फ़ज़ल इमाम मल्लिक
राष्ट्रीय जनता दल का मुसलिम प्रेम का सच फिर सामने आ गया है. पिछले विधानसभा चुनाव में भी राजद का मुसलिम विरोधी चेहरा सामने आया था. अब स्थानीय निकाय प्राधिकार के तहत होने वाले एमएलसी के चुनाव में भी राजद के माई समीकरण की कलई खुल गई है. मुसलमानों के मसीहा और हमदर्द बनने का ढोंग रचने वाले लालू यादव के एम-वाई समीकरण में मुसलमान महज वोट बैंक से ज्यादा नहीं है. मुसलमानों के हक-हकूक की बातें न तो उन्होंने की और न ही उनके जानशीनों ने. तमन्नाओं में उलझा कर और खिलौने देकर बहलाने की कोशिश ही पिछले तीन दशक से की जाती रही है. मुसलमानों को बार-बार भाजपा का डर दिखा कर वोट देने के लिए राजद प्रेरित तो करता है लेकिन सियासत में हिस्सेदारी के नाम पर यादववाद ही राजद की प्राथमिकता है. एमएलसी चुनाव में भी मुसलमानों को झुनझुना थमा डाला गया है.
स्थानीय प्राधिकार से एमएलसी की 24 सीटों पर चुनाव होना है. बिहार में गठबंधन भी खंड-खंड है. कांग्रेस को राजद ने फिर हैसियत दिखा दी. बिहार में उपचुनाव में कांग्रेस को राजद ने नजरअंदाज किया था और उसकी सीट पर भी अपना उम्मीदवार उतार डाला था. नतीजा खुदा ही मिला न विसाले सनम वाली हालत हुई. कांग्रेस जीती तो नहीं लेकिन दोनों सीटें राजद को हरवा कर उसने अपनी हैसियत तो बता ही दी. कमबोश यही स्थिति एमएलसी चुनाव में भी बन रही है. बड़ा सवाल यह है कि सियासी तौर पर मुसलमानों को हिस्सा देने में राजद परहेज क्यों करता है. बिहार में मुसलमान करीब बीस फीसद हैं और यादव करीब पंद्रह फीसद. लालू यादव एम-वाई समीकरण बनाकर मुसलमानों के मसीहा बने जरूर लेकिन उसके बाद मुसलमानों को लगातार हाशिए पर डालते रहे. सियासी तौर पर ही नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक और तालीमी तौर पर भी उन्होंने मुसलमानों की भलाई के लिए बिहार में कुछ नहीं किया. अपना पिछलग्गू बना कर पालकी का कहार बना डाला, लेकिन सवार बनाने का जब भी मौका आया तो परिवारवाद और यादववाद आड़े आ गया.
मुसलमानों की लालू यादव लगातार अनदेखी करते रहे. दरअसल उन्होंने माई समीकरण के लिए अंग्रेजी के एम और वाई अक्षरों को चयन किया और अंग्रेजी के इस माई का मतलब मेरा होता है. मुसलमान बेचारा तो अपने को माई का हिस्सा समझ कर तीन दशक से खुश ही होता रहा है कि लालू यादव के इस माई में उसकी भी हिस्सेदारी है. जबकि इसमें मुसलमान हैं ही नहीं सिर्फ लालू यादव और उनका परिवार है. पहले हम दो और हमारे दो थे, अब हम दो और हमारे तीन हो गए हैं. मुसलमानों को हिस्सेदारी की बात 2004-05 में हुई थी. विधानसभा के चुनाव के बाद किसी दल को बहुमत नहीं मिला था. रामविलास पासवान के पास सरकार बनाने की कुंजी थी और 30 विधायकों को लेकर लालू यादव के सामने उन्होंने शर्त रखी थी कि किसी मुसलमान को वे मुख्यमंत्री बनाएं तो वे उनका समर्थन कर सकते हैं. लेकिन लालू यादव तो राबड़ी देवी के मोह से निकले ही नहीं. तब कांग्रेस के बिहार में प्रभारी दिग्विजय सिंह थे. उन्होंने भी इस मांग के अव्यवहारिक बताया था. लालू यादव जिद पर अड़े रहे और नतीजा यह निकला कि बिना विधायकों के शपथ लिए बिना विधानसभा भंग कर दी गई और दोबारा चुनाव हुआ तो गाजे-बाजे के साथ नीतीश कुमार आए और छा गए. नीतीश कुमार सत्ता पर इस तरह काबिज हुए कि लालू यादव और उनका परिवार अब कुर्सी पाने के लिए हाथ-पांव तो मार रहा है लेकिन नतीजा कुछ निकला नहीं. 2015 में लालू यादव नीतीश कुमार के साथ आए तो सत्ता मिली जरूर लेकिन फिर अपने अंतरविरोधों की वजह से लालू यादव से नीतीश का मोह भंग हुआ और लालू यादव व उनका परिवार सत्ता से बेदखल हो गया.
