मंडल और कमंडल का साझा चेहरा कल्याण सिंह

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मंडल और कमंडल का साझा चेहरा कल्याण सिंह

हरजिंदर

वे एक ऐसे दौर में उभरे जब भारतीय राजनीति असंख्य उलझनों के ढेर में फंसी हुई थी. भारतीय जनता पार्टी के राम मंदिर के खिलाफ मंडल आयोग की सिफारिशों का मुद्दा खड़ा किया गया था. इस राजनीति को मंडल बनाम कमंडल की लड़ाई बताया जा रहा था. ठीक इसी दौर में कल्याण सिंह वहां खड़े थे जहां मंडल और कमंडल दोनों आकर मिल जाते हैं. वे बचपन से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गए थे और यही प्रतिद्धता उन्हें राम मंदिर मुद्दे से जोड़ रही थी. इसी के साथ ही वे लोध जाति से आते हैं जिसकी गिनती अति पिछड़ी जातियों में होती है. हालांकि इस जाति की आबादी उत्तर प्रदेश में महज पांच-छह फीसदी ही है लेकिन भारतीय जनता पार्टी केा कल्याण सिंह के रूप में एक ऐसा चेहरा मिल गया था जिससे सोशल इंजीनियरिंग और हिंदुत्व दोनों को एक साथ साधा जा सकता था. यह कल्याण सिंह ही थे जिन्होंने भाजपा को गंठबंधन के दौर में सत्ता की राजनीति करना सिखाया. केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकारें तो बाद में बनीं, उसके बहुत पहले ही कल्याण सिंह ने भाजपा को ‘गंठबंधन धर्म‘ का स्वाद चखा दिया था. 

बचपन और जवानी में कल्याण सिंह का एक शौक था पहलवानी. हालांकि वे जिन अखाड़ों की मिट्टी में लोटकर बड़े हुए बड़े होने पर उन्हें छोड़कर पहलवानी के सारे दांव उन्होंने राजनीति के मैदान पर ही आजमाए. यहीं उन्होंने अपने प्रतिद्वंदियों को चुनौती दी और यहीं उन्हें चित भी किया. पहलवानी और राजनीति का अर्थ यह नहीं था कि उन्होंने अपनी पढ़ाई ठीक से नहीं की.  एमए करने के बाद वे अध्यापक हो गए थे और वहीं से वे भारतीय जनसंघ में शामिल हुए. 

कल्याण सिंह ने अपना पहला चुनाव अतरौली विधानसभी सीट से लड़ा और उस जीत के बाद उनकी जीत का सिलसिला लगातार हो गया. पूरे आपातकाल वे जेल में रहे और रिहा होते ही उनकी राजनीति नए शिखर की ओर बढ़ने लग गई. उत्तर प्रदेश मेें जब राम नरेश यादव की सरकार बनीं तो उसमें उन्हें स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया. हालांकि उस मंत्रिमंडल में संघ की पृष्ठभूमि वाले जो नेता थे उनके वरिष्ठता क्रम में कल्याण सिंह काफी पीछे थे. लेकिन अब कल्याण सिंह उस जगह पहंुच चुके थे जहां वे राजनीति की दौड़ ने सभी को पीछे छोड़ने वाले थे. जनता पार्टी का प्रयोग विफल होने के बाद वे अपनी पृष्ठभूमि के हिसाब से भाजपा में शामिल हुए. हालांकि वे 1980 का चुनाव हार गए लेकिन इसी साल उन्हें राज्य भाजपा का महासचिव बना दिया गया और चार साल बाद वे इसके अध्यक्ष बन गए. 1989 में जब वे विधानसभा में भाजपा विधायक दल के नेता बने तो प्रदेश और देश की राजनीति एक नए मोड़ पर पहंुचने वाली थी. 

