जाना फुटबॉल के हकीम का

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जाना फुटबॉल के हकीम का

फ़ज़ल इमाम मल्लिक 
सैयद शाहिद हकीम के इंतकाल के साथ ही भारतीय फुटबॉल के स्वर्णिम युग के एक और सितारे का अंत हो गया. भारतीय फुटबॉल का इतिहास लिखा जाएगा तो महानतम कोच और फुटबॉल को शिखर पर पहुंचाने वाले कोच रहीम साहब का नाम सबसे ऊपर रहेगा. सैयद शाहिद हकीम उन्हीं रहीम साहब के बेटे थे, जिनकी देखरेख में भारतीय फुटबॉल को नई दिशा मिली. अब शाहिद हकीम भी नहीं रहे. शाहिद हकीम से मेरी पहली मुलाकात कोलकाता में हुई थी. वे साई के पूर्व क्षेत्र के निदेशक बन कर आए. तब मैं कोलकाता जनसत्ता में खेल पत्रकारिता से जुड़ा था. वे साई के निदेशक बन कर आए तो फिर एक अलग तरह का रिश्ता उनसे बना. न जाने कितनी मुलाकातें और हर मुलाकात में फुटबॉल और रहीम साहब की बातें. शाहिद हकीम ने ओलंपिक में भारत की नुमाइंदगी की थी. वे भी अपने पिता की तरह कोचिंग से जुड़े. मोहम्मडन स्पोर्टिंग सहित कई क्लबों की कोचिंग की. भारतीय टीम से भी उनका जुड़ाव रहा और सेना से भी. ओलंपियन होने की वजह से शाहिद हकीम वायुसेना में बड़े अधिकारी के पद पर रहे और वहां भी फुटबाल की बारीकियों को सैनिकों को सिखाया-पढ़ाया. तब सेना में भी फुटबॉल को लेकर जनून था और डूरंड व सुब्रत कप जैसे टूर्नामेंटों का आयोजन सेना और वायुसेना की देखरेख में होता था. सेना और वायुसेना की अपनी टीमें भी हुआ करतीं थी. सैनिक होने की वजह से अनुशासन उन्हें प्रिय था लेकिन यह अनुशासन बहुतों को रास नहीं आया. साई में भी उनके अनुशासन को पसंद नहीं किया गया और क्लबों में भी उनके रवैये का विरोध हुआ. उनके फुटबॉल की जानकारी, तकनीक और जनून को लेकर विरोध नहीं हुआ लेकिन वे चाहते थे कि खेलों में अनुशासन भी बना रहे और खिलाड़ियों को अधिकारियों से ज्यादा तवज्जो दिया जाए. साई में इसकी वजह से उनके खिलाफ मुहिम चलाई गई थी. इससे आहत होकर उन्होंने साई छोड़ा और फिर कई क्लबों से जुड़ कर युवाओं को फुटबॉल का गुर सिखाने लगे. हकीम साहब फुटबॉल के गिरते स्तर पर भी चिंतित रहते थे और फेडरेशन के कामकाज के तरीकों को लेकर. वे हैदराबाद से थे तो हैदराबाद उनकी रगों में दौड़ता था हालांकि वे हैदराबाद में कम रहे. देश के प्रतिष्ठित टूर्नामेंट रोवर्स कप, डीसीएम, सैत नागजी टूर्नामेंट, बरदोलई ट्राफी, कलिंगा कप, श्रीकृष्ण गोल्ड कप, फेडरेशन कप, संतोष ट्राफी पर फेडरेशन की गाज गिरी और वे बंद हो गए. इनके बंद होने की पीड़ा उन्हें बहुत थी. अक्सर वे इसका इजहार किया करते थे क्योंकि उनका मानना था कि इन टूर्नामेंटों से नई प्रतिभाएं सामने आती हैं. फिर मैदानों के सिमटन से भी वे बेतरह दुखी थी. न हैदराबाद और न ही दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में मैदान उपलब्ध हैं जहां फुटबॉल हो और धमाचौकड़ी भी. हकीम साहेब मानते थे कि इस वजह से भी फुटबाल कल्चर धीरे-धीरे खत्म हुआ, फेडरेशन ने तो फुटबॉल को मारा ही. 

