इंदिरा गांधी, लिटिल गर्ल से देवी दुर्गा तक

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इंदिरा गांधी, लिटिल गर्ल से देवी दुर्गा तक

हरजिंदर

कुछ लोग उन्हें भारत की अकेली साम्राज्ञी कहते हैं. रजिया सुल्तान के बाद इंदिरा प्रियदर्शिनी गांधी अकेला ऐसा नाम है जिसने दिल्ली की सत्ता पर राज किया. हालांकि रजिया के मुकाबले इंदिरा गांधी के राज का विस्तार बहुत बड़ा था और उसके मुकाबले उनका राजयोग भी काफी लंबा था. भारतीय राजनीति में एक समय था जब लोहिया ने उन्हें गूंगी गुड़िया कहा था और मोरारजी देसाई उन्हें लिटिल गर्ल मान रहे थे, लेकिन इंदिरा गांधी की कहानी इलाहाबाद के आनंद भवन में पैदा हुई एक ऐसी लड़की की कथा है जो लोकप्रियता और लोकतंत्र दोनों को एक साथ साधती हुई, तमाम महारथियों को धूल चटाती हुई देश की राजनीति के शिखर पर पहंुची, भले ही कुछ समय तक अपनी लोकप्रियता बनाए रखने के लिए उन्होंने लोकतंत्र को ही देश से छीन लिया. 

आजादी के आंदोलन के सबसे लोकप्रिय नेता जवाहर लाल नेहरू की बेटी इंदिरा का बचपन जिस जगह गुजरा वह स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्र था. उनके बचपन की तस्वीरों में कहीं हम उन्हें महात्मा गांधी के साथ देखते हैं तो कहीं दूसरे बड़े नेताओं के साथ. यह भी कहा जाता है कि उनके इस बचपन में अकेलापन भी बहुत था. हम उम्र बच्चों का साथ उन्हें बहुत कम मिला. पिता की तरह ही उनकी शुरुआती पढ़ाई घर पर ही हुई. कईं किस्सों में यह भी बताया जाता है कि उस दौर में कुछ बच्चों ने एक वानर सेना बनाई थी जो स्वतंत्रता आंदोलन के समर्थन में विदेशी कपड़ों की होली जलाने जैसे काम करते थे. इंदिरा इसकी प्रमुख सदस्य थीं और यहीं उनकी मुलाकात फीरोज गांधी से हुई जो बाद में उनके पति बने. इंदिरा की आगे की पढ़ाई दिल्ली, इलाहाबाद, पुणे के स्कूलों के बाद शांति निकेतन में हुई, जहां से वे पढ़ने के लिए आॅक्सफोर्ड चली गईं. बाद में भारत लौटीं तो उनका विवाह फीरोज गांधी से हुआ. अब वे इंदिरा नेहरू से इंदिरा गांधी बन चुकी थीं. शादी के बाद यह दंपति आजादी के आंदोलन में कूद पड़ी. भारत छोड़ों के दौरान दोनों जेल में भी रहे. इसके पहले की भारत आजाद होता दोनों दो बच्चों को जन्म दे चुके थे- राजीव गांधी और संजय गांधी. 

नेहरू जब देश के प्रधानमंत्री बने तो इंदिरा उनकी सबसे बड़ी सहयोगी थीं. मां कमला नेहरू का निधन काफी पहले ही चुका था, इसलिए हर मौके पर उन्हें नेहरू के साथ रहना पड़ता था. वे नेहरू के साथ दुनिया के तमाम देशों के दौरों पर भी जाती थीं. गुट निरपेक्ष आंदोलन की स्थापना जैसी विश्व इतिहास की बड़ी घटनाओं में वे साक्षी बनीं. यही वह दौर था जब फीरोज गांधी उनका साथ छोड़ गए. 1960 में जब उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उनका निधन हुआ तो इंदिरा गांधी अपने पिता के साथ भूटान के दौरे पर थीं. एक बार फिर वे अकेली थीं. इंदिरा का अपना सक्रिय राजनीति जीवन पिता के निधन के बाद ही शुरू हुआ जब उन्हें राज्यसभा के लिए चुना गया और फिर उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री के मंत्रिमंडल में सूचना व प्रसारण मंत्री की जिम्मेदारी संभाली. इस दौर ने उन्हें ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी संभालने के लिए तैयार कर दिया. 