अगले ही साल अगस्त महीने में केंद्र की विश्वनाथ सिंह सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशें स्वीकार करते हुए पिछड़ों को 27 फीसदी आरक्षण देने का प्रावधान कर दिया. इसे लेकर जब पूरे देश में हंगामा हो रहा था तो भाजपा के सामने इसे लेकर अस्तित्व का संकट खड़ा होने लगा. इसकी काट निकाली लाल कृष्ण आडवाणी ने जिन्होंने हिंदुओं को आंदोलित करने के लिए  राम रथ यात्रा का आयोजन किया. यह यात्रा जब देश के ज्यादातर हिस्सों में होती हुई बिहार पहंुची तो वहां के मुख्यमंत्री लालू यादव ने इसे रोक कर आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया. राम रथ यात्रा तो रुक गई लेकिन उत्तर प्रदेश में भाजपा का राजीतिक रथ निकल पड़ा. इसके बाद कार सेवा के नाम पर विश्व हिंदू परिषद ने लोगों से अयोध्या पहुंचने की अपील की तो इसे रोकने के लिए मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने हर मुमकिन कोशिश की. यहां तक कि इसके लिए कार सेवकों की भीड़ पर गोलीबारी तक करनी पड़ी. इस सबसे जो माहौल बना वह अंत में भाजपा के लिए फायदेमंद साबित हुआ. 

चुनाव हुए तो भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. पार्टी को विधानसभा में 221 सीटें मिलीं. भाजपा वहां पहुंच गई थी जहां से सरकार बनाना उसके लिए कठिन नहीं था. इसके काफी बाद तक उत्तर प्रदेश में यह भाजपा का सर्वोच्च शिखर था. सिर्फ 2017 में मोदी युग आने के बाद ही भाजपा ने इस आंकड़े को पार कर सकी. उसे अब वह हाशिये की ऐसी पार्टी नहीं थी जिसे यह कह कर खारिज कर दिया जाता था कि भापजा उत्तर प्रदेश की नेचुरल पाॅलिटिकल फोर्स नहीं है. जो सरकार बनी उसके मुख्मंत्री थे कल्याण सिंह. शपथ लेने के बाद कल्याण सिंह ने सबसे पहला काम यह किया कि वे अयोध्या गए और जहंा बाबरी मस्जिद है वहां राम मंदिर बनाने का संकल्प दोहराया. इतना ही नहीं उनकी सरकार ने बाबरी मस्जिद से लगी 1.12 हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण कर लिया. बताया तो यही गया कि यहां पर पर्यटकों के लिए सुविधाएं तैयार की जाएंगी लेकिन उसका उपयोग आंदोलन को धार देने के लिए किया जाने लगा. बाद में मुरली मनोहर जोशी समेत कईं भाजपा नेताओं ने उस जगह का दौर भी किया. कल्याण सिंह एक और काम में सफल रहे. उन्होंने उस जगह जो राम मंदिर था उसके मुख्य पुजारी बाबा लाल दास को उनके पद से हटा दिया. बाबा लाल दास शुरू से ही मंदिर आंदोलन का विरोध कर रहे थे. यही वह दौर है जब विश्व हिंदू परिषद और भाजपा दोनों ही अयोध्या मामले को अपनी पूंजी बनाकर ज्यादा से ज्यादा लाभ लेने की कर रहे थे. उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजे इस बात की गवाही दे रहे थे कि इसका असर भी हो रहा है.

