,लेकिन फिजूलखर्च वह बिलकुल नहीं  था . उस ने अपने बेटे -बेटियों की शादी में अपने बाप की तरह बेशुमार खर्चे नहीं किये . उसका अपना मक़बरा खुल्दाबाद में सड़क किनारे बहुत साधारण किस्म का है . हाँ ,उसकी बीवी का मक़बरा थोड़ा बेहतर ज़रूर है . 1680 के बाद वह मशहूर मुग़ल मयूर सिंहासन छोड़कर डेक्कन चला गया और लौटकर कभी उत्तर भारत नहीं आया . वह संभवतः पहला शासक था जिसने दक्षिण भारत के महत्व को समझा था . हाँ ,साम्राज्य विस्तार का खब्त उस पर जरूर सवार था . उसने मुग़ल सल्तनत को इतना विस्तार दिया ,जितना वह कभी नहीं था . राजनीति में नरमी वह  जानता ही नहीं था . अपने बागी बेटे के साथ भी उस ने वही व्यवहार किया जो भाइयों और पिता के साथ . उसे मुल्क से खदेड़ दिया और वह बाहर ही मर गया . इससे उसके मिज़ाज़ का पता चलता है . 

औरंगज़ेब पर सबसे बड़ा इलज़ाम उसके हिन्दू विरोधी होने ,दरबार में संगीत परंपरा को ख़त्म करने और मंदिरों को ध्वस्त करने का है . प्रोफेसर ट्रश्के का अध्ययन बतलाता है औरंगज़ेब के शासनकाल में हिन्दू प्रतिनिधित्व 22 प्रतिशत से बढ़कर 32 प्रतिशत हो गया . औरंगज़ेब ने 49 वर्षों तक राज किया .इतने लम्बे शासनकाल में तथ्यों के अनुसार दर्ज़न भर मंदिरों को तबाह किया गया . डेक्कन में तो उसने  राजकीय कारणों से एक मस्जिद भी ध्वस्त करवा दी . काशी विश्वनाथ और मथुरा के केशव मंदिर को इसलिए तबाह किया गया कि बादशाह को वहां से चलनेवाली राजविरोधी गतिविधियों की जानकारी मिली थी. इसलिए इसका कारण धार्मिक नहीं ,राजनीतिक माना जाना चाहिए . मौजूदा काल में ( 1984 में ) अकालतख्त को तबाह किये जाने की घटना से इसकी तुलना की जानी चाहिए . इन सब के  बरक्श औरंगज़ेब ने हिन्दू परिपाटियों को समृद्ध करने में दिलचस्पी ली . .उसने संस्कृत विद्वानों को वजीफे और अनुदान बराबर दिए .  रामायण और महाभारत का फ़ारसी में अनुवाद करवाया . 

संगीत से उसकी अरुचि नहीं थी . क्योंकि यह यदि होता तो एक संगीतज्ञ हीराबाई से वह रोमांस नहीं करता . उसका रोमांस नेहरू -एडविना से कहीं गहरा था . इससे पता चलता है कि वह उतना तंग और सख्त दिल नहीं था ,जितना जाना जाता है .हाँ , औरंगज़ेब का मानना था संगीत पर शाही धन नहीं खर्च होना चाहिए ;क्योंकि यह दरबारियों केलिए होती है ,रियाया अर्थात जनता केलिए नहीं . 

यह किताब बतलाती है कि दूसरे मुग़ल बादशाहों की ही तरह औरंगज़ेब में भी खूबियां -खराबियां दोनों थीं  . वह ऐसा नहीं था , जिससे केवल नफरत की  जाय . कुछ मामलों में वह दूसरे मुग़ल बादशाहों से ज्यादा नैतिक था . उसने शाहज़ादियों को यह कह कर विवाह का अवसर और अधिकार दिया कि वे भी आम इंसान हैं . अपनी बेटी का विवाह दारा के बेटे के संग करके उसने भाई के  प्रति किये क्रूर व्यवहार केलिए शायद प्रायश्चित करने की कोशिश की . 

इतने लम्बे समय तक शासन करने से एक अर्थ यह भी निकलता है कि उसके शासनकाल में कानून का राज था और अमन- चैन कायम था . शिवाजी का विद्रोह ज़रूर हुआ लेकिन 1866 में शिवाजी से बात करने की उसने कोशिश की . अलबत्ता वार्ता विफल रही . शिवाजी भाग निकले .लेकिन अकबर ने जैसे राणाप्रताप  के चित्तौड़ को कुचल दिया था ,वैसा औरंगज़ेब ने नहीं किया . हाँ ,शिवाजी की  मृत्यु के बाद उनके बेटे के साथ औरंगज़ेब ने दरिंदगी ज़रूर की .लेकिन यह भी देखा जाना चाहिए कि उसने अपने बेटे को भी मुआफ नहीं किया . 

कुल मिलाकर यही कहा जाना चाहिए कि औरंगज़ेब अन्य मुग़ल बादशाहों से अधिक व्यावहारिक था . राजतंत्रीय माहौल में उसने आम इंसान की धड़कन शामिल करने की कोशिश की . शायद इसके पीछे उसकी धार्मिक आस्था काम कर रही थी . यह जरूर है कि कुरआन के माध्यम से ही उसने इंसानियत समझने की कोशिश की ,अपनी बुद्धि का ज्यादा इस्तेमाल नहीं किया . हाँ ,  कुछ मामलों में उस ने कमाल किया है . जैसे जुबान अथवा भाषा  पर सरकारी नीति के  मामले में .उसने अरबी -फ़ारसी -संस्कृत के मुकाबले हिंदी को तरजीह दी . दक्खिनी हिंदी के विकास में उसका महत्वपूर्ण योगदान है . शिक्षा पर उसके अपने विचार थे .बर्नियर ने उसके शिक्षक के साथ उसकी एक मुलाकात का जिक्र विस्तार से किया है . उसने अपने उस्ताद को तालीम के हाल पर विचार करने को कहा .इस बात की शिकायत भी की कि मुझे जनता की जुबान की जगह अरबी -फ़ारसी क्यों पढ़ाई गयी . केवल धार्मिक शिक्षा क्यों दी गयी . उसने अपने शिक्षक से पूछा क्या आपको मालूम नहीं था ,मुझे राजकाज देखना है ,धर्मोपदेशक नहीं बनना है . प्रोफ़ेसर ट्रश्के ने इस बिंदु पर ध्यान नहीं दिया ,यह अफसोसजनक है . 

जिस धार्मिक कट्टरता केलिए औरंगज़ेब की आलोचना होती है उसे आधुनिक भारत के आदर्श सम्राट अशोक के साथ रख कर देखना चाहिए . जिसने बौद्ध धर्म के प्रचार -प्रसार केलिए पूरी शासन व्यवस्था और अपने परिवार को लगा दिया था . इसके मुकाबले औरंगज़ेब ने लाहौर में एक शाही मस्जिद बनाने के सिवा इस्लाम के प्रचार -प्रसार केलिए कुछ खास नहीं किया . 

मेरी अपनी राय है कि प्रोफ़ेसर ट्रश्के की यह किताब छात्रों से अधिक राजनेताओं केलिए उपयोगी और ज़रूरी है . मध्यकालीन इतिहास से जुडी हमारी रूढ़ मान्यताओं पर पुनर्विचार केलिए यह हमे उत्साहित करती है .


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