केरल में असली खेल तो वाम और दाम में ही है

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केरल में असली खेल तो वाम और दाम में ही है

रति सक्सेना 
मेरी राजनीति को समझने की जद्दोजहद सामान्य जनों से संवाद और साहित्य के माध्यम से होती है.शादी के बाद, जब मैंन केरल में आई थी, तब एमर्जेन्सी शुरु हो गई थी, इसरों के कर्मचारियों पर ज्यादा प्रभाव पता ही नहीं पड़ता था ,क्यों कि वे आरम्भ से एक द्वीप में रहा करते थे.उनकी भाषा अंग्रेजी थी, वे अपने ही आसपास रहते थे.हम लोगो का पारीवारिक दायरा भी उतना ही था.लेकिन मैंने बहुत जल्दी मलयालम सीखी, और बहुत सी बातों को कानों तक आने दिया. एमर्जेन्सी में इंजीनियर कालेज के राजन की खबरे आये दिनों सुनी जाती थी,एक तरह का भय जरूर था, हां कांग्रेस की सरकार थी उन दिनों केरल में, तो करुणाकरण तो दुम दबा बैठे ही थे.एमरजेन्सी के बाद देखा कि आये दिन हड़ताल, सुबह ह्यारह बजे से शाम को प्रमुख सड़क पर चलना मुश्किल , लोगों का सैलाब, तरह तरह के झण्डे, और हर चौराहों पर माइक पर चीखते युग पुरुष, तब केरल की राजनीतिक पृष्ठभूमि को देख कर महसूस हुआ कि कुछ बात तो है यहां.लेकिन हड़तालें कष्ट देती थे, क्यों कि उन दिनों भी इसरों बन्द नहीं होता था, लेकिन बस , कैंन्टीन सब बन्द हो जाया करते थे,मैंने ना जाने कितनी बार इसरों के युवा वैज्ञानिकों को पैदल चल करघर आते देखा है, प्रदीप घर से खाना ले जाया करते थे, तो वे चार रोटियां चार लोगों मे बांट कर खाते और पैदल आ जाते. यह वक्त केरल में नक्सलवादी सुकसुक का था, और पड़ोस की अम्मा जी जी से बहुत सी फुसफुसाती बातेंसुनी, जिससे धक्का ही लगा था, क्यों कि राजस्थान विश्वविद्यालय में तो मैंने  साम्यवाद  आइडोलोजी में ईमानदारी देखी थी.व्यक्तिगत तौर पर भी समस्या.आप अपने घर पर सामान लाये तो आटों से भी खुद नहीं उतार सकते, घर बदलते वक्त तो हम रात भर ठेलों के साथ पैदल चलते हुए समान  बदलवाते थे. क्यों कि केवल हाथ ठेले पर इस तरह की मजदूरी चुंगी नहीं लगती थी. जिसे लेने के लिए हट्टे कट्टे लाल लाल आँखों वालें घुटनों तक लूंगी बांधे मुस्टन्टे हुआ करते थे, जिन्हें देखते ही डर लगता था़ एक किस्सा हिन्दी प्रचार सभा के स्कुल का था, जिसमे मैं उस वक्त प्रिन्सीपल के रूप मे काम कर रहीं थी, केरल के प्रेस से बहुत सा कागज टेन्डर के माध्यम से बेचा गया, जिन्हें पटाखों के कारखानों में तमिलनाडु में भेजा जाना था, लेकिन पहले तो बहस होती रही रही,अन्त में निॆश्चित  हुआ कि खरीदकर्ता खुद सारा सामान उतारेगा, और मुस्टण्डे बस देखेंगे, और उसका पांच हजार लेंगे, यह बीस साल पहले की बात है.मैंने खरीददार को जोर जोर से रोते हुए अपने कंधों पर बोरियां चढ़ा कर ट्रक पर चढ़ाते हुए देखा था.इसे कहा जाता है नोक्कु कुली, यानी कि देखते रहने की मजदूरी, और यह नोकु्क कुली सरकारी उपक्रमों को भी देनी पड़ती थी.तब तक मेरा ध्यान कुछ बेहतरीन बातों पर गया तो था, लेकिन ध्यान नहीं दिया था.जैसे कि यहां हर चौराहे पर बैठने का स्थान होता है, जिसमें रेडियो लगा रहता है, और अखबार रखे रहते हैं. जिन दिनों प्रथम ज्ञानपीठ अवार्ड लभीत "कयर" के संक्षिप्त रूप का अनुवाद कर रही थी, तब मेरा विचार साम्यवादी कट्टरता के प्रति बदल गया.जब मैं कमला दास की नीर्मादल पूत काल पढ़ रही थी, तब इस आक्रोश का कारण समझ आया, कयर से ज्ञात हुआ कि साम्य को लाने के लिए बेहद मेहनत लगी, वह भी सुशिक्षित उच्च जाती के नवयुवकों ने मेहनत की,और बहुत मेहनत से वे केरल में साम्य वाद लाये थे, जिसे लाने में वे जेलों में रहें, मारे गये, लेकिन उन्होंने बड़ी मेहनत से कर्मकारों में एक तरह का आत्मसम्मान भर दिया, जिसके कारण उनमें कुछ अख्खड़ पना भी आ गई.जिससे केवल यह राज्य रहा, जिसमें सालों से मजदूरों की आमदनी शिक्षक से ज्यादा रही है. 