अगले ही साल परिषद ने अयोध्या में बड़े पैमाने पर कार सेवा का आयोजन किया. कार सेवकों की भारी भीड़ जब अयोध्या की ओर बढ़ने लगी तो आशंकाएं शुरू हो गईं और लोगों के माथे पर चिंता की लकीरें भी दिखने लगीं. अब मुलायम सिंह की तरह वहां कोई ऐसी सरकार भी नहीं थी जो किसी भी कीमत पर बाबरी मस्जिद से छेड़छाड़ न होने देने के लिए प्रतिबद्ध थी. मामला सुप्रीम कोर्ट पंहुचा तो मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को भी वहां पेश होना पड़ा. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में लिखित ऐफीडेविट दिया कि बाबरी मस्जिद को कुछ नहीं होने दिया जाएगा. लेकिन छह दिसंबर 1992 को लाखों स्वयंसेवकों की भीड़ ने बाबरी मस्जिद को मिट्टी में मिला दिया. वहां मौजूद भाजपा नेताओं की भीड़ इस पर खुशी जाहिर करती रही और भारी तादात में मौजूद पुलिस व सुरक्षा बल मूक दर्शक बने रहे. शाम होते होते कल्याण सिंह ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया जबकि लगभग ठीक उसी समय केंद्र ने उत्तर प्रदेश सरकार को बर्खास्त कर दिया. राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया और उत्तर प्रदेश फिर से चुनाव की ओर बढ़ चला था. भाजपा को लग रहा था कि बाबरी विध्वंस के बाद अब लंबे समय के लिए उत्तर प्रदेश उसके हाथ में आ चुका है. लेकिन वहां जमीन पर कुछ और ही हो रहा था. 

अगले चुनाव में एक बड़ी बात यह हुई कि मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी और कांशीराम की बहुजन समाज पार्टी हाथ मिला लिए. उन दिनों उत्तर प्रदेश में यह नारा चलता था- मिले मुलायम कांशीराम, हवा हो गए जय श्रीराम. इस गंठजोड़ का नतीजा था कि भाजपा 221 सीट से सीधे 174 सीट पर आ गिरी. इस चुनाव ने कल्याण सिंह को राम मंदिर मुद्दे की सीमाओं को बता दिया था. बसपा के सहयोग से मुलायम सिंह यादव सरकार बनाने में कामयाब रहे. हालांकि यह सहयोग ज्यादा लंबा नहीं चला और अधबीच ही सरकार गिर गई. इसी दौरान मुलायम सिंह यादव और बसपा नेता मायावती के रिश्ते इतने तल्ख हो गए कि उनमें किसी भी गंठजोड़ की उम्मीद खत्म हो गई. मुलायम सिंह की सरकार गिरी तो भाजपा ने कुछ दिनों के लिए मायावती को समर्थन देकर मुख्यमंत्री बना दिया. मायावती का यह कार्यकाल महज 137 दिन ही चला और उसके बाद प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लग गया.

इस बीच एक और घटना भी हुई. राम मंदिर मुद्दे पर 1992 में कल्याण सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में जो ऐफीडेविट दिया था उसे लेकर उन पर अदालत की अवमानना का मामला आगे बढ़ा तो उनकी अदालत में पेशी हुई. अदालत ने उन्हें एक दिन की प्रतीकात्मक सजा दी और 24 अक्तूबर 1994 को दिल्ली की तिहाड़ जेल में एक दिन बिताने के बाद कल्याण सिंह फिर से प्रदेश की राजनीति में लौट आए.

फिर 1996 में विधानसभा चुनाव हुए तो प्रदेश के नए समीकरणों से भाजपा को काफी उम्मीद थी, लेकिन उसे इसका बहुत फायदा नहीं मिल सका. पिछली बार के मुकाबले उसे सिर्फ तीन सीटों का ही फायदा हुआ. हां वह विधानसभा में सबसे बड़ा दल जरूर बन गई थी. विधानसभा में सबसे बड़ा राजनीतिक दल बन जाना अलग चीज थी और सरकार बना पाना अलग चीज. भाजपा की विचारधारा के कारण बाकी सभी दल भाजपा के साथ आने से कतराते थे. हालांकि इस राजनीति की कुछ और भी जटिलताएं थीं जिनके चलते वे खुद मिलकर सरकार बनाने में भी असमर्थ दिख रहे थे. यह राजनीतिक जटिलता इतनी ज्यादा बढ़ गई कि चुनाव के बावजूद प्रदेश में राष्ट्रपति शासन को आगे बढ़ाना पड़ा. भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने इस बाधा से पार पाने का एक और तरीका निकाला. उसने बसपा से यह समझौता किया कि पहले छह महीने तक मायावती प्रदेश की मुख्यमंत्री बनेंगी जबकि उसके बाद छह महीने के लिए भाजपा को मौका मिलेगा. कल्याण सिंह के लिए यह समझौता परेशानी भरा था लेकिन इसे स्वीकार करने के अलावा उनके पास कोई और चारा भी नहीं था. मायावती की छह महीने की सरकार के बाद कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई. लेकिन कुछ ही समय में बसपा ने समर्थन वापस ले लिया और सरकार फिर से संकट में थी.