शास्त्री का निधन हुआ तो जो नाम आए उनमें इंदिरा गांधी का नाम भी था. हालांकि कार्यवाहक प्रधानमंत्री गुलजारी लाल नंदा, कांग्रेस अध्यक्ष के कामराज और मोरारजी देसाई के मुकाबले उनका नाम काफी पीछे था. इन सबमें नंदा वरिष्ठ थे लेकिन उन्हें राजनीतिक तौर पर हैवीवेट नहीं माना जाता था. कामराज के नाम पर सबमें सहमति बन गई थी लेकिन वे इस तर्क पर खुद ही सहमत नहीं हुए कि उन्हें न तो हिंदी आती है और न अंग्रेजी, वे पूरे देश से संवाद नहीं कर पाएंगे. मोराजी की छवि काफी अक्खड़ राजनेता की थी और ज्यादातर कांग्रेसी उन्हें प्रधानमंत्री बनाने के पक्ष में नहीं थे. अब इंदिरा गंधी का नाम ही बचा था. और जल्द ही उस इ ंदिरा ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ले ली जिन्हें तब तक कम बोलने वाली एक संकोची महिला के रूप में देखा जाता था. पार्टी के बहुत से नेताओं को लग रहा था कि अनुभवहीन इंदिरा से वे अपनी इच्छा अनुसार काम करवा सकेंगे. कुछ तो यह भी सोच रहे थे कि इंदिरा के नाम पर सत्ता की वास्तविक कमान उनके हाथ रहेगी. कुछ को यह भी उम्मीद थी कि यह व्यवस्था  ज्यादा नहीं चलेगी और सत्ता जल्द ही उनके हाथा में आ जाएगी. लोहिया जैसे बहुत से लोगों को लग रहा था कि अब मतदाताओं की वह जड़ता टूटेगी जिसके चलते वे कांग्रेस को वोट देते रहने की आदत बना चुके थे. 

कुछ ही समय लगा और इंदिरा गांधी ने इन सब को गलत साबित कर दिखाया. हालांकि शुरुआत अच्छी नहीं हुई. 1967 के चुनाव में कांग्रेस को बहुमत तो हासिल हो गया लेकिन उसकी सीटों की संख्या पहले से कम हो गई थी. इसी चुनाव में उन्होंने उस रायबरेली को अपना निर्वाचन क्षेत्र बनाया जहां से कभी उनके पति फीरोज गांधी चुनाव लड़ते थे. उनकी सरकार की पहली बड़ी समस्या यह थी कि एक तरफ देश आर्थिक संकट में फंसा था और दूसरी तरफ देश के पास पर्याप्त खाद्यान्न नहीं था. यह अन्न अमेरिका से ही प्राप्त हो सकता था जिसके लिए अमेरिका की शर्तों को मानते हुए उन्हें भारतीय मुद्रा का अवमूल्यन करना पड़ा. हालांकि बाद में हरित क्रांति ने भारत को इस मामले में आत्मनिर्भर बना दिया. उनके मंत्रिमंडल में उपप्रधानमंत्री मोरारजी देसाई जिनके पास वित्त मंत्रालय भी था लगातार उनके लिए सरदर्द साबित हो रहे थे. इसी दौरान इंदिरा ने वामपंथी विचारों वाले नौकरशाह पीएन हक्सर को अपना सचिव बनाया. हक्सर की सलाह पर ही इंदिरा ने बैंकों राष्ट्रीयकरण की घोषणा कर दी. मोरारजी देसाई ऐसे किसी कदम के विरोधी तो ही वे इस बात पर नाराज थे कि यह घोषणा बिना वित्त मंत्री की जानकारी के कर दी गई थी. इसी दौरान इंदिरा गांधी को एक और मौका मिल गया. राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस ने नीलम संजीवा रेड्डी को अपना उम्मीदवार बनाया. इंदिरा गांधी ने उनके खिलाफ वीवी गिरी को चुनाव में उतार दिया. वीवी गिरी चुनाव जीत गए और इससे यह भी जाहिर हो गया कि कांग्रेस का बड़ा हिस्सा अब इंदिरा गंाधी के नियंत्रण में है. पार्टी अध्यक्ष एस निजिलिंगप्पा ने इंदिरा और उनके सहयोगियों को पार्टी से निकाल दिया. पार्टी दो फाड़ हो चुकी थी और इंदिरा के नेतृत्व वाली कांग्रेस का लोकसभा में बहुमत नहीं बचा था लेकिन ऐन वक्त पर वे तमिलनाडु की द्रमुक का समर्थन लेने में कामयाब रहीं और सरकार बच गई. 

