हेमवती नंदन बहुगुणा की राजनीति

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हेमवती नंदन बहुगुणा की राजनीति

हरजिंदर

उनके बारे में राजनीतिज्ञों, विश्लेषकों और पत्रकारों की राय अलग-अलग ध्रुवों पर खड़ी दिखाई देती है.  कुछ लोग मानते हैं कि वे अपने दौर के सबसे कुशाग्र राजनेता थे, जबकि दूसरी राय यह है कि हेमवती नंदन बहुगुणा अपने समकालीन लोगों में सबसे तिकड़मी थे, वे पूरी विनम्रता के साथ आगे बढ़ने और अपने विरोधी को धूल चटाने की कला जानते थे.  जबकि कुछ लोग तो उन्हें राजनीति का नटवरलाल ही कहते हैं.  

पौड़ी गढ़वाल में जन्मे बहुगुणा ने राजनीति का अपना ककहरा इलाहाबाद में उस समय सीखा जब वे वहां रह कर पढ़ाई कर रहे थे.  इसी दौरान उनका परिचय लाल बहादुर शास्त्री से हुआ और वे उनके विश्वस्त सहयोगियों में गिने जाने लगे.  भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वे भूमिगत हो गए और प्रशासन ने उन्हें पकड़ने पर पांच हजार रुपये का ईनाम घोषित कर दिया.  बाद में पकड़े गए तो चार साल तक जेल में रहे.  

लेकिन उनकी असल राजनीति शुरू हुई 1947 में भारत के आजाद होने के बाद, इलाहाबाद में.  किसी नए राजनीतिज्ञ के लिए इलाहाबाद उस समय एक कठिन जगह थी.  जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, पुरषोत्तम दास टंडन, विशंभर नाथ पांडेय और राम मनोहर लोहिया जैसे बड़े नाम इस शहर की राजनीति से जुड़े हुए थे.  इन सबके बावजूद बहुगुणा सुर्खियों में रहने की कला जानते थे.  

इसी दौर का एक किस्सा हमें मिलता है जनार्दन ठाकुर की किताब ‘आल द जनता मैन‘ में.  प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का इलाहाबाद दौरा तय हुआ.  लाल बहादुर शास्त्री ने बहुगुणा को यह जिम्मेदारी दी कि वे प्रधानमंत्री की सभा का आयोजन करें और उसके लिए भीड़ जुटाएं.  जिस दिन यह सभा थी, शहर का पुरुषोत्तम दास टंडन पार्क खचाखच भरा हुआ था.  लेकिन ऐन वक्त पर जब मंच पर बैठने वालों की सूची आई तो उसें बहुगुणा का नाम नहीं था.  शाम हो चुकी थी और नेहरू का भाषण जब शुरू हुआ तो अचानक ही बिजली चली गई.  अंधेरा छा गया उस मंच से जो भी कहा जा रहा था लोगों को सुनाई देना बंद हो गया.  आयोजन की व्यवस्था बहुगुणा के जिम्मे थी इसलिए मंच से उनका ही नाम पुकारा गया.  बहुगुणा भागते हुए मंच पर पहंुचे.  उनके मंच पर पहंुचते ही विद्युत आपूर्ति फिर से शुरू हो गई और मंच के पास सबसे आगे बैठी हुई भीड़ ने नारा लगाया- हेमवती नंदन बहुगुणा, जिंदाबाद. 

बहुगुणा का शुरुआती ग्राफ धीरे-धीरे बढ़ा.  वे विधायक बने.  फिर उत्तर प्रदेश के सीबी गुप्ता मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री रहे.  बाद में सांसद बन कर जब दिल्ली पहंुचे तो वहां भी उन्हें राज्यमंत्री का पद मिला.  इस दौरान वे जगजीवन राम के नजदीक आए.  जगजीवन राम जब कांग्रेस अध्यक्ष बने तो उन्हें पार्टी का महासचिव बनाया गया.  कहा जाता है कि हमेशा उर्जा से भरे बहुगुणा की सक्रियता ने इंदिरा गांधी को भी सशंकित कर दिया था.  

