मेरी पाकिस्तान यात्रा का उत्साह

गोवा की आजादी में लोहिया का योगदान पत्रकारों पर हमले के खिलाफ पटना में नागरिक प्रतिवाद सीएम के पीछे सीबीआई ठाकुर का कुआं'पर बवाल रूकने का नाम नहीं ले रहा भाजपा ने बिधूड़ी का कद और बढ़ाया आखिर मोदी है, तो मुमकिन है बिधूड़ी की सदस्य्ता रद्द करने की मांग रमेश बिधूडी तो मोहरा है आरएसएस ने महिला आरक्षण विधेयक का दबाव डाला और रविशंकर , हर्षवर्धन हंस रहे थे संजय गांधी अस्पताल के चार सौ कर्मचारी बेरोजगार महिला आरक्षण को तत्काल लागू करने से कौन रोक रहा है? स्मृति ईरानी और सोनिया गांधी आमने-सामने देवभूमि में समाजवादी शंखनाद भाजपाई तो उत्पात की तैयारी में हैं . दीपंकर भट्टाचार्य घोषी का उद्घोष , न रहे कोई मदहोश! भाजपा हटाओ-देश बचाओ अभियान की गई समीक्षा आचार्य विनोबा भावे को याद किया स्कीम वर्करों का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन संपन्न क्या सोच रहे हैं मोदी ?

