आधुनिक भारत के वास्तुकार जवाहर लाल नेहरू

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आधुनिक भारत के वास्तुकार जवाहर लाल नेहरू

हरजिंदर

वे 19वीं सदी में पैदा हुए लेकिन उनका असर हमें भारत की पूरी 20वीं सदी पर दिखाई देता है और उनके खाते में जो श्रेय है वह 21वीं सदी में भी तमाम कोशिशों के बाद छीना नहीं जा सका है. जवाहर लाल नेहरू का जो जादू है वह भारतीय जनमानस के सर पर पीढ़ियों नहीं सदियों तक चढ़कर बोलता रहा है. इस मामले में नेहरू के राजनीतिक गुरु महात्मा गांधी ही उनके थोड़ा आगे खड़े दिखाई देते हैं. उन्होंने इसकी कभी घोषणा नहीं की लेकिन गांधी ने अपनी विरासत भी कईं तरह से नेहरू को ही सौंपी थी. वे लोग जो देश की किश्ती को गुलामी के तूफानों से निकालकर लाए और फिर उसे आधुनिक राष्ट्र की तरह स्थापित करने में जी जान लगा दी उनमें जवाहर लाल नेहरू सबसे प्रमुख नाम हैं. इस पूरे दौर में नेहरू एक ऐसी शख्सीयत के तौर दिखाई देते हैं जो संघर्ष भी करते हैं, स्वप्नदर्शी भी हैं, कुशल प्रशासक भी हैं, पूरे देश को सम्मोहित करने की क्षमता भी रखते हैं और बहुत अच्छे लेखक भी हैं.

इलाहाबाद के सबसे प्रसिद्ध और स्मृद्ध वकील मोतीलाल नेहरू के पुत्र जवाहर लाल का पूरा बचपन बिना किसी संघर्ष के ही बीता था. यहां तक कि उन्हें किसी स्कूल भी नहीं भेजा गया. घर पर ही उनकी सारी शिक्षा-दीक्षा हुई. औपचारिक शिक्षा तो एक तरह से तभी शुरू हुई जब वे आगे की पढ़ाई के लिए उस दौर में ब्रिटेन के सबसे प्रतिष्ठित स्कूल हैरो में गए. आगे की पढ़ाई उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय के ट्रिनटी स्कूल से की. इसी दौरान उनके प्रेरणा स्रोत बने इटली के प्रसिद्ध क्रांतिकारी गैरीबाल्डी. बाद में उन पर बर्नार्ड शाॅ, बर्टेंड रसेल, हेराल्ड लाॅस्की और कींस जैसे ब्रिटिश विचारकों का भी असर पड़ा. बीए की डिग्री लेने के बाद उन्होंने बैरिस्टर की पढ़ाई की और यहां से वकालत की सबसे बड़ी अहर्ता हासिल करने के बाद भारत लौट आए. इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत शुरू की लेकिन उनकी ज्यादा दिलचस्पी कांग्रेस में थी जो उस समय भारतीयों के अधिकारों के लिए लड़ रही थी. थोड़े समय बाद ही वे उन नौजवानों में शामिल थे जो पूरा दम लगाकर होम रूल की मांग कर रहे थे. इसी दौरान नेहरू महात्मा गांधी से जुड़ गए और चैरी चैरा कांड के बाद जब मोतीलाल नेहरू ने चितरंजन दास के साथ कांग्रेस से अलग होकर स्वराज पार्टी बनाई तो नेहरू गांधी के साथ ही बने रहे और अपने पिता की पार्टी में नहीं शामिल हुए. नेहरू को यह श्रेय दिया जाता है कि उथल-पुथल भरे उन दिनों में देश के नौजवान जोश को गांधी की कांग्रेस के साथ ही बनाए रखा. जब समाजवादी सोच रखने वाले कुछ नौजवान नेताओं ने कांग्रेस के भीतर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनाई तो उनकी तमाम उम्मीदों के विपरीत नेहरू इसमें भी शामिल नहीं हुए, लेकिन नेहरू ने कांग्रेस और संगठन के बीच एक पुल का काम किया जिससे ये सभी लोग आजादी मिलने तक कांग्रेस से पूरी तरह जुड़े रहे.