उत्तर प्रदेश उस समय संकट के दौर से गुजर रहा था.  वहां कमलापति त्रिपाठी मुख्यमंत्री थे और उसी दौरान लखनउ में प्रदेश के अर्धसैनिक बल प्रोवेंश्यिल आॅम्र्ड कांस्टेबलरी यान पीएसी ने विद्रोह कर दिया.  आजाद भारत में यह अपने तरह का पहला मामला था.  इसे लेकर प्रदेश सरकार की काफी छीछालेदर हो रही थी और कमलापति त्रिपाठी पर इस्तीफे का दबाव बन रहा था.  समस्या यह भी थी कि विधानसभा चुनाव कुछ ही महीने दूर थे, और यह लगने लगा था कि अगर हालात यही रहे तो कांग्रेस इस बार हार भी सकती है.  

ऐसे में इंदिरा गांधी ने उनका इस्तीफा लेकर पहले राष्टपति शासन लगाया और फिर बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाकर लखनउ भेजा.  कमलापति त्रिपाठी यह मान कर चल रहे थे कि बहुगुणा एक तात्कालिक व्यवस्था भर हैं उनका इस्तेमाल सिर्फ चुनाव तक होगा और उसके बाद वे फिर से प्रदेश के मुख्यमंत्री बनेंगे.  उधर बहुगुणा को अपनी क्षमताओं का लोहा मनवाने का पहला बड़ा मौका मिला था जिसे वे खोना नहीं चाहते थे.  

लखनउ पहंुचते ही बहुगुणा ने चुनाव की रणनीति बनानी शुरू कर दी.  उन्हें लगा कि अगर चुनाव के बाद त्रिशंकु विधानसभा बनती है तो सबसे ज्यादा खतरा सीबी गुप्ता से हो सकता है.  उस समय तक कांग्रेस में विभाजन हो चुका था और सीबी गुप्ता इंदिरा गांधी वाली कांग्रेस छोड़कर संगठन कांग्रेस में शामिल हो चुके थे.  बहुगुणा ने सीबी गुप्ता को निपटाने का तरीका खोजना शुरू कर दिया.  

सीबी गुप्ता को लखनउ पूर्व की सीट से चुनाव लड़ना था.  इसी सीट के तहत एक मुहल्ला है- पान दरीबा.  इसी पानदरीबा में सीबी गुप्ता की कोठी थी.  वे जब मुख्यमंत्री थे तो सरकारी निवास में रहने के बजाए यहीं रहना पसंद करते थे.  यानी एक तरह से गुप्ता अपने घर से ही चुनाव लड़ रहे थे.  पानदरीबा से ही जुड़ा हुआ एक मोहल्ला है मवैइया.  यहां के एक लोकप्रिय चिकित्सक थे डाॅक्टर चरण सिंह.  डाॅक्टर चरण सिंह की राजनीतिक पहचान कोई बहुत ज्यादा नहीं थी, उनकी ख्याति बस इतनी ही थी कि मवैइया चैराहे पर बने अपने क्लिनिक में वे अक्सर गरीबों का मुफ्त इलाज किया करते थे.  बहुगुणा ने डाक्टर चरण सिंह को ही कांग्रेस का उम्मीदवार बनाया.  

चुनाव के नतीजे जब आए तो सीबी गुप्ता सिर्फ चुनाव हारे ही नहीं बल्कि उनकी जमानत तक जब्त हो गई.  इस हार ने सीबी गुप्ता का पूरा राजनीतिक कैरियर लगभग खत्म कर दिया.  यह नतीजे ज्यादातर राजनीतिक पर्यवेक्षकों के लिए अकल्पनीय थे.  

इस नतीजे को लेकर बाद के दिनों में राजनीतिक गलियारों में एक और चर्चा चलती रही.  जब जनता पार्टी बनी तो ऐसा मौका आया जब बहुगुणा और सीबी गुप्ता एक ही दल में थे.  कहा जाता है कि तभी एक मुलाकात के दौरान गुप्ता ने बहुगुणा से पूछा कि उन्हें हरवाया कैसे गया? बहुगुणा का जवाब था कि आपके लोग उन कमरों के दरवाजों पर पहरा देते रहे जहां मतपेटियां पड़ीं थी, लेकिन कमरों में सिर्फ दरवाजे ही नहीं होते, रोशनदान भी होते हैं.  यह बात कितनी सही है या कितनी गलत यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन यह बताती है कि बहुगुणा की राजनीति को लेकर कैसी धारणाएं थीं.  

