अंबरीश कुमार
समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव की आज की राजनीति को समझने के लिए करीब एक दशक पीछे जाना होगा तब उसे ठीक से समझ सकेंगे . फिरोजाबाद के लोकसभा सीट के उप चुनाव में अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव चुनाव लड़ रही थी . वर्ष 2009 की बात है . उनके खिलाफ लड़ रहे थे समाजवादी पार्टी के बागी नेता और फिल्म अभिनेता राजबब्बर . यह अंचल यादव परिवार का गढ़ रहा था इसलिए सब बेफिक्र भी थे . पार्टी में तब अमर सिंह की ही चलती थी और राजबब्बर भी उन्ही के चलते समाजवादी पार्टी से अलग हुए थे . इस चुनाव में डिंपल यादव चुनाव हार गईं . यह बड़ा झटका था सैफई परिवार के लिए और राजनीति का ककहरा सीखते अखिलेश यादव के लिए भी . अगर डिंपल यादव चुनाव न हारती तो अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में उस तरह न जुटते जैसे वे तब राजनीति में जुट गए थे . वर्ष 2012 में समाजवादी पार्टी का चुनाव प्रचार अभियान अखिलेश यादव के कंधे पर ही था भले लोग मुलायम सिंह और शिवपाल यादव को उसका श्रेय दें . मायावती सरकार के खिलाफ अखिलेश ने यह अभियान बुंदेलखंड से शुरू हुआ और उन्होंने यादव परिवार की राजनीति के मुहावरे ओ बदलना शुरू किया . तबतक यह मुलायम सिंह और शिवपाल सिंह की वह समाजवादी पार्टी थी जिसमें अहिरों का बोलबाला था . यह लाठी वाली पार्टी भी मानी जाती थी . इसी लाठी वाली पार्टी के नए नेता अखिलेश यादव ने तब छात्र नौजवानों को लैपटाप देने का ऐलान कर सभी चौंका दिया . उनकी टीम में भी नौजवान नेताओं का जमावड़ा उभरा . पार्टी के फैसलों में भी अखिलेश यादव का दखल शुरू हुआ और परिवार का टकराव भी . जिसका अंत 2017 में मंच पर शिवपाल यादव के साथ हाथापाई के साथ हुआ . पार्टी पर अखिलेश यादव ने कब्जा कर लिया पर इस विवाद के चलते यादवों का बिखराव भी हुआ .
दूसरी तरफ चौदह में मोदी के उदय के साथ ही उत्तर प्रदेश में हिंदुत्व का ओ नया उभार आया उसमें भाजपा ने पिछड़ी जातियों को बहुत कुशलता से जोड़ कर 2017 के विधान सभा चुनाव की रणनीति बनाई और चेहरा थे केशव प्रसाद मौर्य . एक तरफ की रोटी 2014 में पलटी जा चुकी थी पिछड़ों की इस राजनीति ने समाजवादी पार्टी को किनारे लगाते हुए भाजपा को बड़े बहुमत के साथ भाजपा को उत्तर प्रदेश की सत्ता सौंप दी . उत्तर प्रदेश की राजनीति पर पकने वाली यह रोटी अब दोनों तरफ से पलटी जा चुकी है . और अब यह उतारी जा रही है . साथ में सत्ता विरोधी रुझान को धार देने वाले कई और मुद्दे भी जुड़ गए हैं . जिसमें कोरोना की बदइंतजामी ,महंगाई ,पिछड़ी जातियों का बिगड़ता समीकरण ,दलितों पर बढ़त जुल्म और ब्राह्मणों की नाराजगी जैसे मुद्दे तो हैं ही . इसमें जिस मुद्दे ने सबसे ज्यादा असर डाला है वह है किसान आंदोलन . इस आंदोलन ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मजहबी गोलबंदी कर भाजपा की जीत का रास्ता बहुत कठिन बना दिया है . अब न अब्बाजान चल रहा है न जिन्ना या पाकिस्तान . और इस अंचल में अखिलेश यादव ने लोकदल के साथ गठजोड़ कर राजनीतिक पहल अपने हाथ में ले ली है .
दरअसल इस चुनाव में समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव जो भी राजनीतिक दांव पेंच चल रहे है वे उन्होंने भाजपा से ही सीख है . वर्ष 2017 के विधान सभा चुनाव में सत्ता से बेदखल हुए अखिलेश यादव ने पहले परिवार का झगड़ा निपटाया . इस चुनाव में अखिलेश की हार को दो मुख्य वजह थी . एक परिवार का झगड़ा जिससे यादव बिरादरी का वोट बिखर गया और दूसरा मुस्लिम ,यादव के अलावा कोई बड़ा जातीय आधार वे नहीं बना सके जो काम मुलायम सिंह कर लेते थे .
अब वे समाजवादी पार्टी का सामाजिक आधार बढ़ा रहे हैं . राजनीतिक टीकाकार राजेश यादव ने लिखा है , मल्लाह जाति के राजपाल कश्यप को पूरे प्रदेश में पिछड़ा वर्ग सम्मेलन करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है. वो भी पूरा सूबा नाप चुके हैं. उनके अलावा विशम्भर निषाद और काजल निषाद अपनी तरफ से निषाद समाज को सपा से जोड़ रहे हैं. प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम पटेल जी भी लगातार यूपी का दौरा कर रहे हैं. उनके अलावा कुर्मी समाज के राम प्रसाद चौधरी और लालजी वर्मा भी सक्रिय हैं. अब तो अपना दल के संस्थापक सोनेलाल पटेल की पत्नी कृष्णा पटेल और उनकी पुत्री पल्लवी पटेल भी सपा के साथ हैं. इंद्रजीत सरोज पासी समाज, व्यास जी गोंड जनजाति समाज,डॉक्टर रामकरण निर्मल जाटव समाज और प्रवीण सोनकर खटिक समाज से सम्पर्क बढ़ा रहे हैं. आरएस कुशवाहा, महान दल के केशव देव मौर्या,राजेश कुशवाहा और उमाशंकर सैनी जैसे नेता पूरब से पश्चिम तक कोइरी समाज को जोड़ रहे हैं. बीते गुरुवार को अखिलेश यादव जनवादी पार्टी की रैली में संजय चौहान के साथ बीजेपी पर हमलावर थे. तो कल संविधान दिवस के अवसर पर बाबा साहेब अंबेडकर के प्रपौत्र के बगलगीर थे. सनद रहे कि अति पिछड़ा वर्ग के लोनिया चौहान पूर्वांचल की राजनीति में अपना ठीक ठाक दखल रखते हैं.
दरअसल पिछड़ी और हाशिये की जातियों को साध कर अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी का जनाधार मजबूत कर रहें हैं . यही काम भाजपा ने पिछले विधान सभा चुनाव में किया था पर तब एक पिछड़े नेता को सामने कर यह किया गया था . इस बार भाजपा ने मुख्यमंत्री पद के लिए अगड़े नेता का चेहरा सामने किया है . जबकि समाजवादी पार्टी गठबंधन का चेहरा अखिलेश यादव हैं जो पिछड़ी जाति का भी चेहरा हैं और नई राजनीति का भी . उन्होंने यह सब सीखा तो दो चुनाव की हार से ही है .
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