नारीवादी प्रतिरोध और विचार-विमर्श का सप्ताह

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नारीवादी प्रतिरोध और विचार-विमर्श का सप्ताह

नई दिल्ली .अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस और सावित्री बाई फुले की पुण्यतिथि के अवसर पर 'नारीवादी संघर्ष और विचार-विमर्च का सप्ताह' (7 - 14 मार्च) के आयोजन द्वारा जन-आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (NAPM) महिलाओं और सभी शोषित जेंडर के लोगों, जो विविध पहचानों और सामाजिक स्थितियों से सम्बद्ध हैं, की आवाज़ों को बुलंद करने की प्रतिबद्धता ज़ाहिर करता है. 

पहले दिन, हम कृषि और असंगठित श्रम क्षेत्रों को प्रतिबिंबित कर रहे हैं, जहाँ अधिकतम लोग रोजगार पाते हैं और हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ के रूप में काम करते हैं.राज्य और समाज के ताकतवर तबगे श्रमिक वर्ग के काम की प्रायः उपेक्षा करते हैं.व्यापक वैधानिक बदलाव करने के प्रयास किये जाते हैं जो किसानों और श्रमिकों की पहले से ही नाजुक स्थिति को और ख़राब करने की क्षमता रखते हैं.इस सन्दर्भ में हम उन श्रमिकों और उनके संघटनों के साथ पूरी एकजुटता से खड़े हैं जिन्हें व्यवस्था अनदेखा करने की कोशिश करती है.हम उनकी मांगों का समर्थन करते हैं जो पूंजीवाद, संसाधनों की लूट, और श्रम शोषण की असमान प्रणालियों को ख़त्म करने की बात कहती हैं. 

कृषि और श्रम क्षेत्र में बड़ी संख्या में लोग सामाजिक-आर्थिक शोषण का सामना करते हैं.मगर जो अक्सर अनदेखा रह जाता है वह है औरतों का श्रम, साथ ही उन सभी लोगों का श्रम जो अपनी लैंगिक और यौनिक पहचान, जाति, वर्ग, क्षेत्र, जातीयता, विकलांगता, धार्मिक, व कार्य सम्बन्धी शोषण का सामना कर रहे हैं.हम इसे कृषि (कृषि श्रम, पशु-पालन, मछली-पालन, वन आदि), विनिर्माण, खनन और खनिज उद्योग, निर्माण, तथा अन्य 'अनौपचारिक' अर्थव्यवस्थाओं और असंगठित क्षेत्रों जैसे प्रवासी कार्य, घरेलू काम, रेहड़ी-पटरी का काम, सेक्स वर्क तथा समूचे 'सेवा क्षेत्र' में देख सकते हैं.पितृसत्तात्मक और जाति-आधारित श्रम का विभाजन; साथ ही हिंसा, भेदभाव और कामकाजी महिलाओं व हाशिये के जेंडर के व्यक्तियों के काम के ख़िलाफ़ बाधाओं के कारण इनका महत्वपूर्ण श्रम उपेक्षित रह जाता है. 

महिला-किसानों को प्रायः उनके परिवार व राज्य द्वारा मान्यता तक नहीं दी जाती; जिन ज़मीनों पर वे काम करती हैं वे अक्सर सवर्ण भू-मालिकों या परिवार के आदमियों के नाम होती हैं.कृषि-श्रम के अतिरिक्त उन्हें घरेलु, सामाजिक, व सांस्कृतिक श्रम भी करना पड़ता है जिसकी कहीं कोई गिनती नहीं होती.ज्यादातर महिला किसान छोटे, सीमांत, शेयर-क्रॉपर या भूमिहीन-किसान श्रेणियों से संबंधित हैं.महिला किसान संगठन लगभग एक दशक से नीतियों में बदलाव के लिए लड़ रहे हैं, साथ ही ऐतिहासिक किसान-आंदोलन ने, महिलाओं के सक्षम नेतृत्व में इनमें से कई मुद्दों को सार्वजनिक पटल पर रखा है.मत्स्य-पालन में काम करने वाली महिलाऐं, साथ ही आदिवासी व अन्य महिलाऐं जो वन अधिकार संगठनों के माध्यम से संगठित होते हैं, वे तटों और जंगलों पर कॉर्पोरेट हमले के ख़िलाफ़ अपनी आजीविका के अधिकारों के लिए लगातार लड़ रहे हैं. 

