अरुण कुमार त्रिपाठी
नई दिल्ली. अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति कानून में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विपरीत संशोधन करने के विरुध्द सवर्णों का भारत बंद भले चार से पांच राज्यों में बिखरा रहा हो लेकिन उससे भाजपा सरकार हिल गई है. उसे इसमें हिंदुत्व के भीतर चौड़ी होती दरार साफ तौर पर दिख रही है. बंद के साथ सबसे सकारात्मक बात यह रही कि वह 2 अप्रैल के दलितों के बंद की तरह हिंसक नहीं हुआ. अगर बिहार में पप्पू यादव पर हमला और टायर व गाड़ियां जलाने व ट्रेन रोकने की कुछ घटनाओं को छोड़ दिया जाए तो किसी के जान को नुकसान होने की खबर नहीं है.
जल्दी ही चुनाव में उतरने वाले मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बंद के प्रभाव से पहले से परेशान सत्तारूढ़ दल और भी बेचैन हो गया है. यह परेशानी उत्तर प्रदेश और बिहार के भाजपा नेताओं के चेहरों पर भी देखी गई. अगर बाराबंकी के हैदरगढ़ में एक कार्यक्रम में गए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ माहौल देखकर तेजी से वहां से निकल दिए, तो केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान का कहना है कि यह कांग्रेस और विपक्षी दलों की साजिश है. केंद्र सरकार कानून के बारे में राज्य सरकारों को एडवाइजरी जारी करने पर विचार कर रही है. कुछ समाजशास्त्रियों को लगता है कि कहीं एससी एक्ट का संशोधन भाजपा के लिए राजीव गांधी के शाहबानो और वीपी सिंह के मंडल कमीशन जैसा मामला न साबित हो.
सवर्णों का कथित भारत बंद विंध्य के उत्तर तक सिर्फ पांच राज्यों में ही सीमित रहा. इसके बावजूद सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक उसका जो भी तेवर दिखा वह सत्ता विरोधी था. अगर ज्यादा साफ कहें तो वह मोदी विरोधी था. जिस बनारस में 2014 में `हर हर मोदी और घर घर मोदी’ का नारा लग रहा था वहां बीएचयू के गेट पर छात्रों ने पीएम का पुतला फूंका और कानून में किए गए संशोधन को वापस लेने की मांग की. रोचक बात यह है कि बंद में एक तरफ बंदे मातरम के नारे लग रहे थे तो दूसरी ओर मोदी विरोधी नारे भी थे.
दलितों के 2 अप्रैल के बंद की तरह इसका आह्वान भी किसी राजनीतिक दल ने नहीं किया था. ज्यादा प्रचार सोशल मीडिया के माध्यम से ही हुआ था. इसके बावजूद अपने को सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट और प्रगतिशील बताने वाले पत्रकार, बौध्दिक इस बंद के समर्थन में पोस्ट लिखते देखे गए. वे सवर्ण समाज के इस गुस्से के साथ थे कि अगर इस कानून का दुरुपयोग हुआ तो कौन रोकेगा. इस कानून के दुरुपयोग का एक उदाहरण इस बीच बहुत ताजा है जिसमें राजस्थान के पत्रकार राजपुरोहित को बिहार में एससी एसटी कानून के तहत दर्ज मुकदमे में उठा लिया गया था. जबकि वह पत्रकार कभी बिहार या पटना गया ही नहीं. बाद में मुकदमा दायर करने वाले व्यक्ति के मुकर जाने पर उसे जमानत मिली. मामला दरअसल सत्तारूढ़ दल के एक बड़े नेता का था.
