वीपी सिंह की राह इतनी आसान नहीं थी

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वीपी सिंह की राह इतनी आसान नहीं थी

हरजिंदर

या तो लोग उनसे प्यार करते हैं या नफरत. या तो लोग उन्हें भारतीय समाज में बहुत बड़ा अमूल बदलाव लाने वाला मानते हैं या फिर वर्तमान की बहुत सारी समस्याओं की जड़. विश्वनाथ प्रताप सिंह को लेकर लोगों की सोच जिस तरह दो ध्रुवों पर बंटी है वैसी देश के बहुत कम ही नेताओं के मामले में बंटी होगी. एक और खास बात यह है कि उनके पूरे जीवन काल के हर मोड़ पर हमारी मुलाकात जिस विश्वनाथ प्रताप सिंह से होती है वह पहले से पूरी तरह अलग है. यह भी कहा जाता है कि वीपी सिंह की जीवन गाथा इस्तीफों की कहानी है, अपने पूरे जीवन में वे इस्तीफा दर इस्तीफा आगे बढ़ते चले गए. पदों से ही नहीं उन्होंने अपनी भूमिकाओं से भी इस्तीफे दिए हैं. कहा जाता है कि उन्होंने पहला इस्तीफा तब दिया जब स्कूल में थे और वहां छात्रों की एक संस्था के लिए चुने गए थे. 

वे एक जमींदार परिवार में पैदा हुए और दत्तक पुत्र के रूप में पले बढ़े एक दूसरे ज्यादा बड़े जमींदार परिवार में. उन्हें गोद लेने वाले पिता यानी मांडा के राज बहादुर का जब निधन हुआ तो वीपी सिंह महज दस साल के थे. और इसी उम्र में वे राज बहादुर घोषित हो गए. देहरादून से अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय गए जहां से उन्होंने बीए और एलएलबी किया. यहीं वे छात्र संघ के उपाध्यक्ष भी बने. फिर न जाने क्या सूझी कि वे पुणे के फर्गसां काॅलेज पंहुच गए जहां से उन्होंने भौतिक विज्ञान में बीएससी की डिग्री ली. 

वीपी सिंह ने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत भूदान आंदोलन से की. इस आंदोलन से वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने विरासत में मिली अपनी सारी कृषि योग्य जमीन दान कर दी. इसे लेकर परिवार में तनाव भी हुआ. उनकी पत्नी सीता देवी ने अदालत में एफीडेविट देकर कहा कि उनके पति मानसिक तौर पर अस्थिर हैं इसलिए उनके इस फैसले को अमान्य किया जाए. यह एक ऐसा ऐफीडेटिवट था जिसने फिर कभी वीपी सिंह का साथ नहीं छोड़ा और उनके पूरे जीवन भर इसका जिक्र किसी न किसी तरह से होता रहा. 

जब वे राजनीति में आए तो उन्होंने हमेशा ही अपनी छवि को सज्जन, सुशील और मिस्टर क्लीन वाली बनाए रखा. पहला चुनाव उन्होंने सोरान विधानसभा सीट से लड़ा. जीते तो उन्हें विधानसभा में कांग्रेस पार्टी का मुख्य सचेतक यानी चीफ व्हिप बनाया गया. दो साल बाद ही वे 1971 में लोकसभा में पहंुच गए. ये चुनाव उन्होंने इलाहाबद के फूलपुर निर्वाचन क्षेत्र से जीता था जो भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल का निर्वाचन क्षेत्र भी था. जल्द ही वे इंदिरा गांधी की पसंद बन गए, उन्हें 1974 में केंद्रीय उपमंत्री बनाया गया. कुछ समय बाद उन्हें तरक्की देकर देश का वाणिज्य मंत्री बना दिया गया. 

जनता पार्टी का प्रयोग नाकाम होने के बाद कांग्रेस की वापसी हुई तो वीपी सिंह को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया, इसी के साथ उनका वह उत्थान काल भी शुरू हुआ, जब कुछ ही साल में वे भारतीय राजनीतिक क्षितिज पर काफी तेजी से चमके. 

