क्या सामाजिक और सत्ता परिवर्तन की प्रक्रिया रुक गई है?

गोवा की आजादी में लोहिया का योगदान पत्रकारों पर हमले के खिलाफ पटना में नागरिक प्रतिवाद सीएम के पीछे सीबीआई ठाकुर का कुआं'पर बवाल रूकने का नाम नहीं ले रहा भाजपा ने बिधूड़ी का कद और बढ़ाया आखिर मोदी है, तो मुमकिन है बिधूड़ी की सदस्य्ता रद्द करने की मांग रमेश बिधूडी तो मोहरा है आरएसएस ने महिला आरक्षण विधेयक का दबाव डाला और रविशंकर , हर्षवर्धन हंस रहे थे संजय गांधी अस्पताल के चार सौ कर्मचारी बेरोजगार महिला आरक्षण को तत्काल लागू करने से कौन रोक रहा है? स्मृति ईरानी और सोनिया गांधी आमने-सामने देवभूमि में समाजवादी शंखनाद भाजपाई तो उत्पात की तैयारी में हैं . दीपंकर भट्टाचार्य घोषी का उद्घोष , न रहे कोई मदहोश! भाजपा हटाओ-देश बचाओ अभियान की गई समीक्षा आचार्य विनोबा भावे को याद किया स्कीम वर्करों का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन संपन्न क्या सोच रहे हैं मोदी ?

क्या सामाजिक और सत्ता परिवर्तन की प्रक्रिया रुक गई है?

डा रवि यादव

पाँच राज्यों में हालिया विधान सभा चुनाव में चार राज्यों में भाजपा की जीत से एक तरफ़ भाजपा समर्थक गद गद है और 2024 के लोकसभा चुनाव में जीत सुनिश्चित मान रहे है तो विपक्ष समर्थक निराश दिखाई दे रहे है ख़ासतौर पर 80 लोक सभा सीट वाले उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत निसंदेह हिंदुवादी ताक़तों के लिए उत्साहित करने वाली है. राजनीतिक विश्लेषक उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल में मंत्रियों के वर्ग और जाति के आँकड़े से सामाजिक समीकरणों को साधकर आगामी लोकसभा चुनाव की तैयारी के लिहाज़ से देख रहे है. तो कुछ लोग मंडल -2 के पूर्ण होने की घोषणा भी कर दे रहे है.

बहरहाल ये विश्लेषण इतना सरल है नहीं जितना दोनो पक्ष कर रहे है. भाजपा की हिंदुवादी राजनीति का गणित भी तलवार की धार पर चलने का प्रयास है. कहने को यह बहुसंख्यकवाद या हिंदुवाद है किंतु वास्तव में यह सवर्ण जातिवाद है जिसकी सफलता सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को रोकने की क्षमता पर निर्भर करती है . सामाजिक रूप से प्रतिष्ठित और आर्थिक रूप से सम्पन्न वर्ग के साथ और सत्ता में होने से भाजपा सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को रोकने में अभी तक सफल रही है किंतु आज़ादी के बाद प्राप्त अधिकारों और उत्पन्न हुई जातीय अस्मिता के बोध को अधिक समय तक रोकना सम्भव नहीं होगा.

चुनाव परिणाम अगर भाजपा के अनुकूल रहे है मगर समाजवादी गठबंधन के वोट प्रतिशत में वृद्धि यह बताने के लिए काफ़ी है कि सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया रुकी नहीं है सिर्फ़ मंद हुई है. विधान सभा चुनाव के ठीक पहने भाजपा छोड़ सपा में शामिल हुए कैबिनेट मंत्री डाक्टर धर्म सिंह सैनी ने कहा था “ पिछले तीन साल से मेरे पास मेरे विभाग की कोई फ़ाइल नहीं आइ, यदि किसी फ़ाइल पर मेरे हस्ताक्षर हो तो मैं राजनीति से सन्यास ले लूँगा”. कोरोना महामारी के बीच आयुष मंत्री के पास कोई फ़ाइल नहीं आइ तो समझा जा सकता है इस तरह के कैबिनेट मंत्री क्या काम कर सकते है ? विभाग का या उस समाज का जिसमें इनके मंत्री बनने से सशक्तिकरण की उम्मीद की ज़ाती है. जैसे जैसे समय बीतेगा इन मुखौटे सहभागिता टूल्स की हक़ीक़त सामने आएगी.