लोग हर दिन अपने अधिकारों की मांग करने के लिए आगे आ रहे हैं, खासकर इस साल में, जब महामारी ने उन्हें असंगत रूप से प्रभावित किया है और बहुतों को बिना प्रयाप्त सहायता और आजीविका प्रदान किये जोखिम में डाल दिया है.सफाई कर्मचारी, जो अधिकांश ऐतिहासिक रूप से उत्पीड़ित दलित समुदायों से आते हैं, सदियों से चली आ रही भेदभावपूर्ण प्रथाओं को समाप्त करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं जो उन्हें असमान, असुरक्षित काम करने और जान गंवाने के लिए मजबूर करती हैं। 

आंगनवाड़ी और आशा कार्यकर्ता, जिनका श्रम अति-आवश्यक है, फिर भी राज्य द्वारा वित्तीय रूप से स्वीकार नहीं किया जाता है, यहां तक कि लॉकडाउन और महामारी के ठीक एक साल बाद आये बजट में भी जिसका उल्लेख नहीं मिलता, वे अपने काम की पूरी मान्यता और उचित वेतन की मांग निरंतर कर रही हैं.NREGA जैसी राज्य प्रायोजित योजनाओं में भी महिलाओं का बड़ा कार्यबल और उनके द्वारा कठोर श्रम किये जाने के बावजूद उन्हें पर्याप्त काम और वेतन नहीं मिलता. 

निर्माण-श्रमिकों और शहरी दैनिक-मजदूरी श्रमिकों को महामारी की शुरुआत में आय के किसी भी स्रोत के बिना छोड़ दिया गया था।इनमें बहुत सी औरतें शामिल हैं जिनका वेतन पुरुषों के कम वेतन से भी कम होता है.वे मजबूर हैं समस्त परिवार और बच्चों सहित शहरों में पलायन करने को, जिनका ध्यान भी उन्हें ही रखना होता है.महिलाओं, जेंडर मानकों से अलग व्यक्तियों, विकलांगताओं-सहित व्यक्तियों को काम की तलाश में अतिरिक्त यौन शोषण का सामना भी करना पड़ता है. 

घरेलु-कामगार, जो अधिकतर दलित और आदिवासी समुदायों से आते हैं, और कभी कभी अंतर्राज्यीय प्रवास का हिस्सा भी होते हैं, को भी महामारी के दौरान बिना किसी आय के, शोषक मालिकों की दया के हवाले छोड़ दिया गया और उनका संघर्ष लगातार जारी है.ट्रांसजेंडर व्यक्तियों और जेंडर मानकों को न मानने वाले व्यक्तियों को देशभर में भेदभाव का सामना करना पड़ता है और ज्यादातर संगठित क्षेत्रों में  उन्हें रोज़गार भी नहीं दिया जाता.नर्सिंग से लेकर टीचिंग व सेक्स वर्क तक तमाम कार्यों को न उचित वेतन प्राप्त है, न मान्यता; और सेक्स वर्क परोक्ष रूप से आपराधिक तक समझा जाता है.यह प्रवृत्तियां श्रमिक भेदभाव के गहरे इतिहास में आधारित हैं। 

बड़ी संख्या में महिलाएं, ट्रांसजेंडर व्यक्ति, और लैंगिक मानकों से मुक्त साथी, जो अक्सर दलित, बहुजन, आदिवासी, विमुक्त, मुस्लिम/अन्य उत्पीड़ित अल्पसंख्यक समुदायों से आते हैं, विभिन्न यूनियनों और संगठनों के रूप में हिंसा, भेदभाव और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ मुक्तिवादी लड़ाई लड़ रहे हैं.तीव्र राज्यिक दमन के सामने भी वे अन्यायपूर्ण कानूनों और आजीविका-सम्बंधित क्षेत्रों से राज्य के पलायन के ख़िलाफ़, अपने संघर्ष को जारी रखे हैं और ऐसी नीतियों के लिए लड़ रहे हैं जो उन्हें गरिमा से आजीविका पाने में सक्षम करें। 

NAPM न्याय के लिए लड़ने वाले व्यक्तियों के सभी उपरोक्त वर्गों की आवाज़ और दृष्टि को विस्तार देने के लिए प्रतिबद्ध है.इस अवसर पर, हम विशेष रूप से किसानों और मज़दूरों के आंदोलनों के साथ और उनसे जुड़ी महिलाओं के साथ एकजुटता के साथ खड़े हैं, और तीनों कृषि कानूनों और श्रम-संहिता (लेबर कोड) को पूरी तरह से वापस लेने की माँग करते हैं, क्योंकि दोनों ही किसान-श्रमिक वर्ग के लिए प्राणघातक हैं.हम सुरक्षित आय, सभी फसलों के लिए एमएसपी के लिए कानूनी गारंटी, महिला किसानों की औपचारिक मान्यता और समर्थन प्रणाली, मजबूत सामाजिक सुरक्षा तंत्र, पेंशन, खाद्य सुरक्षा, राज्य-प्रायोजित स्वास्थ्य संरक्षण, शिक्षा, सामाजिक न्याय की मांग, और लिंग, लैंगिकता, जाति, जातीयता, धर्म, विकलांगता, आदि के आधार पर उन सभी उत्पीड़ित और हाशिए के लोगों को संगठित और संघबद्ध होने के अधिकार का पूर्ण समर्थन करते हैं। 
 

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