उनके मुख्यमंत्री काल की सबसे बड़ी घटना थी डाकुओं के खिलाफ चला उत्तर प्रदेश पुलिस का अभियान. यह वह दौर था जब प्रदेश में एनकाउंटर आम लोगों की भाषा का हिस्सा बना. यह भी कहा जाता है कि अभियान से पहले प्रदेश पुलिस की डाकुओं की सूची मंे जितने नाम थे उससे ज्यादा डाकू एनकाउंटर में मारे गए फिर भी डाकू समस्या वैसी ही बनी रही. 

जल्द ही डाकुओं ने भी हमला बोला और वीपी सिंह को बहुत बड़ा निजी नुकसान पहंुचा. डाकुओं ने उनके बड़े भाई और इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायधीश चंद्र शेखर प्रसाद सिंह का अपहरण कर लिया व उनकी हत्या कर दी. इस पर वीपी सिंह को कहना पड़ा कि मेरे मुख्यमंत्री बनने की कीमत मेरे भाई ने चुकाई है.  

डाकू समस्या के लिहाज से उनका कार्यकाल काफी महत्वपूर्ण रहा. यही वह दौर था जब इस समस्या को खत्म करने के सबसे बड़े प्रशासनिक प्रयास हुए. और यही वह दौर था जिसने साबित किया कि अकेले पुलिस के प्रयोग से ही इस समस्या को खत्म नहीं किया जा सकता. वीपी सिंह की सरकार ने चाहे कितने भी गंभीर प्रयास किए हों लेकिन अंत में उन पर यही आरोप आया कि उन्होंने राजपूतों और चंबल के बागियों की पुरानी अदावत को एक नया रूप दे दिया है. यही वह दौर था जब उत्तर प्रदेश में बेहमई कांड हुआ. इसके बाद मैनपुरी जिले में भी डाकुओं ने एक बड़ा हत्याकांड किया. जिसके बाद वीपी सिंह ने 500 शब्दों का लंबा चैड़ा इस्तीफा लिख कर राज्यपाल को भेज दिया. जिसमें उन्होंने लिखा था- ‘अपनी अंतर्रात्मा की आवाज पर मैने पद छोड़ने का फैसला किया है. कुछ नतीजें निकलें इसके लिए उत्तर प्रदेश के लोगों ने लंबा इंतजार किया. मेरे नाकाम रहने की कीमत लोग क्यों चुकाएं?‘ 

उस दौर के वीपी सिंह को एक और चीज के लिए याद किया जाता है. उन्होंने नौ जून 1980 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी और उसके ठीक दो सप्ताह बाद विमान दुर्घटना में संजय गांधी का निधन हो गया. उसके बाद पार्टी के कईं नेताओं ने इंदिरा गांधी से आग्रह किया कि वे राजीव गांधी को राजनीति में उतारें. वीपी सिंह उन नेताओं में सबसे आगे थे. इसके लिए एक बार तो उन्होंने कृष्ण लीला के उस आख्यान का भी जिक्र किया जिसमें सारे ग्वाल-बाल यशोदा मैय्या से आग्रह कर रहे हैं कि वे कृष्ण को उनके साथ खेलने के लिए भेज दें. 

मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद वे राज्यसभा से होते हुए केंद्र में पहंुच गए जहां पर उन्हें फिर से वाणिज्य मंत्री बना दिया गया. 

