प्रेमकुमार मणि
उत्तरप्रदेश , उत्तराखंड , पंजाब ,गोवा और मणिपुर में विधानसभा के चुनाव पिछले दिनों संपन्न हुए थे और कल उनके नतीजे भी आ गए . चार प्रांतों में भाजपा और पंजाब में आम आदमी पार्टी ने सफलता हासिल की है. पंजाब की कुल 117 सीटों में से अकेले 92 सीटें जीत कर आम आदमी पार्टी ने कमाल का प्रदर्शन किया है . उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में तो फिर से भाजपा आई ही है , उत्तरप्रदेश में भी दुबारा आई है . पिछले दिनों मुझ सहित अनेक लोगों का अनुमान था कि भाजपा को उत्तरप्रदेश में लौटना मुश्किल होगा . लेकिन ऐसा नहीं हुआ . उसकी सीटें थोड़ी जरूर कम हुई ,लेकिन वोट प्रतिशत में थोड़ा इजाफा ही हुआ. इस तरह जो लोग उत्तरप्रदेश के आधार पर 2024 के लोकसभा चुनावों का पूर्वानुमान लगा रहे थे ,वे अब यह सोचने केलिए विवश होंगे कि 2024 में भाजपा को केंद्र से हटाना आसान नहीं होगा. राष्ट्रीय स्तर की पार्टी को यूपी में केवल दो फीसद वोट मिले हैं . पंजाब से वह सत्ताच्युत हो गई है . गोवा में वह पहले के मुकाबले बहुत कम हो गई है . इस तरह बड़े परिप्रेक्ष्य में वह और कमजोर हो गई है . उत्तरप्रदेश में प्रियंका की मिहनत का कोई असर नहीं हुआ . कुल मिला कर भाजपा ने न केवल चार प्रांतों में स्वयं को लाया , बल्कि कांग्रेस को पहले से अधिक कमजोर भी कर दिया . यह उसकी दोहरी सफलता है . कुल मिला कर भाजपा की पौ -बारह है.
लेकिन इन चुनावों के निहितार्थ क्या हो सकते हैं? इस पर सोचने के लिए हम अभिशप्त हैं . मुल्क में महंगाई, बेरोजगारी , अव्यवस्था सब चरम पर है . पिछले वर्षों में कोविड-19 का कहर जिस तरह हुआ और लाखों लोग जिस तरह अस्पतालों की बदइंतज़ामी और ऑक्सीजन के अभाव में मरे उसका कोई प्रभाव इस चुनाव पर नहीं पड़ा. ऐसा लगता है मुल्क की बहुसंख्यक जनता ने भी हिंदुत्व के अजेंडे पर अपनी मुहर लगा दी है . इसी आशय की एक टिपण्णी मेरे मित्र कँवल भारती जी ने की है . वह यह भी कह रहे हैं कि जनता के इस फैसले को हम लोकतंत्र की पराजय नहीं कह सकते . मैं उनसे सहमत हूँ.
तो क्या भारत का लोकतंत्र भी चीन और रूस के " लोकतंत्र " की तरह हो जाएगा ,जिसमें सिन जिनपिंग और पुतिन की तरह मोदी आजीवन मुल्क के भाग्यविधाता बने रहेंगे ? आखिर हमारा लोकतंत्र कहाँ पहुँचने जा रहा है.
मैंने कुछ समय पहले लिखा था कि यह चुनाव तय कर देगा कि 2024 में क्या होगा. शायद तय हो चुका. 2025 में आरएसएस का शताब्दी समारोह है . क्या उस समय तक सचमुच भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित कर दिया जाएगा ? कुछ भी हो सकता है .
विपक्ष की विफलताओं का ठीकरा राहुल गांधी परिवार पर फोड़ने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है. मुझे यह नहीं लगता कि राहुल ,उनकी माँ सोनिया जी या उनकी बहन प्रियंका राजनीति से संन्यास ले लें तो कांग्रेस का भला हो जाएगा और वह ताकतवर हो जाएगी . क्या कोई बतला सकेगा कि कौन है दूसरा कांग्रेसी जो कांग्रेस को संभाल ले . भाजपा और उसके नेता बार -बार कांग्रेस पर परिवारवाद चलाने का आरोप लगाते रहे हैं . लेकिन कांग्रेस जैसी हो गई है ,क्या कोई दूसरा इसे संभाल सकता है ? एक लम्बे समय तक राहुल गांधी परिवार इस पार्टी से अलग रहा . राजीव गांधी की मौत के बाद से 1999 के आरम्भ तक. कांग्रेस की जो दुर्गति हुई थी ,उससे सब परिचित हैं. एक गिरी हुई कांग्रेस को सोनिया ने संभाला और 2004 में उसे फिर से सत्तासीन किया. इन बातों की चर्चा मोदी नहीं कर सकते . वह यह भी बतलाना नहीं चाहेंगे कि कम्युनिस्ट पार्टियां अप्रासंगिक क्यों होती चली गईं. उनके यहाँ तो न परिवारवाद था ,न ही कोई अयोग्य नेतृत्व . केरल,त्रिपुरा और बंगाल में आज सीपीएम कहाँ है ? उनके नेताओं पर तो भ्रष्टाचरण के कोई आरोप भी नहीं लगे थे.
