विश्वदीपक
साहित्य अकादमी पुरस्कार ठुकराने वाले मराठी साहित्यकार, नंदा खरे से छोटी सी बातचीत
जिस दौर में हिंदी के लेखक राम मंदिर के लिए चंदे की पर्चियां काट रहे हैं और कुछ मीडियॉकर नैतिकता- आध्यात्मिकता के झोल में प्रतिबद्धता के सवाल को नाली में बहाए दे रहे हैं, मराठी के नंदा खरे ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लेने से मना कर दिया.
मैंने पूछा -- क्यों ? उन्होंने कहा -- जनता से पर्याप्त मिल चुका है. खरे बहुत कम बोलते हैं. चार लाइन के सवाल पर दो शब्दों का जवाब.
हिंदी में भी पुरस्कार वापसी हो चुकी है और इन सबके पहले सार्त्र नोबल को ही आलू का बोरा कहकर ठुकरा चुके हैं -- ये दोनों बातें हम जानते हैं. फिर भी खरे का पुरस्कार न लेना आज के दौर का अहम राजनीतिक वक्तव्य है.
मैंने पूछा कि लेखक की राजनीति होनी चाहिए या नहीं ? उन्होंने कहा -- बिल्कुल होनी चाहिए. ठीक उसी तरह जैसे मुक्तिबोध की थी. मैंने कहा – आपकी राजनीति ? उन्होंने कहा – वामपंथी हूं मैं.
मुझे अच्छा लगा. असल में, बहुत अच्छा लगा.
मैंने पूछा -- आप 75 साल के हो गए क्या बदलाव देखते हैं राजनीति, साहित्य, संस्कृति में ? उन्होंने कहा कि हमारी संस्कृति बदल गई है (बर्बर हो चुकी है).
अपने (उद्योगपति) पिता को याद करते हुए खरे ने कहा कि कॉमरेड ए बी बर्धन और बाला साहेब देवरस दोनों से उनकी दोस्ती थी. विचार बेशक अलग थे लेकिन इतनी असहिष्णुता नहीं थी उस वक्त .
मैंने कहा – तो अब क्या हो गया ? खरे ने कहा -- मैंने इमरजेंसी का दौर भी देखा है. आज अनकही इमरजेंसी देश में लागू हैं. हालात पहले वाली इमरजेंसी से बदतर हैं. संविधान के शब्द तो वही हैं, लेकिन आत्मा बदल दी गई है.
आखिर में उन्होंने अपना मेल लिखवाया. कहा -- जब स्टोरी प्रकाशित हो जाए तो मेल पर भेजना. मैंने कहा – व्हाट्सएप. उन्होंने कहा कि इस्तेमाल नहीं करता.
उनके जिस उपन्यास 'उड्या' को पुरस्कार मिला है उसकी विषय वस्तु यही है कि कैसे मशीनों के युग में मनुष्य की निजता के कोई मायने नहीं रह गए.
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