लखनउ पूर्व की सीट तो एक उदाहरण है.  बहुगुणा ने अपने कौशल से कांग्रेस को बहुमत दिला दिया था.  यह भी कहा जाता है कि कुछ सीटों पर उन्होंने कांग्रेस के उन उम्मीदवारों को हराने का काम भी किया जो विरोधी गुट के थे.  

चुनाव के बाद कमलापति त्रिपाठी ने फिर से मुख्यमंत्री बनने की कोशिश की लेकिन इंदिरा गांधी के लिए बहुगुणा को तुरंत दरकिनार कर पाना आसान नहीं था.  इसलिए उन्हीं को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला हुआ, एक ऐसा फैसला जिसे लेकर इंदिरा गांधी को बाद में कईं बार पछताना पड़ा.  इस जीत ने बहुगुणा का आत्मविश्वास बढ़ा दिया था और वे केंद्रीय नेतृत्व को खुली चुनौती देने के मूड में आ गए थे. 

इसी साल उत्तर प्रदेश में राज्यसभा की कुछ सीटों के लिए चुनाव होने थे.  पार्टी के अधिकृत उम्मीदवारों के अलावा कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने एक और शख्स को भेजा जिसे स्वतंत्र उम्मीदवार की तरह चुनाव लड़वाकर जिताना था.  इस चुनाव के लिए इंदिरा गांधी के निजी सहयोगी रहे यशपाल कपूर को खासतौर पर लखनउ भेजा गया था.  वे वहां पहंुचे और मुख्यमंत्री निवास के ही एक कमरे में टिक गए.  मुख्यमंत्री निवास में जब वे उस उम्मीदवार को जिताने की रणनीति बना रहे थे तो उसी से कुछ दूर एक दूसरे कमरे में खुद मुख्यमंत्री उसे हराने का तरीका खोज रहे थे. 

बाद में बहुगुणा ने उस उस सीट के लिए कल्पनाथ राय को चुनाव में न सिर्फ उतार दिया बल्कि जितवा भी दिया.  यह बात अलग है कि दिल्ली पहंुच कर कल्पनाथ राय इंदिरा गांधी के सबसे वफादार लोगों की टोली में शामिल हो गए.  लेकिन बहुगुणा ने कांग्रेस नेतृत्व के खिलाफ खुली बगावत कर दी थी.  

इन्हीं दिनों एक और घटना हुई.  उस दौर के मशहूर अखबार ब्लिट्ज़ के संपादक आरके करंजिया लखनउ आए और उन्होंने बहुगुणा का एक लंबा इंटरव्यू किया.  वे बहुगुणा की वाकपटुता और तमाम विषयों की अच्छी जानकारी से काफी प्रभावित हुए.  वापस जाकर उन्होंने जो इंटरव्यू प्रकाशित किया उसमें हेमवती नंदन बहुगुणा को देशा का भावी प्रधानमंत्री कहा गया.  कहा जाता है कि इसे लेकर इंदिरा गांधी खासी नाराज हुईं.  तब तक संजय गांधी भी देश की राजनीति में सक्रिय हो चुके थे और उन्होंने भी फोन करके बहुगुणा काफी खरी-खोटी सुनाई.  

यह वह दौर था जब भारत काफी उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था.  बिहार और गुजरात में छात्र आंदोलन शुरू हो चुका था.  इस आंदोलन का नेतृत्व जयप्रकाश नारायण के हाथ आ जाने के बाद लगने लगा था कि यह पूरे देश में फैल जाएगा.  इसी बीच यह खबर आई कि जयप्रकाश उत्तर प्रदेश आ रहे हैं.  विपक्ष को उम्मीद थी कि इसके बाद यहां भी आंदोलन जोर पकड़ लेगा.  हालात प्रदेश में भी बाकी देश जैसे ही थे.  लोग लगातार बढ़ रही महंगाई से त्रस्त थे.  उन दिनों एक नारा चलता था- जबसे आए बहुगुणा, दाम बढ़ गए सौ गुणा. 

ठीक इसी मौके पर बहुगुणा ने बाजी पलटने की अपनी महारत को एक बार फिर दिखाया.  जयप्रकाश नारायण जब लखनउ पहंुचे तो बहुगुणा ने उन्हें राजकीय अतिथि घोषित कर दिया.  जगह-जगह उनका स्वागत किया गया.  बहुगुणा ने अपने आवास पर उनके साथ लंबी बातचीत की.  इस बातचीत के बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश सरकार के खिलाफ प्रदर्शन का फैसला टाल दिया.  