इंदिरा गांधी की आतंकवादियों द्वारा हत्या के बाद जब राजीव गांधी ने सत्ता संभाली तो विश्वनाथ प्रताप सिंह की गिनती उनके सबसे विश्वस्थ सहयोगियों में होने लगी. उन्हें वित्त मंत्री बनाया गया और अपने पहले ही बजट से वे चर्चा में आ गए. अक्सर जब उदारीकरण की बात होती है तो इसका सेहरा नरसिंह राव और मनमोहन सिंह के सर पर बांधा जाता है, लेकिन वे देश केा जिस दिशा में ले गए उसकी शुरुआत वीपी सिंह ने पहले ही कर दी थी. अपने पहले बजट में उन्होंने निजी आयकर और कंपनी कर दोनों में ही भारी कटौती की. इसके अलावा उन्होंने सोने के आयात पर लगने वाला सीमा शुल्क भी काफी कम कर दिया जिससे सोने की तस्करी में काफी कमी आई. इन कदमों को लेकर देश के औद्योगिक घरानों ने उनकी खासी तारीफ की. लेकिन तारीफ का यह दौर लंबा नहीं चला. वीपी सिंह ने एनफोर्समेंट डायरेक्टरेट को अधिक अधिकार और काम करनी की आजादी दी तो यह निदेशालय सक्रिय हो गया. उसने रिलायंस समेत कईं औद्योगिक घरानों पर छापे मारे. इन छापों की वजह से उस दौर को रेड राज भी कहा जाने लगा. 

नतीजा यह हुआ कि उन्हें वित्त मंत्रालय से हटाकर रक्षा मंत्री बना दिया गया. रक्षा मंत्री बनते ही उन्होंने बोफोर्स तोप सौदे और पनडुब्बी खरीद में घूस लिए जाने के आरोप की जांच शुरू करवा दी. जिसे लेकर राजीव गांधी से उनकी सीधी ठन गई. बोफोर्स के मुद्दे को विपक्ष ने लपक लिया और राजीव के लिए एक ऐसा राजनैतिक संकट खड़ा हो गया जिसने फिर कभी उनका पीछा नहीं छोड़ा. बात बढ़ी तो वीपी सिंह को सत्ता संभालने के तीन महीने बाद ही इस्तीफा देना पड़ा. अब वे एक ऐसे नेता में बदल गए थे जो भ्रष्टाचार के मसले पर सीधे राजीव गांधी को चुनौती दे रहा था. राजीव गांधी से नाराज एक और नेता अरुण नेहरू के साथ ही उन्होंनें पार्टी से इस्तीफा दे दिया और जनमोर्चा नाम का संगठन बनाया. जिसका बाद में जनता दल में विलय हो गया. बोफोर्स का मुद्दा इतना बड़ा हो गया कि उसने अगले आम चुनाव में उसने सरकार ही बदल दी. 

हालांकि वीपी सिंह के प्रधानमंत्री बनने की राह इतनी आसान नहीं थी. चंद्रशेखर किसी भी कीमत पर उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनने देना चाहते थे. उधर हरियाणा के देवीलाल की अपनी महत्वकांक्षाएं थीं. लेकिन अरुण नेहरू की चतुराई से वीपी सिंह प्रधानमंत्री बनने में तो कामयाब हो गए लेकिन जो सरकार बनी वह दो बैसाखियों पर सवार थी. एक तरफ उसे भाजपा का सहयोग लेना पड़ा था जो राम मंदिर आंदोलन में जान फूंक कर सत्ता में आने का सपना देख रही थी. दूसरी तरफ वाम मोर्चा था जो भाजपा, कांग्रेस और तीसरा मोर्चा सभी को लेकर सशंकित रहता था. जब वीपी सिंह से इस अंतर्विरोध के बारे में पूछा गया तो उनका जवाब था- राजनीति विपरीत ध्रुवों को एक साथ रखने की कला का नाम है.

लेकिन समस्या से निपटने का उन्होंने एक दूसरा तरीका ही खोजा. उन्होंने ठंडे बस्ते में जा चुके जनता दल के घोषणा पत्र को झाड़ पोंछ कर निकाला और मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने के वादे को स्वीकार करने की घोषणा कर दी. इसी के साथ अन्य पिछड़ी जातियों के लिए 27 फीसीदी आरक्षण का रास्ता ख्ुाल गया था. कहा जाता है कि वीपी सिंह ने इस रिपोर्ट का इस्तेमाल एक साथ कईं निशानों को साधने वाली मल्टी टारगेटेड मिसाइल की तरह किया था. उन्हें लगता था कि इस कदम से वे चंद्रशेखर की राजनीति को भी ध्वस्त कर देंगे और देवीलाल की भी, इसी के साथ इससे भाजपा के मंदिर आंदोलन को भी ठिकाने लगाया जा सकेगा. कुछ विश्लेषकों ने कहा कि मंडल आयोग की सिफारिशें स्वीकार करके वीपी सिंह ने अपने लिए वह जमीन तैयार कर ली है जिससे उन्हें आने वाले काफी समय तक हराया नहीं जा सकेगा. 

