चंचल
ग्लोब का अकेला विज्ञान है जो काल की गणना करता है , इसे कालांतर में ज्योतिष कहा गया , या ज्योतिष के काम आया . यह गणना तीन ग्रहों से चलती है , सूर्य , चन्द् और सौर . दिलचस्प हवाला यह है कि यह खेल न ही गुप्त है, और न ही पाखंडी . सूर्य का घटना बढ़ना मामूली इंसान न केवल देखता है या जानता है बल्कि उसी की दिशा और बढ़त व घटक से अपनी दैनिन्दनी तय करता है . मसलन कब सूर्य 'बड़ा' होगा , कब छोटा ? इसे वह दिन की छाया से मापता है. सूर्य के दक्षिणायन और उत्तरायण का भाव यही है . चंद्रमा बड़ा होता है , आहिस्ता आहिस्ता , बड़ा होता जाएगा और पूर्णमासी को पूर्ण होकर , घटना शुरू करता है . इसका साक्षी बनता है सौर . आकाश और पृथ्वी की चक्रगति . आज नव संवत्सर है . नए साल का पहला दिन . समूचा देश इसे मनाता है , अपने मनोभाव को, अपनी भाषा अपनी जिनिस और अपने सलीके से उत्सव तक ले जाता है . अब यह भी एक रस्मअदायगी भर बन कर रह गयी है . न वह उत्सव रहा , न वो उत्साह कमबख्त विकास ने सब चौपट कर दिया .
सामाजिक तानाबाना देखिये - बाभन को सब पता रहता है कि संवत्सर कब शुभ में है कब वक्री है लेकिन उसे अपना टोटका तो करना ही है . पत्रा खोलना . उंगली पर कुछ गिनना और बुदबुदाना उसी टोटके का हिसा होता रहा . उंगली पर गिनना लममरदार को कभी नही सुहाया ,ऐसा नही कह सकते , अक्खा गांव वाकिफ रहा जब तक लममरदार रहे मजाक उनके साथ साथ चलता था . बाज दफे अगर पंडित जी जल्दबाजी में रहे और उंगली पर गणना नही किये तो लममरदार के लिए ' साइत ' अधूरी रहती , तुरत पूछते - पंडित रामदीन !आज नाइ 'अंगुरिआये' ? दंतहीन रामदीन फिस्स से हंस देते . अब जब से पंडित बड़ेलाल आये हैं , समाज मे पंडिताई संजीदगी से लिया जाने लगा है क्यों कि ये अपने पिता आचार्य पंडित राज नारायण मिश्र की तरह धीर गंभीर और ज्ञाता है . बहरहाल . पंडित ' सिधा ' लेते , साइत बताते और आशीर्वाद देते अगले जजमान की तरफ बढ़ जाते . अब कुम्हार , ज्यादा तर महिलाएं खांची में कलस , दिया , परई , भरुका , दीयली वगैरह देती . नवरात्र स्थापना कलस के लिए . अइया आँचर जमीन पर फैला कर कोहारिन से आशीर्वाद माँगती . कोइन्छा में पसेरी भर जौ उलच देती - कल सुबह परसाद लेने आ जाना कोहाइन आजी . ( पुरनियों ने कितना समझ बुझ कर जातीय रिश्तों का ताना बाना बुना था कि अब भी जल्दी नही टूट पा रहा है . सनातन में खड़ी जातियों का वर्गीकरण उनके पेशे से जुड़ा रहा , लेकिन एक और लस था जो ज्यादा मजबूत रहा , वह है गांव में पद का रिश्ता . गांव में हर कोई अपनी जाति के खांचे में भले ही खड़ा है लेकिन हर दूसरे से एक रिश्ता और भी जोड़े रहता , भाई , काका , बहन , भौजी , वगैरह वगैरह . इस रिश्ते में जाति कभी नही आई . दिलचस्प बात जो बताना है , वह यह है कि सनातनी विधि में ज्यो ज्यों जातीय वर्ग नीचे खिसकता रहा , उसका गंवई 'पद ' ऊपर उठता रहा . मसलन उस समय के अछूत कहे गए जातियों के लोग पद में सामान्य जाति से दो तीन पीढ़ी ऊपर के मान पर रखे गए . मसलन पांचू हरिजन या सिराजुल हेला हर हाल में चाचा ही रहे उसी तरह कुम्हारिन , तेलिन , कहारिन वगैरह अइया ही रही चाहे कल ही ब्याह के आयी हो . ) बीच मे रोक दिया करिये जहां बहकता हूं .
तो इस नवरात्र को कलश के साथ सारी जातियों के पदीय रिश्ते भी नए सिरे से स्थापित होते हैं . सुल्ताना बो अलता लगाएगी , नेग के लिए झिक झिक करेगी , चौक पुरेगी , गाय का गोबर लाएगी . कलस स्थापित होगा .
इस कलस को देखिए . अल्ट्रा माडर्न से कहता हूं . इस कलस को आध्यात्मिक , कलात्मक , प्रकृति के प्रतीकात्मक स्वरूप को समझिये . मिट्टी का घट और उसमें भरा जल जीव व उसकी आत्मा का विस्तार है . घट के चारो ओर चिपके गोबर में दबाए गए जौ से फूटते अंकुर , धानी रंग की पृथ्वी का फैलाव , उसके ऊपर परई में पड़े तेल या घी में जलता दीप उर्ध्वमुखी है . उसकी ज्योति ऊपर जा रही है . गुजरात के गरवा कलस से भिन्न , वह ज्योति घट के अंदर जलती है लेकिन यह ज्योति वाह्यमुखी उर्धगामी है स्वयं के साथ जग को प्रकाशित करने की कामना ही नव संवत्सर है . नवान्न का उत्सव .
नौमी को सोहारी , लपसी . तेल की सोहारी और महुआ की लपसी इसका काट है कहीं , किसी के पास . पर अब यह भी लुप्त हो रहा है कमबख्त अडानी का जहर जिसे वह रिफाईन कहता है हर रसोई में आ गया है .
चैत चढ़ रहा है . बजा रे ! गिरिजा देवी औ बिस्मिल्ला खान की जुगलबंदी - चढ़त चैत चित लागे न रामा , बाबा के भवनवा . वीर बभनवा सगुनवा विचारों , कब होइहैं पिया से मिलनवा हो रामा , चैत महिनवा . नाही त चन्दन तिवारी के मनाव , चैता सुना , इनसे .
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