मोदी देउबा का मिलन

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मोदी देउबा का मिलन

अब बेपटरी नहीं होंगे दोनों देशों के संबंध

यशोदा श्रीवास्तव

नेपाली प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा और भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बीच हुए वार्ता के क्रम में फिर एक बार यह सच सामने आया कि नेपाल का भारत जैसा निकटवर्ती मित्र और पड़ोसी कोई तीसरा कभी नहीं हो सकता.  13 जुलाई 2021 को प्रधानमंत्री की शपथ लेने के बाद देउबा की यह पहली भारत यात्रा है.  अपनी पत्नी और कुछ मंत्री तथा उच्च प्रशासनिक अधिकारियों के साथ देउबा तीन दिवसीय भारत की यात्रा समाप्त कर रविवार को शाम काठमांडू लौट गए.  देउबा की इस यात्रा की खास बात यह रही कि दिल्ली प्रवास के अंतिम दिन यानी रविवार को बनारस बाबा विश्वनाथ की दर्शन करने के बाद वाया दिल्ली काठमांडू वापस हुए.  बाबा विश्वनाथ और काठमांडू के पशुपतिनाथ का कनेक्शन कुछ तो है. 

जब दो पड़ोसी राष्ट्रों का शीर्ष नेतृत्व मिलता है तो तमाम सारे मुद्दों और परियोजनाओं पर बात होती है.  नेपाल में तो भारत की तमाम परियोजनाएं पहले से चल रही है जिसमें सड़क और बिजली की परियोजनाएं प्रमुख हैं.  भारत नेपाल में हर संकट के समय बड़े भाई की तरह खड़ा रहा.  पिछले वर्ष नेपाल में आए भूकंप के वक्त भारतीय पीएम मोदी ने दिल खोलकर नेपाल की मदद की. ओली के शासन काल में नेपाल में चीन का दखल बढ़ा ,और भारत विरोध की हवा भी तेज हुई तो इसका असर नेपाल में भारत की परियोजनाओं पर भी पड़ा.  कई या तो ठप हो गई या उसकी रफ्तार थम गई.  देउबा और मोदी की मुलाकात में इन सारी परियोजनाओं को रफ्तार देने की बात हुई.  14 साल से ठप नेपाल की छोटी दूरी की रेल परिचलन शुरू होने की बात भी हुई.  दोनों देशों के शीर्ष नेतृत्व के बीच वार्ता का सार यह रहा कि अब दोनों देशों के रिश्ते बेपटरी नहीं होंगे.  भारत ने नेपाल को 75 नई परियोजनाओं की सौगात भी दी है. 

ओली के शासन काल में भारत और नेपाल के बीच रिश्ते काफी तनाव पूर्ण थे.  लिंपियाधुरा लिपुलेख व काला पानी विवाद चरम पर था.  देउबा के भारत में मौजूदगी के वक्त इस मुद्दे को ज्यों का त्यों पड़ा रहने देने की पूरी कोशिश की गई.  भारत और नेपाल दोनों चाहते थे कि गड़े मुर्दे उखाड़ कर माहौल कड़वा करने से बचा जाय. 

देउबा और मोदी दोनों ही राष्ट्राध्यक्ष  भारत और नेपाल के बीच मधुर संबंधों की बिल्कुल साफ नियत से इच्छुक हैं,इसका ताजा उदाहरण नेपाल के पश्चिमांचल में गंडकी अंचल के कास्की जिले में लाहाचोक नामक स्थान पर देउबा की भारत यात्रा के चार दिन पहले नेपाल की उर्जा मंत्री पंफा भुसाल द्वारा 42 कीमी मोदी लेखनाथ नामक ट्रांमिशन लाइन का उद्घाटन है.  नेपाल में ऐसा पहली मर्तवा हुआ जब किसी परियोजना का उद्घाटन भारतीय पीएम के नाम से हुआ हो.  