दिलचस्प यह है कि जब देश में खिलाड़ियों की पहचन जातियों से की जाने लगी है, हकीम साहेब रिश्तों पर बेतरह यकीन रखते थे. वे भाईचारा और हिंदू-मुसलिम एकता का प्रतीक थे. वे हमेशा इस बात के कायल रहे कि खेल हमें एकजुट करते हैं. खेलों में जाति और मजहब जैसे शब्द नहीं आने चाहिए. इसलिए उनके जाने से भारतीय फुटबॉल का तो नुकसान हुआ ही है, इंसानी रिश्तों की पाकीजगी की कद्र करने वाला इंसान भी हमारे बीच नहीं रहा है. यह दोहरा नुकसान है. 
भारत की फुटबाल में आज जो कुछ भी देख रहे हैं तो इसका बड़ा श्रेय हकीम साहेब के पिता रहीम साहेब को जाता है. 1951 और 1962 के एशियाई खेलों में भारत को स्वर्णिम कामयाबी दिलाने वाले कोच रहीम साहेब ही थे. 

भारत चार बार ओलंपिक खेलों में हिस्सा ले पाया क्योंकि तब हमारे पास कोई विदेशी कोच नहीं, बल्कि हमारे पास रहीम जैसे महान कोच थे. पिता के जाने के बाद हकीम ने विरासत में मिले फुटबाल ज्ञान से नई नस्लों को बहुत कुछ सिखाया. हालांकि भारतीय फुटबॉल अपनी चमक कहीं बहुत पीछे छोड़ आया था लेकिन हकीम उस चमक को लौटाने की तलाश में लगातार लगे रहे. 

भारतीय वायुसेना से रिटायर होने के बाद भारतीय खेल प्राधिकरण में चीफ कोच का दायित्व निभाया, राष्ट्रीय कोच बने और देश के कई बड़े क्लबों के कोच रहे. फीफा के क्लास वन रेफरी की जिम्मेदारी भी निभाई. हालांकि जो शोहरत, नाम और कामयाबी उनके पिता रहीम साहेब को मिली थी, वह उन्हें नहीं मिल पाई. क्योंकि बाद में भारतीय फुटबाल गंदी सियासत का शिकार हुआ और आज तक उससे उबर नहीं पाया है. अब तो भारतीय फुटबॉल भी कारपोरेट घरानों तक सिमट कर रह गई है. 

राष्ट्रीय टीम के कोच का दायित्व निभाने में उन्हें कई परेशानियों और चुनौतियों का सामना करना पड़ा. लेकिन उनके पास फुटबॉल ज्ञान की कमी नहीं थी. हर कमजोरी का इलाज था लेकिन भारतीय फुटबाल में वन-टू का फोर करने वालों ने हकीम साहेब की कद्र नहीं की. उन्हें लगा कि यह आदमी अगर टिक गया तो फिर उन्हें लूटने का मौका नहीं मिलेगा. नतीजा यह निकला कि उनके खिलाफ साजिशें हुईं और उसकी लपेटे में वे आ गए. हालांकि वे हकीम थे. फुटबॉल की बीमारी की नब्ज को पहचानने में उन्हें महारत थी और उनके पास इलाज भी था लेकिन सियासी साजिशों ने भारतीय फुटबाल को इस कद्र बीमार बना डाला है कि इसका इलाज किसी भी हकीम के पास नहीं है. 

हकीम न सिर्फ अपने पिता की तरह अव्वल दर्जे के कोच रहे, एक बेहतरीन खिलाड़ी और नेक इंसान भी थे. बातचीत में वे अक्सर कहा करते थे कि पता नहीं क्यों भारत में हिंदू और मुसलमानों को एक साथ चैन से नहीं रहने दिया जाता. वे जितने नाराज फुटबाल फेडरेशन और साई से थे, उससे भी कहीं ज्यादा नाराज उन हिंदुओं और मुसलमानों से थे जो तोड़ने की बात करते थे. दिलचस्प यह है कि उनके ज्यादातर मित्र, शागिर्द और प्रशंसक हिंदू थे. दोस्तों और शिष्यों को होली दीवाली पर शुभकामना भेजना कभी नहीं भूलते थे. दिल्ली और दिल्ली का फुटबाल उनका दूसरा घर रही. हैदराबाद और कोलकत्ता की बजाय दिल्ली के नए पुराने खिलाड़ियों के साथ समय बिताना उन्हें ज्यादा पसंद था. उन्हें द्रोणाचार्य पुरस्कार सहित कई पुरस्कार मिले. लेकिन अपनी सहजता और सरलता को कभी नहीं छोड़ा. नई पीढ़ी में बहुत कम ही लोग फुटबॉल के इस हकीम को जानते होंगे लेकिन सच यह है कि अपने कलात्मक खेल से उन्होंन भारतीय फुटबॉल को ऊंचाई दी. मैदान एक तरह से उनका ओढ़ना-बिछौना रहा. उनके जाने से फुटबॉल के एक चमकदार अध्याय का अंत भी हो गया. 

 

 

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