नेहरू को 1929 में जब कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया तो उन्होंने इस दल को धार्मिक आजादी, अभिव्यक्ति की आजादी, कानून के आगे सबकी समानता, संगठन बनाने की आजादी जैसे लक्ष्य दिए. साथ ही उन्होंने एक ऐसा धर्मनिरपेक्ष भारत बनाने की बात की जहां मजहब, जाति, वर्ण वगैरह के आधार पर कोई मतभेद नहीं होगा. कांग्रेस के जिस लाहौर अधिवेशन में उन्हें अध्यक्ष बनाया गया था उसी के बाद उन्होंने वहां रावी नदी के किनारे तिरंगा फहराते हुए जो भाषण दिया था उसे आजादी के आंदोलन के सबसे अहम भाषणों में गिना जाता है. इसी दौरान नेहरू ने एक और काम किया उन्होंने भारत के राष्ट्रीय आंदोलन को दुनिया भर में चल रहे साम्राज्यवादी आंदोलनों से जोड़ा. इसके लिए वे दुनिया भर में हुए कईं समारोहों में भी गए. इसका एक नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस के भीतर भी एक अंतर्राष्ट्रीय नजरिया विकसित हुआ. बाद में उन्होंने कांग्रेस के भीतर विदेशी मामलों का एक विभाग ही बना दिया जिसकी बागडोर राम मनोहर लोहिया को सौंपी गई. उस दौर के हिसाब से यह बहुत बड़ा कदम था क्योंकि ऐसे विभाग तो आज भी बहुत से दलों में नहीं होते.

भारत को आजाद कराने की यह लड़ाई बहुत लंबी चलनी थी. चुनौतियां लगातार बढ़ रही थीं. एक समय बाद नेहरू को सिर्फ अंग्रेजों से ही नहीं निपटना था बल्कि मुस्लिम लीग भी थी जो मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में की जा रही पाकिस्तान की मांग से भी निपटना था. लगातार संघर्ष के इस दौर में उनकी जेल यात्राएं भी शुरू हो गईं. जब पंजाब में महंतों के खिलाफ चल रहे सिखों के गुरुद्वारा आंदोलन का समर्थन करने गए तो उन्हें पकड़कर नाभा की जेल में डाल दिया गया. यह उनकी पहली जेल यात्रा थी. देश के पूरे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान नेहरू ने अपने जिंदगी के 3259 दिन यानी लगभग नौ साल जेल में ही गुजारे. भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जब उन्हें गिरफ्तार किया गया तो दो साल से भी ज्याद समय बाद रिहा किए गए. इन्हीं जेल यात्राओं के दौरान उन्होंने जेल से अपनी बेटी इंदिरा गांधी को लंबे-लंबे पत्र लिखे, जिनमें उन्होंने इंदिरा को विश्व इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाओं से परिचित कराया. ये पत्र ही बाद में संकलित करके एक किताब के रूप में छापे गए, जिसका नाम था- ग्लिंपेज़ आॅफ वल्र्ड हिस्ट्री. 

दूसरा विश्वयुद्ध खत्म होते-होेते यह बात ब्रिटेन के भी पल्ले पड़ गई थी कि भारत को अब ज्यादा दिनों तक उपनिवेश बनाए रखना संभव नहीं होगा. 1946 में कैबिनेट मिशन भारत भेजा गया जिसका मकसद था भारतीयों को सत्ता सौंपे जाने की भूमिका तैयार करना. बाद में इसी के तहत प्रदेशों में विधानसभाओं के चुनाव हुए. इन विधानसभाओं के चुने हुए सदस्यों ने एक तो प्रदेशों में अंतरिम सरकार बनाई और साथ ही संविधान सभा के लिए अपने प्रतिनिधि चुने. विधानसभाओं में कांग्रेस का बहुमत था इसलिए संविधान सभा में ही कांग्रेस का बहुमत होना था. इसी संविधान सभा से जवाहर लाल नेहरू को देश का अंतरिम प्रधानमंत्री बनाया गया. शुरू में मुस्लिम लगी इससे दूर रही लेकिन बाद में वह भी इसमें शामिल हो गई. लियाकत अली खान इस अंतरिम सरकार में वित्तमंत्री बनाए गए. 