भाजपा और संघ परिवार के समर्थन से समाज में जगह जगह उग आए सवर्णों के कई संगठनों ने बंद का आय़ोजन किया था और उनका दावा था कि उन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग का भी समर्थन है. ब्रह्म समागम सवर्ण जनकल्याण संगठन के धर्मेंद्र शर्मा ने दावा किया था कि इस आयोजन में सवर्ण समाज और ओबीसी समाज के 150 संगठनों ने हिस्सा लिया था. बंद आयोजित कराने वाले संगठनों में परशुराम सेना, करणी सेना और क्षत्रिय महासभा जैसे संगठन आगे थे. सवर्णों का गुस्सा मध्य प्रदेश के ग्लालियर संभाग में बहुत तेजी से फूट रहा है. यह वही इलाका है जहां दो अप्रैल को दलितों के बंद के दौरान सबसे ज्यादा हिंसा हुई थी. पिछले दिनों केंद्रीय मंत्री थावर चंद गहलौत और एमजे अकबर को क्रमशः विदिशा और गुना में काले झंडे दिखाए गए थे. उससे पहले ग्वालियर में सवर्ण युवकों ने बाइक रैली निकाली थी. भाजपा सांसद रिति पाठक को भी घेरा गया था और केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के ग्वालियर आवास के बाहर प्रदर्शन किया गया था.
बंद का असर अगर उत्तर प्रदेश के आगरा, इटावा, कानपुर, जौनपुर, बलिया, बनारस, संभल, मुरादाबाद, कासगंज और नोएडा के कुछ इलाकों में देखा गया तो मध्य प्रदेश ग्वालियर, विदिशा, गुना, इंदौर, छिंदवाड़ा, उज्जैन, नरसिंहपुर में रहा. राजस्थान के भीलवाड़ा, झालावाड़, भरतपुर, नागौर, अजमेर, में दुकानें और पेट्रोल पंप बंद रहे तो जयपुर, कोटा और अलवर में भी जगह जगह सड़क जाम करने और नारेबाजी करने की घटनाएं प्रकाश में आईं.
बिहार के आरा, मुजफ्फरपुर, मोतिहारी, बेगूसराय और जहानाबाद में बंद का प्रभाव देखा गया. जहानाबाद में पथराव हुआ तो मुजफ्फरपुर में पदयात्रा के लिए जा रहे पप्पू यादव पर हमला किया गया. एक अनुमान के अनुसार बंद देश के 70 जिलों में रहा और इससे करीब 500 करोड़ रुपए का कारोबार प्रभावित हुआ.
सवर्णों की इस नाराजगी को केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने कांग्रेस और विपक्ष की साजिश बताया है और कहा है कि यह कानून तो 1989 से चल रहा है उसके बाद इसमें 2015 में महत्त्वपूर्ण संशोधन हुए. उसके बाद देश में छह प्रधानमंत्री आए. इसलिए संशोधन करके एनडीए सरकार ने नया कुछ भी नहीं किया है. बल्कि पुराने कानून को ही बहाल किया है. भाजपा के सवर्ण सांसद इस मामले से चिंतित दिखे और समाज को समझाने वाली भाषा में बयान दिया. मध्य प्रदेश की सिध्दि रिति पाठक ने कहा कि वे पार्टी के शीर्ष स्तर पर इसे उठाएंगी तो कलराज मिश्र ने कहा कि कानून तो एससी एसटी को सुरक्षा देने के लिए लाया गया है लेकिन कोशिश यह होनी चाहिए कि इससे कोई और शोषित न हो. बांदा के भाजपा सांसद भैरव प्रसाद मिश्र ने कहा है कि विपक्षी दल युवकों को भटका रहे हैं. बिहार के वाल्मीकि नगर से भाजपा सांसद सतीश चंद्र दुबे ने कहा है कि उनके इलाके में कानून के प्रति कोई विरोध नहीं था.
इतिहासकार और मंगलपांडे सेना के संयोजक अमरेश मिश्र का कहना है कि यह विरोध बढ़ रहा है और सवर्ण युवक भाजपा सरकार के काम और रवैए से असंतुष्ट हैं. उन्हें इस सरकार में जुमलेबाजी के अलावा अपना कोई भविष्य नहीं दिख रहा है. वे इसे दलितों के विरुध्द विद्रोह मानने की बजाय अन्याय और झूठ के विरुध्द एक बगावत मानते हैं. इसीलिए यह मामला 22 प्रतिशत बनाम 78 प्रतिशत का लगता है और उत्तर भारत में एक नया सामाजिक समीकरण उभरता दिख रहा है. उन्हें इस आंदोलन में स्पष्ट तौर पर मोदी विरोध दिख रहा है और वे मानते हैं कि अगर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी इस गुस्से को सही दिशा दे सकी तो 2019 का चुनाव परिणाम अलग ही होगा.