यानी कि साम्यवाद को लाना बेहद सघर्षपूर्ण था, क्यों कि यहां भी ब्राह्मण दबदबा था, और नायर प्रभुओं की दादागिरि चलती थी.गरीबी इतनी थी कि दो वक्त  का भोजन भी नहीं मिलता था.लेकिन एक तो साम्यवाद नें मजदूरी को नियमित किया, दूसरे मजदूरों को पढ़ने की सुविधा दी, यह वाद आर्थिक निचले तबके मे शिद्दत से अपनाया गया. 


कांग्रेस यहां सहजता से आई, स्वतन्त्रता संग्राम की आइडोलोजी के कारण और गान्धी जी के विचारों के कारण, यही कारण रहा कि कांग्रेस के प्रमुख नेता बेहद सहज और जमीन से जुड़े थे, जैसे एण्टोनी, और जैकब आदि.हालांकि करुणाकरण के काल में का्ग्रेस का चेहरा कुछ बदला, लेकिन सहजता वहां सामान्य रही,वे चर्च तक पहुंचने में काबिल रहे,  लेकिन उनकी पकड़ मजदूर वर्ग पर कभी नहीं रही, यह पार्टी मिडिल क्लास की थी, जिनमें जाति की समस्या नहीं थी.कांग्रेस में उदारीकरण का स्वभाव था. 

वाम की नींव मजबूत रही , क्यों कि हर प्रान्त में वर्ग की निचले पायदान के लोग ताकत रखते हैं, साथ ही साम्य का साथ दिया बुद्धिजीवियों ने.बेहद कम साहित्यकार थे, जो इस वैचारिकता के सामने अचल खड़े रहे, जिनमें खास थे, अय्यप्प पण्णिक्कर और सुगत कुमारी थी, लेकिन इनका विरोध वैचारिकता नहीं कार्यशैली और अख्खड़ता के विरोध में था. 

और जब मैं कालडी में पढ़ाने गई तो तब मैंने राजनीति को करीब से देखा,  

कालडि संस्कृत विश्वविद्यालय में शिक्षक ‌वर्ग लैफ्ट का था, और बाबू वर्ग कांग्रेस का था.मेरे विभागाध्यक्ष ने समझाया कि केरल में दोनों सरकारे बदल बदल कर आतीं है, कालडी में वाइस चांसलर के साथ हुआ यह कि वाम के दो साल बाद यह यूनिवर्सिटी खुली तो हर बार चांसलर को तीन साल अपनी सरकार के साथ काम करना होता है, लेकिन आखिरी दो साल दूसरी सरकार के साथ काम करना होता है, फिर निसन्देह दूसरे चांसलर को दो साल अपनी सरकार के साथ, तीन साल वाम के साथ बिताने होते है, इसका मतलब शिक्षकों को तीन साल में अपने काम निपटाने पड़ते हैं, और कर्मचारियों को दो साल में.इसलिए दोनों एक दूसरे के विरोध में खड़े रहते हैं. 