यही वह मौका था जब कल्याण सिंह ने अपने राजनीतिक कौशल का परिचय दिया. बड़े पैमाने पर दल बदल हुआ और जोड़-तोड़ से भाजपा उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने में कामयाब रही. सबसे बड़ी सेंध बसपा में लगाई गई थी. इसी जोड़तोड़ की मजबूरियों के नतीजे में प्रदेश को एक ऐसी सरकार मिली जिसमें 93 मंत्री थे. आलोचनाएं चाहे जितनी भी हुई हों लेकिन कल्याण सिंह ने ऐसा समीकरण गांठ लिया था जिससे वे सरकार को लंबे समय तक के लिए चला सकते थे. हालांकि बीच में राज्यपाल रोमेश भंडारी ने एक दिन के लिए जगदंबिका पाल को एक दिन के लिए मुख्यमंत्री बनवा दिया लेकिन अदालत के हस्तक्षेप से यह संकट तुरंत ही टल गया. इसके बाद दो साल तक उन्होंने बिना किसी परेशानी के सरकार चलाई, फिर एक खतरा उनकी पार्टी के भीतर से ही खड़ा हुआ. पार्टी के गुटों ने उनके खिलाफ अभियान शुरू किया. यह भी कहा गया कि उंची जातियों ने उनके खिलाफ एकजुटता बना ली है. उनके बेटे राजवीर सिंह के राजनीति में सक्रिय होने को लेकर भी सवाल उठने लगे. जब लगा कि कुर्सी जाने वाली है तो उन्होंने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ भी कुछ निजी टिप्पणियां कर दीं. पार्टी ने जल्द ही उन्हें हटाकर राम प्रकाश गुप्त को मुख्यमंत्री बना दिया जिन्हें उनकी सरकार ने प्रदेश योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाया था. 

पद से हटने के बाद कल्याण सिंह के सुर तल्ख होने लगे तो उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. उन्होंने अपना एक अलग दल बनाया- राष्ट्रीय क्रांति पार्टी. कभी मुलामय सिंह यादव ने कल्याण सिंह के बारे में कहा था कि उनकी भाजपा में कोई जगह नहीं, अंत में उन्हें हमारे साथ ही आना पड़ेगा. और कल्याण सिंह उनके पास आ ही गए, लोकसभा चुनाव में इस पार्टी ने मुलायम सिंह से गंठजोड़ किया. कुछ लोग इसे पिछड़े वर्गों की व्यापक एकता के रूप में देख रहे थे. लेकिन जब चुनाव के नतीजे आए तो मुलायम सिंह और कल्याण सिंह दोनों को ही इसका अर्थ समझ में आ गया. अल्पसंख्यक कल्याण सिंह को बाबरी विध्वंस के लिए सबसे बड़ा जिम्मेदार मानते थे इसलिए उनके वोट सपा के बजाए कांग्रेस को मिल गए. कल्याण सिंह को भी समझ मंे आ गया कि भाजपा के बाहर आकर उनका कद कितना रह जाता है. अब उनके पास भाजपा में वापसी के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था. 

भाजपा में वापसी के बाद वे एटा से लोकसभा के लिए चुने गए. 2014 के चुनाव में इस सीट से उनकी जगह उनके बेटे राजवीर को टिकट दिया गया. चुनाव के बाद मोदी सरकार बनी तो उन्हें राजस्थान का राज्यपाल बना दिया गया. बीच में कुछ दिनों के लिए उन्होंने हिमाचल के राज्यपाल की अतिरिक्त जिम्मेदारी भी संभाली.हिंदुस्तान 

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