देउबा भारत की अपनी इस यात्रा पर सबसे पहले भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जेपी नड्डा से मिले.  नेपाल में इन दिनों स्थानीय निकाय का चुनाव चल रहा है.  इस चुनाव में फिलहाल ओली के नेतृत्व वाली एमाले अकेले चुनाव लड़ने की रणनीति पर काम कर रही है जबकि पांच दलों के समर्थन से सरकार चला रही नेपाली कांग्रेस यह चुनाव अकेले लड़ेगी या गठबंधन के सहयोगी साथियों के साथ,इसे लेकर अभी फैसला होना बाकी है.  वैसे इस चुनाव को लेकर नेपाल के माहौल पर गौर करें तो नेपाली कांग्रेस के सहयोगी दल भी अलग-अलग झंडा गाड़ कर चुनाव लड़ने को कमर कस चुके हैं. देउबा के भारत यात्रा और इस चुनाव का प्रत्यक्ष कोई तारतम्य भले न दिख रहा हो लेकिन करीब आठ माह बाद होने वाले दूसरे आम चुनाव के पूर्व गांव पालिका,नगर पालिका और महानगर पालिका के743 सीटों का यह चुनाव दरअसल इस बात का लिटमस टेस्ट है कि केंद्रीय सत्ता में किस पार्टी का कब्जा होने वाला है. 

 नेपाल में बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय की ओर से नेपाल के हिंदू राष्ट्र की पुनर्वहाली जोर पकड़ रही है.  मधेश क्षेत्र के 22 जिलों में भारत की तर्ज पर तमाम हिंदू संगठन सक्रिय हो गए हैं साथ ही काठमांडू में भारत से जुड़ाव रखने वाले बड़े व्यवसाई व उद्योग पति भी हिन्दू राष्ट्र के हिमायती हैं.  नेपाली प्रधानमंत्री देउबा ने पिछला आम चुनाव हिंदू राष्ट्र की पुनर्वहाली के मुद्दे पर ही लड़ा था लेकिन कामयाबी नहीं मिली थी.  देउबा के भारत दौरे को नेपाल में देउबा विरोधी उनके हिंदू एजेंडे से भी जोड़कर देख रहें हैं और मुमकिन है ओली के नेतृत्व वाली एमाले इसे हवा भी दे.  नेपाल में इधर हाल के वर्षों में चौंकाने वाला मामला यह आया है कि तराई के इलाकों में कम्युनिस्ट और क्रिश्चियन समान रूप से बढ़े हैं.  हैरत है कि भारत सीमा से सटे नेपाली जिला कपिलवस्तु तथा सिद्धार्थनगर में घर घर जहां कम्युनिस्ट के झंडे लहरा रहे हैं वहीं अनगिनत चर्च भी स्थापित हो गए हैं. 

 पांचवीं बार पीएम बनें नेपाली कांग्रेस के शेरबहादुर देउबा को स्वाभाविक रूप से भारत समर्थक नेपाली राजनेता माना जाता है.   नेपाल की राजनीति में नेपाली कांग्रेस को अन्य दलों की अपेक्षा भारत के करीबी पार्टी की दृष्टि से देखा जाना नया नहीं है.  

ध्यान रहे 2016 में नेपाल को धर्म निरपेक्ष राष्ट्र घोषित करते वक्त प्रचंड तत्कालीन सरकार के साथ थे,अब वे देउबा के साथ हैं. ओली को सत्ता से दूर कर इस बार देउबा को इस कुर्सी तक पंहुचाने में प्रचंड की भूमिका को दुनिया ने खुली आंखो देखा है.  ऐसे में नेपाल को मजबूत लोकतंत्रिक देश के रूप में देखने वाले लोकतांत्रिक देशों की नजर देउबा सरकार मे प्रचंड की भूमिका पर है .  प्रचंड 2018 के आम चुनाव के पहले भी देउबा के ही नेतृत्व वाले नेपाली कांग्रेस सरकार के साथ थे.  आम चुनाव आया तो नेपाल भर में चर्चा थी कि नेपाली कांग्रेस और माओवादी केंद्र(प्रचंड) साथ साथ चुनाव लड़ेंगे लेकिन  प्रचंड ने एमाले(ओली) से हाथ मिलाकर नेपाली राजनीति के धुरंधर समीक्षकों और विश्लेषकों को चौंका दिया था.  नेपाल का यह पहला आम चुनाव बड़ा दिलचस्प था जब नेपाली कांग्रेस नेपाल के हिंदू राष्ट्र के पुर्नबहाली के मुद्दे पर चुनाव लड़ रही थी वहीं ओली का चुनावी मुद्दा खुलकर भारत विरोध का था.  थोड़ा पीछे हटकर देखेंगे तो प्रचंड की राजनीतिक पृष्ठभूमि में उनका भारत विरोधी तेवर साफ नजर आएगा.  प्रचंड ओली की सरकार के लिए किंगमेकर बनकर उभरे.  ओली सरकार को मजबूती तथा नेपाल में वामपंथी विचारधारा को मजबूती देने की बड़ी कुर्बानी करते हुए प्रचंड ने अपनी पार्टी माओवादी केंद्र का ओली की वामपंथी दल एमाले में विलय तक कर लिया था.  प्रचंड नई कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष मात्र थे.  यह पुरानी बात हो गई है कि सत्ता में बराबर की भागीदारी को लेकर ओली और प्रचंड अलग अलग हुए और इसका परिणाम ओली के सत्ता च्युत तक पहुंच गया.  कांग्रेस और वाम दल नेपाल की राजनीति में नदी के दो किनारे जैसा रहा. अब ये नेपाली कांग्रेस के नेतृत्व वाले सरकार के खेवनहार जैसा हैं.  बताने की जरूरत नहीं कि नई सरकार के पास वक्त कम है, काम ज्यादा! 