देश जब 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ तो गांधी, नेहरू या सरदार बल्लभभाई पटेल कोई नहीं चाहता था कि देश का विभाजन हो, लेकिन हालात ऐसे बन गए थे कि उन्हें विभाजित भारत स्वीकार करना पड़ा. उस दिन जवाहर लाल नेहरू ने ‘नियति से साक्षात्कार‘ नाम से प्रसिद्ध जो भाषण दिया उसे भारत ही नहीं दुनिया के सबसे प्रसिद्ध भाषणों में शुमार किया जाता है. उन्हें जो भारत मिला वह विभाजित तो था ही, उसकी जटिलताएं इतनी ज्यादा थीं कि दुनिया के तमाम विशेषज्ञ यह तक कह रहे थे कि भारत एक नहीं रह पाएगा. जबकि नेहरू के सामने चुनौती उन्हें गलत साबित करने की थी और वे इसमें सफल रहे. नेहरू के लिए अच्छी बात यह थी कि उन्हें आजादी के आंदोलन की विरासत से सहयोगियों की एक ऐसी टीम मिली थी जो सभी वैचारिक रूप से महान तो थे साथ नेतृत्व की कुशलता के लिए जाने जाते थे. आजादी के आंदोलन ने उन्हें मतभेदों के बावजूद एक टीम के तौर पर काम करना भी सिखा दिया था. आजादी के बाद बने उनके पहले मंत्रिमंडल में सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद, भीमराव अंबेडकर, रफी अहमद किदवई जैसे बड़े नाम थे. 

दो चुनौतियां सबसे बड़ी थीं. एक तो देश में 500 से ज्यादा रियासते थीं, जिन्हें खत्म करके देश की मुख्यधारा में शामिल करना था. इसका जिम्मा गृहमंत्री सरदार पटेल को सौंपा गया. उन्होंने तमाम बाधाओं के बावजूद इस काम को इतनी मजबूती से अंजाम दिया कि उन्हें भारत का लौह पुरुष कहा जाने लगा. कश्मीर और हैदराबाद के भारत में विलय को लेकर बहुत सी बाधाएं आईं लेकिन वे सफल रहे. हालांकि कश्मीर में जो समस्या खड़ी हुई वह आज तक बनी हुई है और इसके लिए अक्सर नेहरू को ही दोषी करार दिया जाता है, भारत में भी और पाकिस्तान में भी. दूसरी समस्या यह थी विभाजन के कारण बने तनाव में देश के कईं हिस्सों में दंगे शुरू हो गए थे. गांधी उन दंगों की आग को शांत करने के लिए कूद पड़े थे, जिससे यह आग ठंडी भी हुई लेकिन जब गांधी की हत्या कर दी गई तो यह काम नेहरू और पटेल को ही करना था. इसी से जुड़ी एक समस्या यह भी थी कि पश्चिमी पाकिस्तान से जो शारणर्थी आए थे वे बड़े ही हिंसक घटनाक्रम से गुजरे थे. उनके साथ ही बहुत सारे दक्षिणपंथी संगठन भी खड़े हो गए थे जो मांग कर रहे थे कि भारत में जवाबी हिंसा की जाए और मुसलमानों को भगा कर पाकिस्तान खदेड़ दिया जाए. नेहरू और पटेल इस बात पर प्रतिबद्ध थे कि किसी भी तरह से भारत को एक और पाकिस्तान नहीं बनने देना है. दोनों का लक्ष्य भारत को एक ऐसा राष्ट्रवाद देना था जिसमें सांप्रदायिकता के लिए कोई जगह न हो. वे दोनों न सिर्फ हालात को नियंत्रित करने में बल्कि समाज की सोच को बदलने में इस हद तक कामयाब हुए कि बाद में नेहरू के 17 साल के कार्यकाल में बहुत बडंे सांप्रदयिक दंगे नहीं हुए. 