मैंने यहां पर हड़ताल की राजनीति के विभिन्न रूप देखे, लेकिन जो बच्चे साम्यवाद के अन्धभक्त थे, मुझे बहुत प्यारे से लगे. 
दरअसल तब मुझे पता चला कि  

1-‍यहां नौकरी, तबादला, जैसे हर काम के लिए एक राजनैतिक पुश लगती है, एक साधारण एमले तक के घर तक सुबह पांच बजे से मजमा लगता है, कोई फीस है कि नहीं मालूम नहीं पड़ा.लेकिन वाहक चालक जी ने फरमाया था कि फीस तो लगती है मैडम. 

2- ‍ केरल में पार्टी भक्ति जन्मजात होती है, आप यूं ही पार्टी नहीं बदल सकते, पार्टी का सदस्य होने का मतलब आपको पार्टी में किसी ना किसी रूप में योगदान देना ही होगा. लेकिन आपकी मेहनत का प्रसाद  कभी कभी प्रसाद दूसरे तीसरी पीढ़ी को मिल पाता है, स्वास्थ्य मिनिस्टर और त्रिवेन्द्रम की  मेयर इसका उदाहरण हैं. 

3 --पहले सीपी आई, और सी पी एम में खुनों खराब का मसला था. जब दोनों मिल गये, तबभी मन नहीं मिला, डी एन ए में आज भी अन्तर है.राजनैतिक नेता मंच पर गले मिलते हैं , उनकी सेना तलवार भांजती है.सीट बँतवारे मेंभी अन्तर है. 

4-मैँने अपने छात्रों से अनेक बार पूछा कि तुपम अनी पढ़ाई छोड़े कर इन कामों में लगे हो? नौकरी कैसे मिलेगी, तो जवाब था, कि मैडम आप भोली हैं, नौकरी तभी मिलेगी, जब राजनेताओं पर पकड़ होगी.केरल में पुस्तक विमोचन भौ राजनेताओं के बघेर नहीं हो सकता. 


लेकिन एक खास बात देखी कि मेरे अपने छात्र शनिवार रविवार को या तो पुताई करने  या फिर कारखानों में रात की पारी में काम करते, जिससे उनके पास अच्छा पैसा रहता था. 


अब मैं तीसरी पार्टी की बात करती हूँ, मैंने हिन्दी प्रचार सभा में में होने वाली बहसों में देखा कि ओ राजगोपाल का कद हमेशा ही बड़ा रहा है, जबकि केरल में बीजेपी की धमक तक नहीं थीं, अशोकन भी उनके साथ रहे.लेकिन उनकी सेना बड़ी नहीं थी, क्यों कि उनके काम का तरीका भी कांग्रेस जैसे ही शान्त ही था. 

लेकिन कालडी की अलग अनुभव हुआ.मेरा एक छात्र, जिसका मैं नाम भी भूल गई हूं, बेहद घुन्ना सा था, अक्सर क्लास से गायब और दूसरे छात्रों से अलग थलग, कुछ कुरेदने पर बताया कि नार्थ केरला का है, पिता की मृत्य हो गई है, मात्र मां है.मैंने देखा कि वह अक्सर लड़कियों के होस्टल के बाहर खड़ा रहता और एक दो लड़कियों के साथ बात करता, जबकि क्लास में किसी से भी नहीं करता.मुझे लगा कि विभागाध्यक् भी कहीं उससे दूरी बनाते हैं, और एक बार वे बोल उठे कि वह ए वी बी पी का है.  

फिर एक चमत्कार होता है , विश्वविद्यालय के चुनाव में ए बी वी पी के उम्मीदवार लगभग जीत जाते हैं, अध्यक्ष तक, वह तो किसी तरह से गोपनीय सूत्रों के चलते अन्तिम पल में वाइस चांसलर नें एक बदलाव किया कि रिसर्च स्टूडेन्ट भीवोट देंगे. 
बस लैफ्ट की जान बची, लेकिन पक्का शाक लगा, लेकिन फिर दूसरा युद्ध चला, लेफ्ट के नेताओं के विरोध में मुद्दे बनाये गये, पुलिस आई, और खूब मीडिया चली, झूठी रैगिंग के, जबकि वर्कर चाहे किसी भी पार्टी के हों, उन्हे संयमित रहना पड़ता है. 

