क्या अखिलेश यादव के ख़िलाफ़ मुहिम में कुछ दम है

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क्या अखिलेश यादव के ख़िलाफ़ मुहिम में कुछ दम है


डा रवि यादव


 देश या किसी प्रदेश में आम चुनाव में स्पष्ट बहुमत से किसी पार्टी की सरकार बनने के बाद सामान्यत: राजनीतिक गतिविधियां कम होती है सत्ता पक्ष जनता से किए वायदे पूरा करने व अपनी महत्वकांक्षी योजनाओं को अमलीजामा पहनाने की कोशिश करता है तो विपक्ष जनादेश का सम्मान कर सत्ता पक्ष को जनहित के कामों के लिए पर्याप्त समय देता है लेकिन उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के बाद जिस तरह मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी के ख़िलाफ़ सत्ता पक्ष , कांग्रेस , बीएसपी, आज़म के बहाने कुछ मुस्लिम, मीडिया और पार्टी प्रमुख अखिलेश के चाचा शिवपाल सिंह यादव अतिसक्रिय दिखाई देते है तो वह सामान्य राजनैतिक घटना नहीं उसके पीछे ख़ास वजह है.

भाजपा स्पष्ट बहुमत से सरकार बनाने में सफल रही है और भाजपा गठबंधन समाजवादी पार्टी गठबंधन से लगभग छःफ़ीसदी अधिक वोट प्राप्त करने में कामयाब रहा है मगर विधान सभा चुनाव मुहिम के समय जो माहौल था वह सभी ने देखा है. भाजपा के कई प्रत्याशियों को गाँवों  में अप्रत्याशित विरोध का सामना करना पड़ा , अनेक रैलियों में ख़ाली कुर्सियाँ देख स्टार प्रचारकों के असंतुष्ट होने की ख़बरें , प्रधान मंत्री की रैलियाँ रद्द होने , गृह मंत्री द्वारा रोड शो में “ बंद करो रोड शो लोग साथ नहीं आ रहे” कहने का वीडियो वायरल होने, इटावा शहर विधान सभा क्षेत्र से भाजपा प्रत्याशी रही सरिता भदौरिया जी का “ पहले तो हमारा आटा खा गए , नमक खा गए तेल खा गए ...और अब नमस्कार भी नहीं ले रहे “ जैसे अनेक मामले है जो भाजपा की चिंता का विषय है. यू तो चुनाव आयोग व सरकारी मशीनरी की भूमिका पर  भी प्रदेश की जनता में सवाल है जो अंतत: सत्ता पक्ष के लिए असुविधाजनक होंगे किंतु अभी बड़ा सवाल यह है कि विधान सभा चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति दो ध्रुवीय हो चुकी है जिसके निकट भविष्य में बहुध्रुवीय होने की कोई सम्भावना नहीं है.दो ध्रुवीय राजनीति में एक ध्रुव का नुक़सान दूसरे का स्वाभाविक लाभ बन जाता है तो सत्ता से किसी भी कारण असंतुष्ट व्यक्ति सामान्यतः मुख्य विरोधी का समर्थक हो जाता है.


मयवती जी का भाजपा साथ अब “ओपन सीक्रेट” है जिसे प्रदेश की जनता व बीएसपी समर्थक भी जानते हैअतः उन पर कोई बात करना व्यर्थ है. हाँ कांग्रेस को स्पष्ट करना चाहिए कि वह भाजपा से लड़ना चाहती है या भाजपा के लिए लड़ना चाहती है ? कांग्रेस का यह रवैया अंततः कांग्रेस के लिए ही नुक़सान पहुँचाने वाला है .कांग्रेस ने प्रमोद कृष्णन के पहले भी पिछले लगभग दो साल से इमरान प्रतापगढ़ी और अनिल यादव को अखिलेश यादव पर नियमित प्रहार के लिए लगाया हुआ है. प्रमोद कृष्णन जेल में आज़म खान से और इमरान प्रतापगढ़ी खान परिवार से मिलकर अपना सहयोग व्यक्त कर सपा पर आज़म की अनदेखी का आरोप लगा रहे है जबकि ये कभी नवाब क़ाजिम अली को नहीं समझा सके जो आज़म परिवार की मुसीबतों के दो में से एक प्रमुख सूत्रधार है. नवाब परिवार कांग्रेस से हमेशा जुड़ा रहा है और इस बार भी काजिम ही रामपुर से कांग्रेस उम्मीदवार थे.


जहाँ तक आज़म खान का सवाल है ,वे एक प्रखर वक़्ता है जब वे कुछ बोलते है तो सुनने वाले के पास सुनकर नज़रअन्दाज़ करने का विकल्प नहीं होता उसे ताली या गाली में से ही एक विकल्प चुनना होता है . अतः यह धर्मनिरपेक्ष समाजवादी नेता हिंदू सम्प्रदायवादियों के लिए हमेशा पंचिंग पेड़ रहा है. परपीढ़क हिंदूवादियों के लिए आज़म खान पर किया गया हर जायज़ नाजायज़ हमला ऊर्जा देता रहा है. अतः आज़म खान को मुद्दा बनाकर कोई भी आंदोलन आज़म पर सरकारी दमन का कारण ही बनना है. आज़म खान का अतीत बताता है कि वे सपा प्रमुख से नाराज़गी के बावजूद पार्टी नहीं छोड़ेंगे. पार्टी में न केवल मुस्लिम बल्कि अन्य समाजवादी पार्टी कार्यकर्ताओं के मन में उनके प्रति आदर का भाव है इसी का परिणाम है कि अखिलेश यादव द्वारा चुनाव प्रचार में उपयोग किए गए वाहन” विजय रथ “ सहित सम्पूर्ण प्रदेश में प्रचार सामिग्री पर अखिलेश - मुलायम सिंह के अलावा सिर्फ़ आज़म खान को वरीयता दी गई थी , यदि फिर भी किसी कारण वे सपा छोड़ कर कोई पार्टी बनाते है या अन्य किसी दल का हिस्सा बनते है तो यह आज़म खान भी जानते है कि उनकी थोड़ी भी सफलता  भाजपा को मज़बूती का कारण मानी जाएगी.

कुछ अतिउत्साही या प्रायोजित मुस्लिम लेता अखिलेश यादव पर मुस्लिम विरोधी होने का आरोप लगा सकते है मगर आम मुस्लिम यह जनता है कि भाजपा की जीत का सबसे प्रमुख कारण सपा को मुस्लिम परस्त और अखिलेश को मौलाना मुलायम की तरह अखिलेश अली प्रचारित/सिद्ध करना ही रहा है. हॉ स्वयं अखिलेश यादव इस आरोप पर शायद यही सोच सकते है-


रुख़सार पे मेरे ये तमाचा के निशाँ है ,


और वो पूछते है कि  वफ़ादार कौन ?



ज़िंदगी उपलब्ध में बेहतर विकल्प के चुनाव की संभावनाओं का अवसर देती है सर्वोत्तम / आदर्श विकल्प सिर्फ़ लक्ष्य होता है सम्भव नहीं. आज की हक़ीक़त यहीं है कि यूपी में भाजपा/?संघ की विचारधारा , कार्य और कार्यशैली से असहमत लोगों के पास सिर्फ़ एक विकल्प है और वह समाजवादी पार्टी है. इस स्थिति में न आज़म के कहने से मुस्लिम सपा से अलग होंगे और न शिवपाल सिंह अलग होकर यादव वोटर को प्रभावित कर सकेंगे.

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