भाजपा इसलिए नहीं सत्ता में है कि वह पवित्रों की पार्टी है और उसके मुकाबले दूसरे लोग भ्रष्ट हैं . बल्कि वह इसलिए बनी हुई है कि मध्य वर्ग उसके साथ है . यही मध्य वर्ग कभी कांग्रेस के साथ था . आज उसने अपना जुड़ाव भाजपा की तरफ शिफ्ट कर लिया है . इस मध्य वर्ग में पुराने कांग्रेसी , समाजवादी और साम्यवादी सब शामिल हैं . मध्यवर्ग ने अपनी चालाकियों के साथ हिंदुत्व की विचारधारा पर अपनी सहमति दे दी है . इस मध्यवर्ग के साथ समाज का एक बड़ा तबका भी उसका अनुगामी होता है. क्योंकि वे मानते हैं कि रास्ता वही है जिस पर बड़े लोग चलते हैं . महाजनो येन गतः सः पन्था. भाजपा ने इस रहस्य को समझ लिया है. हमें यह मान कर चलना चाहिए कि हिंदुत्व समकालीन समाज की केंद्रीय विचारधारा या तो हो चुकी है या बहुत जल्दी होने वाली है . इसी का असर है कि कभी राहुल गांधी ,कभी प्रियंका पूजा स्थलों पर माथा झुकाते देखे गए हैं . हिंदुत्व पर दावे की राजनीति शुरू हो चुकी है. इस प्रतियोगिता में भाजपा नेताओं को कोई कैसे पीछे छोड़ सकता है. आप एकबार जब अपने शत्रु के अखाड़े में उतर जाते हैं तो फिर उसका काम बन जाता है.
विपक्ष में दूसरे दल और नेता भी हैं . इन नेताओं पर भी यही बात लागू होती है. समाजवादी घराने के दल वे चाहे यूपी के समाजवादी पार्टी के हों ,या बिहार के राजद के, उन्हें तय करना होगा कि क्या वे मौजूदा कार्यशैली के साथ भाजपा का मुकाबला कर सकते हैं . शायद कभी नहीं . विचारधारा की उनके पास कमी नहीं है. हिंदुत्व से अधिक मजबूत और आकर्षक विचारधारा उनके पास है . समाजवाद , भाईचारा और दुनिया के प्रति एक वैज्ञानिक नजरिया उन्हें पुरखों से विरासत में मिला है . लेकिन सबको ताक पर रख कर जात-पात को ही उन्होंने अपनी विचारधारा मान लिया है . पिछले चार दशकों से इसी में डूब -उतरा रहे हैं . सेकुलरवाद के नाम पर उन्होंने असामाजिक प्रवृत्ति के लोगों को बढ़ावा दिया . अपनी कोई नैतिकता बनाई नहीं . इन सबका नतीजा उन्हें भुगतना पड़ रहा है. इन सब पर विचार किए बिना ,आत्मसुधार किए बिना वे भाजपा का मुकाबला नहीं कर पाएंगे. पहले उन्हें इस बात पर विचार तो करना ही होगा कि वे लगातार अप्रासंगिक क्यों होते जा रहे हैं . यूपी के इस चुनाव में विपक्ष केलिए उत्साहित करने वाली अनेक चीजें हैं . पिछले चुनाव के मुकाबले उनकी सीटें भी बढ़ी हैं और वोट भी . 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को केवल 47 सीटें मिली थी . इस बार शायद 112 है . सहयोगी दलों की सीटें अलग हैं . वोट प्रतिशत 21 से बढ़ कर 32 हुआ है , सहयोगियों के साथ 38 फीसद . पिछली दफा भाजपा और समाजवादी पार्टी के बीच का फासला लगभग पंद्रह फीसद वोट का था ,इस बार 4 या 5 फीसद का है . यह सब इसलिए संभव हुआ कि अखिलेश ने अपनी पार्टी को परिवारवाद से आंशिक रूप से ही सही मुक्त रखा. उनके पिता आख़िरी दौर में कूद -फांद न करते तो अच्छा था. उससे नुकसान हुआ.
लेकिन अब सब संपन्न हो गया है. एकबारगी सफलता मिल जाना ही राजनीति नहीं होती. उन्हें कुछ और आत्मसुधार करने होंगे, चुनाव का यही सबक है. सब से पहले तो वे नतीजों को स्वीकारें और दूसरों की कमियां ढूंढने के पहले अपनी कमजोरियों को स्वीकार करें.
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