मकसद चाहे जो भी रहा हो लेकिन वीपी सिंह ने एक ऐसा कदम उठा दिया था जिसने भारतीय राजनीति और समाज को हमेशा के लिए बदल दिया. यह एक ऐसा कदम था जिसका कोई भी पार्टी और कोई भी नेता सीधा विरोध नहीं कर सकता था. इसलिए आरक्षण का यह कानून संसद में भी आसानी से पास हो गया. लेकिन कईं शहरों में इसे लेकर खासा हंगामा हुआ और शहरों की कानून व्यवस्था काफी दिन तक चरमराई रही. भाजपा ने सीधा इस मुद्दे से न टकराते हुए राम मंदिर आंदोलन को ही हवा देने की रणनीति अपनाई. उसके नेता लाल कृष्ण आडवाणी पूरे देश की रथ यात्रा पर निकल पड़े. रथ यात्रा जब बिहार पहंुची तो मुख्यमंत्री लालू यादव ने इसे रुकवा कर आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया. इसके बाद भाजपा ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया और वीपी सिंह की सरकार एक साल पूरा होने से पहले ही गिर गई. एक बार फिर वीपी सिंह को इस्तीफा देना पड़ा. जनता दल टूट गया और चंद्रशेखर ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई जो महज 40 दिन ही चली. इसके बाद चुनाव हुए तो खुद वीपी सिंह तो फतेहपुर सीट से चुनाव जीत गए लेकिन उनकी पार्टी चुनाव हार गई.

उनका प्रधानमंत्री काल एक और चीज के लिए याद किया जाता था. सरकार के शपथ लेने के कुछ दिन बाद ही गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबैय्या सईद का आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया और उन्हें छुड़वाने के लिए सरकार को कुछ आतंकवादियों को रिहा करना पड़ा. कुछ लोग वर्तमान कश्मीर समस्या की शुरुआत वहीं से मानते हैं. बाद में वीपी सिंह ने जगमोहन को कश्मीर का राज्यपाल बनवाया. जगमोहन के दौर में ऐसी स्थितियां बनी कि कश्मीरी पंडितों को वहां से भागना पड़ा. कईं लोग वर्तमान कश्मीर समस्या की शुरुआत का इसे एक महत्वपूर्ण मोड़ मानते हैं. 

जिस मंडल आयोग के बारे में कहा जाता था कि वह उन्हें अजेय बना देगाा वह उनके किसी काम न आया. लेकिन वीपी सिंह को यह श्रेय तो दिया ही जाएगा कि उन्होंने उन सिफारिशों को मंजिल तक पहंुचाया जो न जाने कब से पिछड़ी जातियों का सपना थीं. उनके इस फैसले ने उत्तर भारत की राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया. उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस मुख्य लड़ाई से हमेशा के लिए बाहर हो गई. जो हालात बने उनसे पार पाने में भाजपा को भी कईं साल लग गए. 

अब इस्तीफा देने के लिए उनके पास कुछ नहीं बचा था. जल्द ही वीपी सिंह ने सक्रिय राजनीति से सन्यास भी ले लिया. कैंसर और किडनी की कईं समस्याओं ने भी इसी समय उन्हें परेशान किया. उन्होंने फिर से कविताएं लिखनी शुरू कीं और कईं बहुत अच्छी पेंटिंग भी बनाई. कुछ समय बाद थोड़ा स्वस्थ होने पर वे एक बार फिर राजनीति में सक्रिय हुए लेकिन यह सक्रियता ज्यादा नहीं चली.साभार हिंदुस्तान 


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