मेरी पाकिस्तान यात्रा का उत्साह

सुनील बी सत्यवक्ता  
बात 1989 की है. लखनऊ में अपनी ट्रैवल एजेंसी शुरू किए हुए लगभग ढाई साल हो चुके थे. बड़े भाई दुबई में रहते थे. सो, उनके पास एक सप्ताह बिताने का प्रोग्राम बन गया. इंडिया-पाकिस्तान के बीच संबंध ज्यादा सामान्य तो न थे, फिर भी आना-जाना जारी था. इंडिया से कराची और इस्लामाबाद के लिए फ्लाइट चलती थीं. दिल्ली से दुबई जाने के लिए उस समय जो ऑप्शंस थे, उनमें सबसे इंटरेस्टिंग था- पाकिस्तान इंटरनैशनल एयरलाइंस (PIA) से सफर करना. PIA की फ्लाइट का रूट दिल्ली से कराची और कराची से दुबई था. इसी तरह वापसी में दुबई से कराची और कराची से दिल्ली का रूट था. इसमें इंटरेस्टिंग यह था कि आने और जाने में दोनों ओर से उसी दिन का फ्लाइट कनेक्शन न होने के कारण रात कराची में बितानी होती थी. इस दौरान ट्रांजिट वीजा, होटल में रहने और खाने-पीने की व्यवस्था एयरलाइंस करती थी. इसे इंटरनैशनल एयर ट्रैवल की भाषा में STPC कहते हैं. हालांकि जाते वक्त तो ज्यादा समय कराची में नहीं मिलता था, लेकिन लौटते वक्त पूरे 21 घंटे रुकना बनता था. एक नॉन-मुस्लिम होने के नाते और दूसरा पाकिस्तान में मेरा कोई सगा-संबंधी न होने के कारण मुझे वीजा मिलना मुश्किल था. सो, सोचा क्यों न इसी रूट से यात्रा की जाए. इस तरह एक तो मेरी पाकिस्तान जाने की चाह पूरी हो जाएगी और अगर मौका लगा तो कराची शहर भी घूमने को मिल जाएगा. कराची का स्ट्रीट फूड हमेशा से पॉप्युलर रहा है और फिर लखनऊ का होने से जायके की तलाश अपने को रहती ही है. 
दुबई जाने का उत्साह तो था ही, पर उससे ज्यादा पाकिस्तान जा पाने का भी उत्साह था. टिकट हो गया और मैं करंसी एक्सचेंज के लिए स्टेट बैंक पहुंचा, जहां मेरे एक मित्र काम करते थे. जब उन्हें पता चला कि मैं दुबई वाया कराची जा रहा हूं तो उन्होंने रिक्वेस्ट किया कि उनकी बहन, जो कराची में रहती हैं, वे उनके लिए कुछ सामान देंगे, जो मैं उन्हें दे दूं. साथ ही बताया कि मैं कराची पहुंचने पर उन्हें फोन कर दूं और वह होटल से आकर सामान ले लेंगी. अच्छा लगा कि कराची में अपना एक कॉन्टैक्ट तो निकला. 
पाकिस्तान में पहला कदम 
सो, अपना सफर दिल्ली से शुरू हुआ. दिल्ली से फ्लाइट देर रात कराची पहुंची. फ्लाइट से उतरते ही एक मीठा-सा अहसास हुआ. लगा कि किसी रिश्तेदार से मिलने आया हूं. टर्मिनल बिल्डिंग में चलते हुए पाकिस्तानी लोगों की ओर देखकर मुस्कुराने की कोशिश कभी नाकामयाब तो कभी कामयाब हुई. हम सब लोग जो कराची में ट्रांजिट में थे, यानी जिन्हें आगे की यात्रा करनी थी, उनके पासपोर्ट पाकिस्तान इमिग्रेशन ने जमा कर लिए और हैंड बैगेज के साथ PIA की बस से एयरपोर्ट होटल भेजने का इंतजाम किया. बस में लपक कर मैंने विंडो सीट पकड़ी और बाहर का जायजा लेने लगा. चूंकि रात थी और एयरपोर्ट होटल पास में ही था. ऐसे में जगह के बारे में ज्यादा अहसास नहीं हुआ. बस में पुलिस और इमिग्रेशन के अफसर भी थे. होटल पहुंचने पर देखा कि वहां भी इमिग्रेशन की डेस्क थी. होटल में चेक-इन से पहले इमिग्रेशन के अफसरों ने औपचारिकताएं पूरी कीं. रात होटल में गुजरी फिर सवेरे नाश्ते के बाद बस से एयरपोर्ट लाया गया, जहां से हमने दुबई की फ्लाइट पकड़ी. 
दुबई 
जिस दिन हम दुबई पहुंचे, उसी दिन से रमजान शुरू हो गए. रमजान के दिनों में दुबई का अलग ही नजारा होता है. दिन में सड़कों पर ज्यादा चहल-पहल नहीं होती, पर शाम होते ही सारे बाजार और सड़कें गुलजार हो जातीं और यह सिलसिला देर रात तक चलता. कहने को तो दुबई था, लेकिन हिंदुस्तानी, पाकिस्तानी और बांग्लादेशी लोगों की भरमार थी. एक मिनी इंडिया का सा एहसास होता था. आम बोलचाल की भाषा भी हिंदी और उर्दू का मिश्रण थी. एक ओर साउथ इंडियन, गुजराती, शुद्ध वैष्णवी खाना तो दूसरी ओर इंडियन, पाकिस्तानी और बांग्लादेशी नॉन-वेज खाने, सब एक से बढ़ कर एक स्वादिष्ट, मानो कोई फूड कम्पटीशन हो रहा हो. जायकेदार खाने-पीने के शौकीनों के लिए तो जैसे वे शामें वरदान थीं. मेरे भाई वहां एक ट्रैवल एजेंसी में जनरल मैनेजर थे. एजेंसी की दो ब्रांच थीं. वह एक में सवेरे और दूसरी में शाम को बैठते थे. दोपहर में ब्रेक पर घर आते थे. जो लोग नहीं जानते हों, शायद उन्हें अजीब लगेगा, लेकिन दुबई में ऑफिस के काम का वक्त सवेरे आठ से बारह और शाम को चार से सात बजे तक का है. दोपहर में बारह से चार बजे का ब्रेक टाइम होता है. सो, दिन में जब भाई ऑफिस में होते थे तो वह समय मेरा दुबई को अकेले एक्स्प्लोर करने का होता था. आज का दुबई 31 साल पुराने दुबई से बहुत अलग था. 25 फिल्स (एक दिरहम में 100 फिल्स) में अब्रा (दुबई में चलने वाली बड़ी बोट) से दुबई क्रीक को पार कर किसी लोकल की तरह घूमने का आनंद उठाता था. फिर शाम से देर रात तक हम, भाई, भाभी और भतीजे के साथ घूमते थे. दुबई को वैसे ही शॉपर्स पैराडाइज माना जाता है. सो, शॉपिंग के सारे अरमान यहां पूरे हो गए. यूं अपने सात-आठ दिन कब निकल गए, पता ही नहीं चला.अभी जारी है ,आगे का संस्मरण दूसरी क़िस्त में पढ़ें .

  • |

Comments

Subscribe

Receive updates and latest news direct from our team. Simply enter your email below :