जब मैंने उस छात्र से बात की कि किस तरह उसने अपना आधअर  तैयार किया तो कहने लगा, हम लोग गांवों मे क्रिकेट टीम बनाते हैं, और पुरस्कार भी देतें हैं, धीरे धीरे क्रिकेट प्रेमी बच्चे उनके दल में शामिल होते जाते हैं, यह नार्थ केरल में चल रहा था, वही बी जे पी  खास गढ़ है . 

दूसरा यह कि उसने व्यक्ति  से व्यक्ति बात की, यानी वह रोजाना लड़कियों को एक एक कर के समझाया करता था़ साल भर लगा उसे बेस बनाने में ,लेकिन ज्यादा कारगार निकला.तीसरा उफान गल्फ से लोटे लोगो के कारण था़ .मेरी अनेक ड्राइवरों से बात हुई है, जो मेरी कार चलाने के लिए जरूरत पर आया करते थे.केरल में तो वे जन्मजात लेफ्ट थे, लेकिन जब गल्फ देशों में गये तो उन्होंने देखा कि वहां पर रमजान में खाना नहीं खा सकते , वहां धर्म के कारण बड़ा भेदभाव होता है, यहां तक कि केरलीय मुस्लमानो को भी यह अपमान झेलना पड़ा, क्यों कि वे मूण्डु पहनते थे. इसलिये केरल में अचानक हिजाब और अरबी वेषभूषा का चलन हो गया.लेकिन अक्सर हिन्दु ड्राइवर मजदूर व्यथित रहते थे कि यदि ये देश अपने धर्म के लिए इतना कर रहे हैं तो हम क्यों नहीं.इस तरह वे राइट की और झुकने लगे।.ऐसा नहीं कि केरल का वाम दल उत्तर भारत जैसा धर्म कट्टर हैं, मैंने अपने छात्रों को मन्दिर उत्सवों में खुब भाग लेते देखा है, वे वामी भी होते , लेकिन मन्दिर भी जाते, कोई परेशानी नहीं, लेकिन फिर भी एक उनकी मानसिकता वाली पार्टी ने उनके गल्फ देशों के दिये गये घावों पर मलहम लगाई.पिछले साल का शबरी मलय विवाद के बाद तो एक चैनल खुल गया, जिसके अनुयायी पढ़े लिखे मिडिल क्लास बन गये.फिर एक उच्च वर्ग आया, जो पुरस्कारों पद्म श्री आदि के लालच में केन्द्र की राजनीति की झोली में चला गया़ उनके विचार बेहद हिन्दु वादी बन गये. 

इस तरह यहां यह विचारधारा बेहद धीरे लेकिन बेहद मेहनत से जगह बनाती दिखी, यानी कि कमल को हल्के से नहीं लिया जा सकता. लेकिन केरल में एक युवा तबका ऐसा भी है जिसे राजनेताओं की जरूरत नहीं, वह है आई टी से जुड़ा, ये पढ़े लिखे युवक सोच रखते हैं, काफी कुछ आप जैसी आइडोलोजी रखते हैं, लेकिन ये अभी मिडिल क्लास जैसा ही काम कर कर रहे हैं,यानी कि अपने काम धाम में जुटे हैं, जब ये जागेंगे तो फिर एक बदलाव आयेगा.यदि ये एक जुट हो गये तो बदलाव आयेगा ही. 

इस बीच कांग्रेस कुछ खास नहीं कर पाई,क्यों कि वह आक्रमक कम है,सेन्टर में भी समस्या है, शशि तरूर जमीन से नहीं जुड़े हैं, आम को नहीं भाते. लेकिन वाम नें अपनी जमीन को मजबूत बनाने की कोशिश की है, कोई सन्देह नहीं़ कारगार वर्ग की सन्तानों को सीधे सीधे राजनीति में अच्छी जगह दी जाने लगी, जिसके उदाहरण हमें पिछले राजकीय चुनावों में दिखे़ और सरकार ने काम करना भी शुरु किया है.कुछ सालों से यह काम मजबूती से करने की कोशिश है, कांग्रेस अधिक ईमानदारी से काम कर लेती है, लेकिन वाम के आक्रामण तेवर के सामने नहीं टिक पाती.असली खेल तो वाम और दाम में ही है, अब दोनों ही आमने सामने हैं, दोनों ही आक्रामक है.हालांकि कमल की सरकार नहीं बनेगी, लेकिन जमीन मजबूत हो रही है, बिना सन्देह के. 




 

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