इसके तुरंत बाद इंदिरा गांधी ने अपनी वामपंथी झुकाव वाली नीतियों को बरकरार रखा और कुछ नई घोषणाएं कर दीं. आजादी के बाद जिन 500 से ज्यादा रियासतों का भारत में विलय हुआ था उनके वारिसों तक सरकार की तरफ से हर महीने अच्छा खासा गुजारा भत्ता दिया जाता था जिसे प्रीवी-पर्स कहा जाता था. इंदिरा ने प्रीवी-पर्स की इस व्यवस्था को खत्म कर दिया. उनकी इन नीतियों का बहुत बड़ा राजनैतिक असर हुआ. एक तरफ तो समाजवादी पार्टी से चंद्रशेखर, मोहन धारिया और रामधन जैसे नेता कांग्रेस में शामिल हो गए और दूसरी तरफ समाजवादी विचारक अशोक मेहता भी उनसे जुड़ गए, जिन्हें बाद में योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाया गया. इन नीतियों के चलते ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी उनके प्रति नर्म हो गई थी. इसके बाद आए 1971 के चुनाव. इस चुनाव में इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया. अपनी सभाओं में वह कहती थीं- वे कहते हैं इंदिरा हटाओ, मैं कहती हूं गरीबी हटाओ. यह नारा चल निकला और उनकी पार्टी को भारी बहुतम मिला. 

प्रधानमंत्री के तौर पर इंदिरा का यह दूसरा कार्यकाल बहुत बड़े घटनक्रम वाला दौर था. इसी दौर में पूर्वी पाकिस्तान संकट खड़ा हुआ और पश्चिमी पाकिस्तान से भारत का तनाव शुरू हो गया. इस तनाव में इंदिरा गांधी ने अपने पत्ते बड़ी सावधानी से खेले. भारत पाकिस्तान में युद्ध हुआ और पाकिस्तान को न सिर्फ निर्णायक हार मिली, बल्कि उसका पूर्वी हिस्सा अलग होकर एक नया देश बांग्लादेश बना. इतना ही नहीं पाकिस्तान की सेना को भारत के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा. युद्ध की इस जीत के बाद कईं शहरों में पोस्टर लगाए गए जिन पर लिखा होता था- पिता ने कुछ दृश्य ही देखे, पुत्री ने इतिहास बनाया. इंदिरा नेहरू से ज्यादा लोकप्रिय हो गईं थीं यह भले ही न कहा जा सके लेकिन उन्होंने लोकप्रियता के सारे रिकाॅर्ड तोड़ दिए थे. इसी के चलते बाद में कईं राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी ने सबका सफाया कर दिया. इस जीत को ‘इंदिरा लहर‘ का नाम दिया गया. लेकिन लोकप्रियता का यह दौर लंबा नहीं चला. तरह-तरह की समस्याएं पूरे देश को और खासकर नौजवान पीढ़ी को परेशान कर रहीं थीं. इसी दौर में गुजरात में छात्रों का आंदोलन शुरू हुआ जो बिहार होते हुए पूरे देश में फैल गया. राजनीति छोड़कर भूदान में सक्रिय हो गए जयप्रकाश नारायण ने इस आंदोलन का नेतृत्व संभाला तो इंदिरा के लिए बहुत सी मुसीबतें शुरू हो गईं. तभी एक और मुसीबत उनका इंतजार कर रही थी. रायबरेली चुनाव में उनके प्रतिद्वंद्वी रहे राजनारायण ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में सत्ता के दुरुपयोग का एक मुकदमा उनके खिलाफ किया था. दुरुपयोग का यह तर्क अदालत में साबित हो गया और न्यायमूर्ति जगमोहन सिन्हा ने उन्हें प्रधानमंत्री पद छोड़ने का आदेश सुनाया. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को बाद में निरस्त कर दिया लेकिन इससे पूरे देश में जो हंगामा हुआ उससे निपटने के लिए इंदिरा ने पूरे देश में आपातकाल लागू कर दिया. अखबारों पर सेंसर लगा दिया गया और तकरीबन सभी विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया. 

