सियासत में चरखा दांव का महारथी मुलायम सिंह यादव

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सियासत में चरखा दांव का महारथी मुलायम सिंह यादव

हरजिंदर

वे उस दौर का चेहरा हैं जब भारत की राजनीति का वर्ग चरित्र हमेशा के लिए बदल गया.  आजाद भारत में उत्तर प्रदेश की राजनीति ने जहां अपना रास्ता बदला मुलायम सिंह यादव हमें उसी मोड़ पर खड़े दिखाई देते हैं.  वे पिछड़ें वर्गो की आकांक्षाओं के प्रतीक बने, साथ ही मुलायम सिंह को राजनीति का एक ऐसा समीकरण रचने का श्रेय भी है जिसके आगे पुराने सारे समीकरण फीके पड़ गए.  उनके गुरू राम मनोहर लोहिया ने सत्ता के शिखर को हासिल करने का जो सपना देखा था मुलायम उसे साकार करने में कामयाब रहे.  

इटावा के सैफई गांव में जन्मे मुलायम सिंह यादव का सारा शुरुआती जीवन इसी जिले के आस-पास ही सिमटा रहा.  यहीं उनकी शुरुआती पढ़ाई हुई और इटावा के केके काॅलेज से बीए और बीटी की डिग्री ली.  यहीं पर वे लोहिया की समाजवादी विचारधारा के संपर्क में अए और यहीं वे काॅलेज छात्र संघ के अध्यक्ष बने.  यह भी बताया जाता है कि जब वे महज 14 साल के थे तो लोहिया ने सिंचाई शुल्क में बढ़ोत्तरी के खिलाफ आंदोलन चलाया था और मुलायम उस आंदोलन के लिए पहली बार जेल गए थे.  हालांकि उनकी राजनीति का आगाज इतने भर से नहीं हुआ.  

बचपन से मुलायम सिंह का एक शौक था पहलवानी.  कुश्ती के अखाड़े में नाटे कद के मुलायम सिंह की खासियत यह थी कि वे अपने से बड़े पहलवानों को आसानी से चित कर देते थे.  सैफई के पास ही करहल में एक दिन कुश्ती का उनका मुकाबला हुआ इलाके के एक बड़े पहलवान सरयूदीन त्रिपाठी से.  सरयूदीन कद में उनके मुकाबले काफी लंबा था और वजन में ज्यादा भारी.  लेकिन मुलायम सिंह उसे भी चित करने में सफल रहे.  जब यह प्रतियोगता चल रही थी तो वहां जसवंत नगर के विधायक नत्थू सिंह भी मौजूद थे.  कुश्ती के बाद नत्थू सिंह ने मुलायम से मुलाकात की और फिर अपने साथ जोड़ लिया.  अब वे संयुक्त समाजवादी पार्टी के कार्यक्रमों में सक्रिय हो चुके थे.  कहा जाता है कि पहलवानी के दौर में अखाड़े के अंदर मुलायम सिंह का प्रिय दांव होता था- चरखा.  यह दांव लगाने वाला पहलवान दूसरे पहलवान को एक झटके में धूल चटा देता है.  तब किसने सोचा था कि चरखा दांव का यह तरीका ही वे राजनीति में अपनाएंगे.  बाद में उन्होंने आगरा से एमए की डिग्री ली और कुछ समय के लिए अध्यापक हो गए लेकिन यह उनकी मंजिल नहीं थी. 

बाद में इटावा के मशहूर समाजवादी नेता अर्जुन सिंह भदौरिया ‘कमांडर‘ ने उन्हें समाजवाद के पूरे ककहरे से परिचित कराया.  जल्द ही वे राम मनोहर लोहिया की भी पसंद बन गए.  1967 का विधानसभा चुनाव हुआ तो जसवंत नगर से फिर एक बार नत्थू सिंह को टिकट दिया गया, लेकिन अपनी उम्र की दुहाई देकर नत्थू सिंह ने अपनी जगह मुलायम सिंह को टिकट देने को कहा.  अपना पहला ही विधानसभा चुनाव मुलायम सिंह जीत गए और उसके बाद आठ बार उस क्षेत्र के विधायक बने.  