 कहना न होगा,राजशाही खत्म होने के बाद नेपाल के हिस्से में अदल बदलकर सरकार के वही पुराने चेहरे आते जाते रहे जो राजशाही के वक्त में थे.  देउबा सरकार की बड़ी चुनौती है सरकार सरकार के खेल के इतर नेपाली जनता में परिवर्तन की अनुभूति दिलाना.  यकीनन,देउबा सरकार यदि इसमें 50 प्रतिशत ही कामयाब हुई तो यह बड़ी बात होगी.  मोदी और देउबा की मुलाकात के बाद भारत और नेपाल के बीच संबंधों की जो नई इबारत लिखी जा रही है,प्रचंड को कितना रास आएगा,इस बारे में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी. हां नेपाल के बदले हालात के बाद प्रचंड के भारत विरोधी रुख में थोड़ी नरमी आई है.  पिछले साल जब उत्तराखंड के लिपुलेख, लिंपियाधुरा और कालापानी को लेकर ओली ने भारत के खिलाफ आग उगलना शूरू किया तब प्रचंड ने ओली की भारत के प्रति कड़े मिजाज को गलत ठहराया था.  प्रचंड अपनी भारत की नीति को लेकर कितना बदल पाए हैं,इसका आकलन अभी ठीक नहीं है.  आखिर इस बात को कैसे भूला जा सकता है कि 1996 में बतौर प्रधानमंत्री देउबा जब भारत की यात्रा पर थे तभी प्रचंड ने जनयुद्ध का बिगुल बजा दिया था.  हां एक बात है कि भारत विरोध के मामले में ओली अलग थलग जरूर पड़ चुके हैं.  

शेर बहादुर देउबा का बतौर प्रधानमंत्री यह पांचवी पारी है.  और इसे संयोग ही कहा जाएगा कि उनके पांचवी पारी में पांच दलों का गठबंधन भी है.  नेपाली कांग्रेस के 61, नेकपा माओवादी केंद के 49, नेकपा एमाले (माधव कुमार नेपाल पक्ष) के 26, जनता समाजवादी पार्टी (उपेन्द्र यादव समूह ) के 12 और राष्ट्रीय जनमोर्चा ‘नेपाल‘ का एक यानी कुल 149 सांसद  शेर बहादुर देउबा के साथ हैं.  आगे या दूसरे आम चुनाव तक यह गठबंधन यदि बना रहा तो देउबा के छठवीं पारी की संभावना प्रबल है और यदि बीच में किसी मुद्दे को लेकर टकराव हुआ और नेपाली कांग्रेस, माओवादी केंद्र,एमाले तथा मधेशी दल अलग-अलग चुनाव लड़े तो ओली के नेतृत्व वाली एमाले केंद्रीय सत्ता के लिए बड़ा दल बनकर उभरेगा और नेपाल में एक बार फिर सरकार सरकार का खेल शुरू होगा. ऐसे में नेपाली जनता जिसे परिवर्तन की अनुभूति का इंतजार है वह फिर स्वयं को ठगा ही महसूस करेगी. 


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