बहुत जल्द ही पटेल भी साथ छोड़ गए. उनके निधन के बाद राष्ट्रनिर्माण का काम अब नेहरू को अकेले ही करना था. नेहरू ने विश्वविद्यालय भी बनवाए और वैज्ञानिक विकास के तमाम संस्थान भी. ये संस्थान ही बाद में भारत की सबसे बड़ी पूंजी साबित हुए. लेकिन नेहरू के जिस काम दुनिया भर में सबसे ज्यादा सराहा गया वह था देश में लोकतांत्रिक संस्थाओं की नींव रखना. उन्होंने न सिर्फ विधानसभाओं और संसद में बहस व विमर्श की परंपरा को मजबूत बनाया बल्कि देश को एक ऐसा चुनाव आयोग भी दिया जिसकी निष्पक्षता संदेह से परे रही. उन्होंने एक ऐसी न्यायपालिका की नींव रखी जो राजनीतिक हस्तक्षेप से दूर थी. देश को एक ऐसी फौज दी जिसकी राजनीतिक महत्वकांक्षाएं शून्य के बराबर थीं. और सबसे बड़ी बात है कि भारत सभी व्यस्कों को बराबरी का मताधिकार देने वाला दुनिया का पहला देश बना. उस समय तक किसी भी देश में महिलाओं को बराबरी के मताधिकार नहीं मिला था. यह भी कहा जाता है कि अगर नेहरू चाहते तो उस दौर में उनकी जन-सामान्य में जो लोकप्रियता थी उसके चलते वे तानाशाह बन सकते थे, ताकि ढेर सारी समस्याओं को बहुत जल्द सुलझाने की कोशिश करते. जैसा कि उस दौर में आजाद होने वाले दुनिया के बहुत से देशों में हुआ भी. लेकिन नेहरू ने लोकतंत्र का लंबा रास्ता चुना. 

लोकतंत्र के लिए नेहरू ने कितनी मेहनत की इसे 1952 के देश के पहले आम चुनाव से समझा जा सकता है. नेहरू उस समय इतने लोकप्रिय थे कि अगर वे कहीं न जाते और घर पर ही बैठे रहते तो भी उनकी पार्टी को वह चुनाव जीतना ही था. लेकिन नेहरू ने देश भर मे घूम-घूम कर प्रचार का रास्ता ही चुना. उन्हें लगा कि इससे वे मतदाताओं तक अपने विचार भी पहंुचा सकेंगे और उनको समझ भी सकेंगे. बाद में जब गणना हुई तो पता चला कि इस चुनाव में उन्होंने 18,000 मील का सफर हवाई जहाज से किया, 5,200 मील का कार से, 1,600 मील का का ट्रेन से, 90 मील नाव से और इस दौरान वे पैदल कितना चले इसका कोई हिसाब नहीं है. कहा जाता है कि एक ही चुनाव में उनकी यह यात्रा समुद्रगुप्त, फाहयान या ह्वेनसांग की यात्राओं के बराबर थीं. बाद के चुनावों में भी यही हाल रहा.

नेहरू को उनकी विदेश नीति के लिए भी भुलाया नहीं जा सकता. उन्होंने उस गुटनिरपेक्ष आंदोलन की नींव रखी जिसने शीतयुद्ध में फंसी दुनिया को एक नई राजनीति दी. चीन के साथ युद्ध में वे नाकाम जरूर है लेकिन वह नेहरू ही थे जिन्होंने भारत जैसे देश को हार बर्दाश्त करने का ढाढ़स दिया. इसके लिए उन्होंने पूरे देश में सभाएं की. इतिहासकार रामचंद्र गुहा बताते हैं कि युद्ध के बाद नेहरू जब देहरादून आए तो गुहा की मां भी उनका भाषण सुनने गईं.  नेहरू के भाषण से वे इतना प्रभावित हुईं कि उन्होंने वहीं पर अपने सोने के कंगन राष्ट्रीय सुरक्षा कोष में दान कर दिए. यह ऐसा काम था जिसके लिए बाद में परिवार में उनका मजाक भी बनाया जाता रहा. यह था नेहरू का सम्मोहन जिसके जादू ने पूरे देश का लंबे समय तक बांधे रखा. आजाद भारत में उन्होंने पूरे 17 साल तक राज किया, और जब इस दुनिया से विदा हुए तो भी यह जादू कभी नहीं टूटा.

साभार हिंदुस्तान 



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