इस पहली जीत का जब उनके गांव सैफई में जश्न मनाया जा रहा था तो वहां गोली चल गई.  कुछ कहानियों में यह भी कहा जाता है कि मुलायम सिंह नाटे कद के थे इसलिए वे बच गए और गोली उनके पीछे खड़े एक लंबे आदमी को लगी.  एक बार फिर ऐसा मौका आया जब उन पर गोलीबारी की गई.  एक शाम अंधेरा होने के बाद वे अपने लोगों के साथ कार में जा रहे थे कि कुछ लोगों ने रास्ता रोककर उनकी कार पर गोलियां चलाई.  मुलयाम सिंह ने अपने साथ के लोगों से कहा कि वे जोर से चिल्लाएं कि नेताजी को गोली लग गई.  उन्होंने ऐसा ही किया और हमलावर भाग गए.  यह वह दौर था जब मुलायम सिंह यादव नेताजी के नाम से लोकप्रिय हो गए थे.  

इसी साल राम मनोहर लोहिया का निधन हुआ और इसके बाद समाजवादी आंदोलन कईं तरह से बिखरने लग गया.  लेकिन मुलायम सिंह यादव पूरे क्षेत्र पर अपनी पकड़ मजबूत बनाते चले गए.  उसी समय चैधरी चरण सिंह किसान जातियों की एक मजबूत ताकत के रूप में उभर रहे थे.  मुलायम सिंह संयुक्त समाजवादी पार्टी का दामन छोड़कर भारतीय क्रांति दल में शामिल हुए और अगला चुनाव इसी के टिकट से जीते.  हालांकि मुलायम सिंह के पीछे-पीछे उनकी समजावादी पार्टी भी जल्द ही चैधरी चरण सिंह की शरण में आ गई और दोनों पार्टियों के विलय से जो नया दल बना उसका नाम था- भारतीय लोकदल.  आपातकाल लगा तो बाकी विपक्षी राजनेताओं की तरह ही मुलायम सिंह भी जेल भेज दिए गए.  

आपातकाल के बाद जनता पार्टी बनी तो मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश में उसके सबसे सक्रिय सदस्यों में थे.  आपातकाल के बाद हुए चुनावों ने भारतीय राजनीति को पूरी तरह बदल दिया था.  इस चुनाव में लोगों ने कांग्रेस और आपातकाल के खिलाफ गुस्सा तो व्यक्त किया ही था साथ ही लोगों को अपने वोट की ताकत का अहसास जिस तरह से हुआ वैसा पहले कभी नहीं हुआ था.  और इसी के बाद चुनाव समीकरणों में उंची जातियों का वर्चस्व भी टूटने लगा.  चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश में जब राम नरेश यादव को मुख्यमंत्री बनाया गया तो मुलायम सिंह ने भी पहली बार मंत्री पद की शपथ ली.  उन्हें सहकारिता और पशुपालन विभाग मिले.  पशुपालन और उनकी जाति को लेकर उनका मजाक भी बनाया गया, लेकिन मुलामय सिंह को पता था कि यह पहली सीढ़ी उन्हें बहुत उपर ले जाने वाली है.  खासकर सहकारिता विभाग का अनुभव जीवन भर उनके काम आया.  मंत्री बनते ही उन्होंने सहकारिता बैंक की ब्याज दरों को 14 से घटाकर सबसे पहले 13 फीसदी किया और फिर 12 फीसदी कर दिया.  उन्होंने सहकारिता की ताकत को पहचाना और उसे अपनी राजनीति से जोड़ा.  इसी का नतीजा है कि उनके भाई शिवपाल यादव आज भी उत्तर प्रदेश की सहकारी संस्थाओं पर सबसे ज्यादा पकड़ रखने वाले व्यक्ति माने जाते हैं.  

