वीरेंद्र यादव
अभी अभी सीएसडीएस के निदेशक चुनाव विश्लेषक संजय कुमार ने 'इन्डिया टूडे' चैनल पर कहा कि उत्तर प्रदेश का चुनावी परिदृश्य विगत तीन दिनों में पूरी तरह बदल गया है. अब मंडलवाद बनाम कमंडलवाद मुख्य चुनावी मुद्दा है. यानि हिंदुत्व की एकता का मिथक विदीर्ण होकर तार तार हो चुका है और वर्णाश्रमी जाति संरचना की विभेदकारी फांक उजागर है. सपा और भाजपा के बीच अब कांटे की टक्कर है. उनकी सम्मति में आज की तारीख में कहा नहीं जा सकता कि चुनावी जीत किसके हाथ लगने वाली है. मायावती के जाटव वोट बैंक को निर्णायक मानते हुए उनका कहना था कि देखना है कि यह वोट बैंक किस तरफ जाता है.
संजय कुमार से सहमत होते हुए विचारणीय यह है कि चुनावपूर्व के इस परिदृश्य में मनुवाद बनाम बहुजनवाद की यह राजनीति क्या आंबेडकर-लोहिया की वैचारिकी पर वापस होगी. बहुजन समाज के लिए जमीनी हालात 'यूनिटी फ्राम बेलो' के हैं , जरुरत है कि बहुजन समाज की राजनीति करने वाले दल उन मुद्दों -समस्याओं के प्रति मुखर हों जो बहुजन समाज के दैनन्दिन जीवन से जुड़े हों. कहने की आवश्यकता नहीं कि बेरोजगारी, खेती-किसानी का अनुत्पादक होना, चिकित्सा और शिक्षा सरीखी जनसेवाओं की बदहाली आदि भारत के संघर्षशील बहुजन समाज के लिए अस्तित्व का प्रश्न है. समाजवादी पार्टी आज बहुजन समाज और जनतंत्र की पक्षधर ताकतों के समक्ष चुनावी राजनीतिक विकल्प के रुप में स्वीकृति पा रही है. जरुरत है कि समाजवादी पार्टी अपना प्रतिविमर्श बहुजन वैचारिकी के अनुकूल निर्मित करे, ना कि वर्चस्ववादी मुहावरे में रक्षात्मक मुद्रा अपनाए. विशेषकर तब जब बाजी उसके पक्ष में पलट गई सी लग रही हो. अब चुनावी रण को असली मुद्दों पर केन्द्रित किया जाना चाहिए ना कि मंदिर, मूरत और तीरथ की उन्मादी नफरती भावनाओं के इर्दगिर्द.
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