उधर दिल्ली में इंदिरा गांधी को लगा कि पानी अब सर पर से गुजर चुका है.  बहुगुणा को तुरंत ही हटाया गया और उनकी जगह नारायण दत्त तिवारी को प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया गया. 

हेमवती नंदन बहुगुणा और नारायण दत्त तिवारी ने लगभग एक ही दौर में इलाहाबाद से अपनी राजनीति शुरू की थी.  बहुगुणा तिवारी को लक्ष्मण कहते थे, यानी वे खुद राम और तिवारी लक्ष्मण.  कांग्रेस ने सत्ता राम से लेकर लक्ष्मण को सौंप दी थी. 

इसी बीच इलाबाद उच्च न्यायालय का वह ऐतिहासिक फैसला आया जिसमें अदालत ने पद के आरोप को सही पाया और इंदिरा गांधी के रायबरेली संसदीय सीट से निर्वाचन को रद्द कर दिया.  इसके बाद देश में आपातकाल लागू होने की घोषणा कर दी गई, राजनीति अब एक नए मोड़ पर पहंुच गई थी.  आपातकाल के दौरान कईं कांग्रेसी यह आरोप लगाते थे कि यह फैसला  बहुगुणा की न्यायमूर्ति जगमोहन सिन्हा से मिलीभगत के कारण हुआ था.  

आपातकाल के अंतिम दौर में जब पाबंदियों में थोड़ी ढील दी गई और आमचुनाव की घोषणा हुई तो जगजीवन राम और बहुगुणा कांग्रेस से अलग हो गए और कांग्रेस फाॅर डेमोक्रेसी नाम का नया दल बनाया.  जिसने जनता पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और बाद में जब मोरारजी देसाई के नेतृत्व में सरकार बनी तो इस दल का जनता पार्टी में विलय कर दिया गया.  बहुगुणा  लखनउ से चुनाव जीता और उस सरकार में पेट्रोलियम, रसायन व उर्वरक मंत्री बने.  

यह सरकार शुरू से ही पार्टी के आपसी झगड़ों में उलझी रही.  दोहरी सदस्यता के सवाल पर जब जनता पार्टी टूटी तो मोरारजी सरकार भी गिर गई.  अगली सरकार चैधरी चरण सिंह के नेतृत्व में बनी जिसमें बहुगुणा वित्तमंत्री बनाए गए.  इस सरकार की उम्र कुछ सप्ताह की ही थी, सरकार के गिरते ही बहुगुणा इस्तीफा देकर वापस कांग्रेस में पहंुच गए.  

लोकसभा का अगला चुनाव उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर गढ़वाल से लड़ा और वे इसमें जीते भी.  बहुगुणा का रिश्ता कांग्रेस से जुड़ जरूर गया था लेकिन इसे जुड़ाव में एक गांठ थी.  कांग्रेस भी उनकी चालों को लेकर काफी सचेत थी और इसी कारण उन्हें सरकार से दूर रखा गया था.  यह अफसाना जब आगे बढ़ता नहीं दिखा तो दो साल के भीतर ही उन्होंने न सिर्फ कांग्रेस से बल्कि संसद की सदस्यता से भी इस्तीफा दे दिया.  इसके बाद हुए उपचुनाव में उन्होंने फिर वहीं से पर्चा दाखिल किया.  इस बार हर संभव कोशिश के बाद इंदिरा गांधी उनकी जीत को नहीं रोक सकीं. 

बहुगुणा जीत तो गए लेकिन अब तक उनकी राजनीति अपना लक्ष्य खो चुकी थी.  एक दौर में जिस राजनीतिज्ञ में लोग बहुत सारी संभावनाएं देखते थे वह मात्र एक दलबदलू नेता बन कर रह गया था.  कांग्रेस को भी इंतजार था आखिरी शिकस्त देने का.  जल्द ही यह मौका भी आ गया.  

अगली बार 1984 के आम चुनाव में उन्होंने जब इलाहाबाद की संसदीय सीट से पर्चा भरा तो उनके सामने खड़े थे फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन कांग्रेस के टिकट पर.  तमाम जोड़-तोड़ के बावजूद वे फिल्मों के सुपर स्टार से पार नहीं पा सके और एक लाख सतासी हजार वोटों से हार गए.  यह हार उनके बहुत लंबे राजनीति कैरियर का अंतिम अध्याय थी. साभार हिंदुस्तान 


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