डा रवि यादव
नोट बंदी , सीएए और 370 जैसे विवादास्पद निर्णय लेकर सख़्त प्रधानमंत्री की छवि गढ़ने वाले प्रधानमंत्री को आख़िरकार तीन विवादित कृषि क़ानून वापस लेने की घोषणा करने के लिए मजबूर होना पढ़ा . पिछले एक साल से सरकार और समर्थक तीनो क़ानूनों को किसानों और देश की अर्थव्यवस्था के लिए हितकारी बताते रहे और आंदोलनकारी किसानों को आढ़तिया , नक्सली , खलिस्तानी , शराबी , आंदोलनजीवी सहित क्या क्या नहीं कहा . समर्थकों द्वारा मुट्ठीभर लोगों का फिर सिखों का फिर जाटों का आंदोलन कहा गया . आंदोलन का सर्वाधिक दुखद पहलू रहा कि समर्थकों द्वारा अपनी विभाजनकारी मानसिकता के अनुरूप पूरे आंदोलन में एक क़ौम के तौर पर असंधिग्ध देश भक्त सिखों को अलगथलग करने का और बदनाम करने का कुत्सित प्रयास भी किया गया . समर्थक मीडिया द्वारा भी किसानों को बदनाम करने में कोई कोर कसर बाक़ी न छोड़ी गई . हर नेता पार्टी प्रवक्ता यही दावा करता रहा कि क़ानून किसानों के हित में है अतः क़ानून वापस तो नहीं होंगे अन्य मुद्दों पर बात हो सकती है .
वापस लेने के कारण
तमाम प्रयासों के बाद भी आंदोलन क्षेत्रीय से राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण करता गया . विपक्ष और आमजन के सहयोग से किसान आंदोलन गाँव गाँव और गली गली पहुँचने में कामयाब रहा तो मणिपुर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक , पूर्व केंद्रीय मंत्री चौधरी वीरेंद्र सिंह , सांसद वरुण गांधी जैसे संवेदनशील और समझदार भाजपा के कुछ नेता खुलकर तो कुछ दबीं ज़ुबान किसान आंदोलन के समर्थन में आ चुके है . दुष्यंत चौटाला जैसे सहयोगियों को क्षेत्र में विरोध का सामना करना पढ़ा तो उनका भी दबाव पढ़ने लगा
पाँच राज्यों मणिपुर ,गोवा ,उत्तराखंड ,पंजाब और उत्तरप्रदेश में अगले तीन चार माह में चुनाव है . किसान आंदोलन से भाजपा के विरोध में आए लोगों को महँगाई ,खाद की कमी , एमएसपी पर फ़सल न बेच पाने की मजबूरी ने मज़बूत विरोधी बना दिया और करोना में अव्यवस्था के शिकार हुए लोगों और बेरोज़गारों का साथ मिलना शुरू हो गया .
पंजाब , उत्तराखंड के तराई क्षेत्र और उत्तर प्रदेश चुनाव में किसान आंदोलन का गहरा प्रभाव सुनिश्चित है . जिसमें पंजाब में भाजपा के पास खोने के लिए बहुत कुछ नहीं है किंतु पश्चिमी उत्तरप्रदेश जहाँ पिछले तीन चुनाव में भाजपा क्लीन स्वीप करती रही है , क्षेत्र में मज़बूत पकड़ रखने वाले चौधरी अजीत सिंह और उनके पुत्र जयंत ख़ुद भी चुनाव नहीं जीत सके . वहाँ पंचायत चुनाव में नमूना देख चुकी भाजपा को सपा -रालोद गठबंधन और अखिलेश यादव की विजयरथ यात्रा में स्वस्फूर्त जुट रही भीड़ से चुनाव में हार स्पष्ट दिखाई देने लगी है . लखीमपुर की जघन्य घटना और उसके बाद में गृहराज्य मंत्री अजय मिश्रा टेनी को पद पर बनाए रखने की अहंकारपूर्ण ज़िद ने उत्तरप्रदेश में किसान के अलावा भी हर संवेदनशील और लोकतंत्र प्रेमी को भाजपा के बारे में सोचने पर मजबूर किया है . हर वक़्त चुनाव मोड़ में रहनेवाली भाजपा ज़मीनी हक़ीक़त से डरी हुई है . गृहमंत्री अमित शाह अपने यूपी दौरे पर कह चुके है कि यदि 2024 में नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री बनाना है तो 2022 में योगी सरकार को पुनः जिताना होगा .
यद्यपि तीनो किसान बिल वापस लेने का फ़ैसला सुनिस्चित हार को टालने के लिए लिया गया है मगर अपने बड़बोलेपन और उलटवासियों के चलते विश्वसनीयता कम कर चुके मोदी जी के वायदे पर किसानो को भरोसा नहीं . 2014 के चुनाव में स्वामीनाथन आयोग की अनुशंसाओ को लागू कर लागत का ढेड गुना मूल्य देने और फिर किसानों की आय 2022 तक दो गुना करने के वादे पर भरोसा कर किसानों ने भाजपा को दिल खोल समर्थन दिया था मगर अब कृषि उपकरणो पर जीएसटी , खाद , डीज़ल बिजली सहित सभी कृषि आगतों की मूल्य बढ़ोत्तरी और एमएसपी न मिलने से बेहाल किसान को तीन कृषि / किसान विरोधी बिल लाने के बाद कुछ उस हालत में पहुँचा दिया है -
तेरे वादे पे कोई कब तक फ़रेब खाए
कर कोई वादा ऐसा कि दिल टूट जाए
अतः किसान संगठनों ने संसद द्वारा बिल रद्द किए जाने तक आंदोलन जारी रखने का ऐलान कर दिया है . भाजपा को अधिक दूर न जाकर सिर्फ़ लोकपाल आंदोलन का संज्ञान ले लेना चाहिए जब कांग्रेस ने चुनाव में जाने से पहले लोकपाल बिल पास करा दिया था मगर उसे चुनाव में बेहद ख़राब हार का सामना करना पढ़ा . किसान बिलों की वापसी का निर्णय भी तब लिया गया है जब बहुत देर हो चुकी है .
यू तो मजबूरी का नाम महात्मा गांधी प्रचलन में है मगर कृषि क़ानून वापसी में मजबूरी का नाम महात्मा गांधी नहीं , मजबूरी का कारण महात्मा गांधी है क्योंक किसानो ने सत्याग्रह और अहिंसा के माध्यम से सत्ता प्रतिष्ठान को झुकने पर मजबूर कर दिया है . किसानों के इस आंदोलन ने गांधी के सिद्धांतों की प्रासंगिकता को एक वार पुनः प्रमाणित किया है .
सरकार एमएसपी की क़ानूनी गारंटी देती है तो न केवल यह आंदोलन समाप्त हो जाएगा बल्कि यह निर्णय साठ प्रतिशत जनता की माँग शक्ति बढ़ाकर देश की जीडीपी ग्रोथ को दो अंको में बड़ाने में मददगार हो सकता है जिसके माध्यम से निवेश रोज़गार और समृद्धि सुनिश्चित की जा सकती है.
यू तो आंदोलन अभी जारी है मगर शीघ्रतम समाधान की स्थिति में भी यह आंदोलन सिर्फ़ किसान बिलों और किसान हितो के लिए नहीं बल्कि भारतीय संस्कृतिव , भाई चारा , साझी विरासत , लोकतंत्र की पुनर्वहाली में योगदान के लिए भी याद किया जाएगा . अन्नदाता के त्याग , धैर्य और समर्पण को प्रणाम . .
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