यह दौर इंदिरा और उनके पुत्र संजय गांधी की तानाशाही के लिए भी जाना जाता है. यही वह दौर था जब चापलूसों की बन आई थी. विरोध की जो भी आवाजें थीं उन्हें दबा दिया गया. पीएन हक्सर उस समय इंदिरा गांधी के प्रधान सचिव थे. संजय के व्यवहार से तंग आकर एक दिन उन्होंने इंदिरा गांधी से कहा- आपको तय करना होगा कि आप पहले देश की प्रधानमंत्री हैं या संजय गांधी की मां. हक्सर को जल्द ही बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. इतना ही नहीं हक्सर के चाचा का दिल्ली में कपड़ों का शो-रूम था वहां छापा मारा गया और 85 साल के बुजुर्ग को पकड़कर जेल में डाल दिया गया. आपातकाल के दौरान हुए ऐसे अत्याचारों की सूची बहुत लंबी है. संवधिान बदल दिया गया था, चुनाव स्थगित कर दिए गए थे. यही वह दौर था जब कांग्रेस के नेता देवकांत बरुआ ने एक नारा दिया था- इंदिरा इज़ इंडिया और इंडिया इज़ इंदिरा. चापलूस यह कह रहे थे कि देश में अब हर तरफ इंदिरा गांधी का ही बोलबाला है. ऐसे में उन्हें भी लगा कि अब आमचुनाव करवा कर अपनी धमक एक बार फिर स्थापित करने का समय आ गया है. लेकिन वे गलत थीं. 

चुनाव हुए तो कांग्रेस बुरी तरह हारी. खुद इंदिरा गांधी रायबरेली से और संजय गांधी अमेठी से हार गए. जनता पार्टी की सरकार बनी. इंदिरा चिकमंगलूर से उपचुनाव लड़कर लोकसभा में पहंुच गईं लेकिन सदन को गुमारह करने के एक पुराने मामले में उन्हें न सिर्फ निलंबित कर दिया गया बल्कि उन्हें जेल भी भेजा गया. जनता पार्टी की सरकार तब तक अपने झगड़ों के लिए बदनाम होने लगी थी और इंदिरा विक्टिम कार्ड खेलकर फिर से लोकप्रिय हो रहीं थीं. बिहार के बेलछी में जब हरिजनों की हत्या की गई और इंदिरा गांधी इस बाढ़ग्रस्त इलाके में हाथी पर चढ़कर पहंुची तो उनकी लोकप्रियता फिर से चरम पर थीं. अगले मध्यावधि आम चुनाव को जीतकरी वे फिर प्रधानमंत्री बन गईं.

इस कार्यकाल की शुरुआत में ही संजय गांधी की एक विमान दुर्घटना में मृत्यु हो गई. बाद में राजीव गांधी उनके साथ आ गए. इस दौरान असम और पंजाब में दो बड़े आंदोलन चले. असम का आंदोलन बांग्लादेशी नागरिकों के मुद्दे पर था जो आमतौर पर शुरू में अहिंसक ही रहा. लेकिन पंजाब का आंदोलन पृथकतावाद की ओर चला गया. यह भी कहा जाता है कि इसे शुरू में कांग्रेस के लोगों ने ही बढ़ावा दिया था. आंतकवादी जब स्वर्ण मंदिर पर काबिज हो गए तो इंदिरा ने वहां फौज भेजकर आॅपरेशन ब्लू स्टार किया. इस दौरान अकाल तख्त पूरी तरह ध्वस्त हो गया जिसे लेकर सिखों में आक्रोश पनपने लगा. दूसरी तरफ आतंकवादी इंदिरा की निजी सुरक्षा में भी सेंध लगाने में कामयाब रहे और 31 अक्तूबर 1884 को उनके कुछ सुरक्षार्मियों ने ही  उनकी हत्या कर दी. भारतीय राजनीति की एक सबसे बड़ी ज्योति अचानक ही बुझ गई.हिंदुस्तान साभार 


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