जनता पार्टी का प्रयोग बहुत ज्यादा नहीं चला और उसके बाद कांग्रेस की सरकारें फिर आ गईं तो मुलायम सिंह की तरह ही किसी भी गैर कांग्रेसी के लिए मंत्री बनने का मौका नहीं था.  फिर भी वे चैधरी चरण सिंह के नेतृत्व वाली पार्टी के भीतर की राजनीति में लगातार मजबूत होते गए.  चैधरी चरण सिंह के निधन के बाद उनके बेटे अजित सिंह पार्टी पर काबिज होना चाहते थे, मुलायम सिंह ने इसका विरोध किया और पार्टी दोफाड़ हो गई.  मुलायम सिंह जिस धड़े में थे उसका नेतृत्व हालांकि हेमवती नंदन बहुगुणा के पास था लेकिन वे बहुत सक्रिय होने की स्थिति में नहीं थे, इसलिए पार्टी की असल कमान मुलायम सिंह के हाथ में ही थी.  यह बात अलग है कि विधानसभा में उनके साथियों की संख्या बहुत ज्यादा नहीं थी लेकिन सदन में विपक्षी खेमें से अगर किसी की आवाज गूंजती थी तो मुलायम सिंह यादव की ही.  एक तरह से यही वह समय था जब मुलायम सिंह ने अपने आप को बड़ी जिम्मेदारी संभालने के लिए तैयार कर लिया था.  किसी खांटी राजनेता की तरह वे ऐसे लोगों में गिने जाने लगे थे जो हर जिले में अपने कार्यकर्ताओं को न सिर्फ पहचानता है बल्कि उनके नाम तक याद रखता है.  यह भी कहा जाता है कि वे बहुत सुबह उठ जाते थे और आठ बजे तक जब बाकी लोग सो कर उठते थे वे तकरीबन दो सौ कार्यकर्ताओं व समर्थकों से मिल चुके होते थे.  यही वह दौर था जब लोगों ने यह जाना कि मुलायम सिंह अपने पास आने वाली किसी की भी मदद के लिए तैयार रहते हैं, चाहे वह किसी भी दल या विचारधारा का क्यों न हो.  ये ऐसी आदते थीं जो हमेशा के लिए उनके सथ रहीं.  इसी दौर में मुलायम सिंह ने एक मेटाडोर गाड़ी में बैठकर पूरे प्रदेश का सघन दौरा भी किया था.  

विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जब कांग्रेस के विद्रोह करके जनमोर्चा बनाया तो जनता दल में पहंुच चुके मुलायम सिंह उसके सक्रिय समर्थकों में थे.  यह बात अलग है कि प्रदेश में मुलायम के मुकाबले विश्वनाथ प्रताप सिंह की पहली पंसद अजित सिंह बने.  इसलिए जब उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद के लिए दावेदारी का मौका आया तो मुलायम के मुकाबले अजित सिंह को दिल्ली सरकार का समर्थन हासिल था.  लेकिन प्रदेश की राजनीति और विधायकों पर मुलायम सिंह की पकड़ ज्यादा मजबूत थी, इसलिए दिल्ली से भेजे गए पर्यवेक्षकों को उन्हें ही मुख्यमंत्री बनाने के अलावा और कोई चारा नहीं था.  अजित सिंह को केंद्रीय उद्योग मंत्री के पद से ही संतोष करना पड़ा.  बाद में जब मंडल आयोग की सिफारिशें स्वीकार हुईं तो उत्तर प्रदेश की राजनीति जिस तरह से बदली उसमें मुलायम सिंह यादव प्रदेश ही नहीं देश की राजनीति की एक बड़ी ताकत बन गए थे.  मुख्यमंत्री के तौर पर उनका यह कार्यकाल तकरीबन डेढ़ साल का ही रहा.  इस पूरे दौर में एक स्थाई चीज यह रही कि मुलायम लगातार भाजपा और उसके राम मंदिर आंदोलन के आलोचक रहे.  इसी राजनीति से उन्होंने पिछड़े वर्गों के अलावा अल्पसंख्यकों को अपने साथ जोड़ा और धर्मनिरपेक्षता के सबसे बड़े पैरोकार बनकर उभरे.  यही वजह है कि जब अयोध्या पहंुचे कार सेवक उग्र हुए तो सरकार ने उन्हें नियंत्रित करने के लिए उन पर गोली चलवा दी, जिसमें पांच कार सेवकों की मृत्यु हो गई.  जिससे उन्हें काफी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा लेकिन वे डिगे नहीं.  जनता दल जब टूटा तो वे मंडल लागू करने वाले वीपी सिंह के साथ जाने के बजाए चंद्रशेखर की समाजवादी जनता पार्टी यानी सजपा में शामिल हुए.  लेकिन उनका यह साथ भी लंबा नहीं चला.  