कलसा पानी गरम हो,चिड़िया नहावे धूल .

चींटी ले अंडा चली तो बरखा भरपूर.


भविष्य में क्या होने वाला है ? उसके प्रतीक चिन्हों का खोजती /संकेत देती यह साधारण सी कहावत समसामयिक सामाजिक- राजनैतिक संदर्भ में बेहद असाधारण हो गई है .

लोकतंत्र , समानता , अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानवीय गरिमा के बारे में सोचने वालों के साथ यह कठिन समय है , सच्चाई पर बात करने और सोचने वालों  को धैर्य रखना होगा. लड़ाई इकतरफ़ा रूप से भाजपा के लिए भी उतनी आसान नहीं है जितना उसके समर्थक संचार माध्यम और समर्थक तथा हताश निराश विपक्ष समझ रहा है . पिछले पाँच वर्ष में विभिन्न विधान सभाओं के चुनाव में भाजपा को 29.2 फ़ीसदी मतदाताओं ने समर्थन दिया है अर्थात अभी भी सत्तर प्रतिशत से अधिक मतदाता भाजपा के ख़िलाफ़ है.


डाक्टर लोहिया के अनुसार वह राजनीति पापपूर्ण है जो रोटी की व्यवस्था न कर सके. रोटी के लिए नौकरी / काम देना होगा जो आर्थिक विकास से ही सम्भव है किंतु भाजपा के पास सिर्फ़ ग़ैर बराबरी आधारित सवर्ण जातिवादी सामाजिक नीति है आर्थिक उन्नति उसके एजेंडे का हिस्सा नहीं.

बराबरी की आकांक्षा और पेट की आग जब भी मज़बूत होगी तब तक कोई भी विश्लेषण अपूर्ण होगा.


एतिहासिक घटना क्रम पर द्रष्टिपात करें तो आप देख सकते हैं कि 1930 के दौर में अनेक ताकतवर नेताओं का उभार हुआ प्रथम विश्वयुद्ध और तीसा की मंदी को इसके लिए जिम्मेदार माना जा सकता है.  राष्ट्रीय गौरव की  लालसा में लोगों ने उन नेताओं को समर्थन दिया  मगर द्वितीय विश्वयुद्ध ने इस सोच की सीमाएं सामने ला दी और लोगों को व्यक्तियों के बजाय व्यवस्था को महत्व देने के लिए मजबूर किया. नेता प्रष्ठभूमि में चले गए और व्यवस्था प्रतिष्ठित हुई. फिर भूमंडलीकरण ने राष्ट्रों की सीमाओं के साथ नागरिकता वोध को भी शिथिल कर दिया और लोगों में आर्थिक शक्ति के विकेंद्रीकरण ,अवसरों की वृद्धि और आर्थिक न्याय की उम्मीद जगी मगर पिछले लगभग 10 वर्षों की मंदी से फिर से उल्टी हवा बहने लगी है. विश्व  ग्राम  के  नागरिक अचानक अपनी राष्ट्रीय , जातीय और नस्ली पहचान के प्रति कुछ अधिक ही सजग हो गऐ है. दर असल भूमंडलीकरण ने आर्थिक विकेंद्रीकरण के बजाय केंद्रीकरण को बढाया जिससे समाज के बड़े हिस्से में असंतोष उभरा जिससे बडबोले नेताओं की लाटरी निकल गई .कई देशों में ऐसे नेताओं का उभार हुआ है जो आक्रामक भाषा बोलते हैं , तर्क के बजाय भावनाओं को संबोधित करते हैं , वास्तविक या काल्पनिक शत्रुओ के खिलाफ छाया युद्ध छेड़कर राष्ट्रवादी ढोंग करते हैं. समय ही बताएगा कि लोग कब अपनी जमीनी हकीकत के मद्देनजर इनका मूल्यांकन करेंगे और जब करेंगे तब तक क्या खो चुके होंगे.


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