पंडित बिरजू महाराज नहीं रहे

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पंडित बिरजू महाराज नहीं रहे

रविशंकर उपाध्याय

 कथक नर्तक पंडित बिरजू महाराज नहीं रहे . उन्होंने कथक नृत्य को बड़ी ऊंचाई दी. कथक नृत्य कब और कैसे शुरू हुआ, इस पर तो शोध चल रहा है लेकिन कभी अभिजात्य वर्ग की पहचान मानी जाने वाली इस नृत्य शैली के बिहार से बेहद मजबूत संबंध रहे हैं. बिहार में भी कथक नृत्य का शानदार इतिहास रहा है. आज से तीन साल पहले जब मैं बिहार की परंपराओं पर अध्ययन कर रहा था तो यह जानना मेरे लिए भी दिलचस्प था कि बिहार में ईसा से 400 साल पहले कथक नृत्य की परंपरा रही है. पटना म्यूजियम में जब गया तो वहां तीसरी शताब्दी ई.पू. की मिट्टी की उन मूर्तियों को देखा जिसकी शैली कथक से हु-ब-हु मिलती है. जब मैंने प्रसिद्ध कथक नृत्यांगना पद्म श्री शोभना नारायण से बात की तो उन्होंने कहा कि रमेश्वर आर्काइव में इसके प्रमाण मौजूद हैं. 

कोलकाता विश्वविद्यालय के प्रो कमल किशोर मिश्र ने सबसे पहले इसे ढूंढा. ब्राह्मी लिपि में मौजूद यह प्रमाण कहता है कि गंगा के किनारे कथक के आध्यात्मिक नृत्य हुआ करते थे. बिहार और नृत्य के बारे में सोचकर लगता है कि ये दोनों अलग अलग पहलू हैं लेकिन ऐसा नहीं है. बिहार में जन्मीं और पली-बढ़ी शोभना ने कहा कि हमारे यहां नृत्यांगना आम्रपाली और सालवती का सोलो डांसर के रूप में जिक्र मिलता है यानी वे स्किल्ड थीं.

-कथा शब्द से आया कथक, गया में हैं कथकियों के कई गांव-

दरअसल कथक संस्कृत शब्द है जो कथा से आया है. वेदपुराण के बारे में कथा कहने वाले कथकिये कहलाए. पाठ करके कथा कहने वाले पाठक और पात्र धारण कर कथा कहने वाले धारक कहे जाते थे. आज का कथक वही धारक कथक है. अब सवाल आता है कि कथकिये कौन थे? तो यह जानिए कि कथकिये ब्राह्मण जाति से होते थे. 1891 के पहले जनगणना में यह लिखा हुआ है कि कान्यकुब्ज, सरयूपारीण और गौड़ ब्राह्मण कथक करते थे. उस वक्त 2046 कथकिये सेंसस में दर्ज हैं. बिहार में कथकियों के कई गांव हैं. गया के पास टिकारी में जागीर कथक, आमस में कथाबिगहा और टिकारी में ही कथक ग्राम मौजूद है. सभी गांव के रिकॉर्ड में कथकियों का जिक्र आता है लेकिन ये सभी गया के पास ही ईश्वरबिगहा गांव में निवास करने लगे हैं. अभी भी यहां कई घर मौजूद हैं, यहां सभी दिग्गज कलाकारों की वंशावली मौजूद है. जब शोभना इन गांवों में गयीं तो पता चला कि गांव तो मौजूद हैं लेकिन कथकिये नहीं हैं. वे ईश्वरपुर में रहते हैं. गांव का नाम बदलने का एक कारण यह हो सकता है कि कथक के बाद नृत्य में तवायफों का हस्तक्षेप बढ़ा. इस कारण इन्होंने दूसरे न्यूट्रल गांव में शरण ले ली. आजमगढ़ में भी एक ऐसा गांव हरिहरपुर है जिसकी कुछ ऐसी ही कहानी है.

मौर्य काल की मूर्तियों में कथक नृत्य के आभास

2003 से ही कथक पर शोध कर रहीं शोभना नारायण ने कहा कि हड़प्पा की सभ्यता में मूर्ति के प्रमाण मिले हैं लेकिन उसके बाद मौर्य काल में मूर्तियां मिलती हैं. पटना म्यूजियम में मौर्य काल के तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व की नृत्य करती हुई महिला की एक मिट्टी की मूर्ति रखी हुई है. इसमें चक्कर लेते हुए घाघरा जैसा वस्त्र है. यहां डमरू लेकर नृत्य करती हुई भी एक मूर्ति है जिसमें भी कथक जैसी शैली दिखती है. यक्षिणी के वस्त्र भी कुछ इसी प्रकार का आभास देते हैं. 

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