रामरथ पर सवाल होकर जब भाजपा सत्ता में पहंुची और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने तो प्रदेश विधानसभा में सजपा के सदस्यों की संख्या महज 24 ही थी.  हालांकि इस संख्या के बल पर वे राज्यसभा में एक सदस्य भेज सकते थे.  चंद्रशेखर चाहते थे कि प्रसिद्ध समाजवादी मोहन सिंह को राज्यसभा भेजा जाए.  लेकिन मुलायम सिंह के दिमाग में कुछ और चल रहा था.  उन्होंने ऐन वक्त पर अपने भाई प्रोफेसर रामगोपाल यादव को मैदान में उतारा और जिताकर राज्यसभा पंहुचा दिया.  इसी के साथ सजपा टूट गई और उन्होंने जो नई पार्टी बनाई उसका नाम था समाजवादी पार्टी, चुनाव चिन्ह साईकिल.  

इस बीच बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद जब कल्याण सिंह की सरकार को बर्खास्त करके राष्ट्रपति शासन लागू किया गया तो मुलायम सिंह ने अपनी सक्रियता काफी तेज कर दी.  साथ ही उन्होंने कांशीराम की बहुजन समाज पार्टी से भी गंठजोड़ कर लिया.  इन्हीं दिनों एक नारा चला था- मिले मुलायम कांशीराम, हवा हो गए जय श्रीराम.  चुनाव में इस गंठजोड़ ने आसानी से सत्ता हासिल कर ली.  इस कार्यकाल में ही रामपुर तिराहा कांड चर्चा में आया जहां पुलिस ने पृथक उत्तराखंड की मांग कर रहे आंदोलनकारियों पर गोली चलाई.  इसके बाद से पर्वतीय क्षेत्रों में समाजवादी पार्टी लगभग खत्म ही हो गई.  यह कार्यकाल पिछले से भी कम रहा और बसपा ने समर्थन वापस ले लिया.  इस समर्थन वापसी के बाद सपा कार्यकर्ताओं ने उत्तर प्रदेश के स्टेट गैस्ट हाउस में मायावती और उनके विधायकों पर हमला बोला, जिसे गैस्टहाउस कांड के नाम से जाना जाता है.  इस मौके पर भाजपा ने ही मायावती को उस घेराव से बाहर निकाला और मुलायम समर्थकों पर मायावती की हत्या के प्रयास का आरोप लगा.  बाद में मायावती ने भाजपा के समर्थन से सरकार बना ली.  इस बीच मुलायम सिंह लोकसभा पंहुच गए जहां देवेगौड़ा सरकार में उन्हें रक्षामंत्री बना दिया गया.  यह सरकार जब गिरी तो मुलायम सिंह का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए भी चला लेकिन लालू यादव और कुछ दूसरे क्षत्रपों के विरोध के बाद वे देश की सत्ता के शिखर पर पहंुचने से रह गए.  

उधर उत्तर प्रदेश में बसपा और भाजपा की सरकारों के साथ ही राष्ट्रपति शासन का भी एक लंबा दौर चला.  आखिर 2003 में मुलायम सिंह बसपा को तोड़ने और निर्दलीय विधायको के समर्थन से सरकार बनाने में कामयाब हो गए.  वे उस समय लोकसभा सदस्य थे और जब उन्होंनें गुन्नौर से विधानसभा चुनाव लड़ा तो वे रिकाॅर्ड मतों से जीते.  यह उनका सबसे लंबा कार्यकाल था जो साढ़े तीन साल तक चला.  इसके बाद 2012 के चुनाव में जब उनकी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला तो उन्होंने बागडोर अपने बेटे अखिलेश को सौंप दी.  अखिलेश ने जल्द ही सरकार ही नहीं पार्टी पर भी पूरी पकड़ बना ली.  उनके कार्यकाल के आखिर में जब पार्टी और परिवार दोनों में विभाजन रेखाएं उभरीं तो अखिलेश ने अपने पिता को पार्टी अध्यक्ष पद से हटाकर यह पद भी खुद ही हासिल कर लिया और उन्हें पार्टी का संरक्षक बना दिया.  हालांकि बाद में अपनी पुरानी शैली में मुलायम सिंह सबकी नारजगी दूर करके साथ जोड़ने में कामयाब रहे.  अब जब उत्तर प्रदेश में चुनावी लड़ाई चल रही है मुलायम सिंह संरक्षक की भूमिका में ही सबका मुजरा ले रहे हैं. हिंदुस्तान से साभार 


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