ऐसे कई मौके आए जब सियासी तौर पर मुसलमानों को बड़ी हिस्सेदारी देने की बात आई तो लालू यादव ने उन मांगों पर सिरे से गौर ही नहीं किया. 2020 के विधानसभा चुनाव में मुसलमानों को उनके प्रतिशत के लिहाज से बहुत कम टिकट दिया गया था जबकि माई के वाई यानी यादव के पचास से ज्यादा सीटें थमा डाली थीं. हद तो यह है कि लालू यादव के वाई ने उसी चुनाव में उनके एम यानी मुसलमान उम्मीदवारों को हराने में बड़ी भूमिका निभाई थी. कई आडियो भी वायरल हुए थे. कार्रवाई के नाम पर बबुआ तेजस्वी ने खानापुरी कर डाली थी. मधुबनी जिले में राजद के वरिष्ठ नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी को हराने में यादवों की भूमिका सामने आई थी. अब उसी मधुबनी से राजद ने मुसलमान को उम्मीदवार बनाया है तो राजद के पूर्व विधायक गुलाब यादव ने अपनी पत्नी को चुनाव में उतारने का फैसला कर लालू यादव के माई समीकरण को धत्ता बता डाला है. तेजस्वी फिर कार्रवाई की दुहाई दे रहे हैं. लेकिन तेजस्वी का यह चेहरा बहुत उत्साहित नहीं करता. मुसलमानों को लेकर उनके भीतर बहुत ज्यादा उत्साह नहीं है. वैशाली जिले में एक मुसलिम युवती को यादव समाज के लोगों ने जिंदा जला डाला था तब तेजस्वी की खामोशी बड़ा सवाल खड़ा कर गई थी. फिर जातीय जनगणना को लेकर तेजस्वी यादव ने मुख्यमंत्री को पत्र लिखा था तो उस पत्र में पिछड़े हिंदुओं का जिक्र तो था, पिछड़े मुसलमानों का उल्लेख भी नहीं किया. इससे राजद का मुसलिम प्रेम समझा जा सकता है.
अब एमएलसी के चुनाव में भी कमोबेश यही हालत है. चौबीस सीटों पर चुनाव होना है. राजद ने अपने उम्मीदवारों के नामों का एलान किया तो उसमें आंख-कान में सिर्फ दो मुसलमान को उम्मीदवार बनाया और यादवों की तादाद दस. राजद ने भुमिहारों और राजपूतों पर भी दरियादिली दिखाई जबकि आमतौर पर विधानसभा या लोकसभा चुनाव में राजद को उनका वोट नहीं मिलता है. लेकिन मुसलमानों का एकमुश्त वोट जरूर मिलता है. राजद ने एमएलसी के लिए पांच भुमिहार और चार राजपूत को टिकट देकर मुसलमानों को उनकी हैसियत फिर बता डाली है. राजद के इस समीकरण पर सियासी गलियारे में खूब चुटकियां भी ली जा रही है. शोले के संवाद की पैरोडी बनाई गई है और राजद के मुसलमान नेताओं से मजाक किया जा रहा है कि सीट 24, उम्मीदवार दो, बहुत नाइंसाफी है. पता नहीं राजद के इस मुसलिम प्रेम को बिहार के मुसलमान कब समझेंगे, लेकिन इतना तो तय है कि लालू यादव और उनका परिवार बिहार के मुसलमानों को बंधुआ मजदूर से ज्यादा कुछ नहीं समझता है.
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